व्यंग्य (नईदुनिया, 21.11.14)
आँसू और झाड़ू
ओम वर्मा
अजब है यह दुनिया और गजब यहाँ की रीत! यहाँ कुछ भी हो सकता है। फर्श
पर कल तक चाय बेचने वाले ‘छोटू’ या ‘बारीक’ को आज
जनता अर्श पर बिठा सकती है तो अदालत साढ़े दस हज़ार साड़ियों, ढाई हज़ार जोड़ी चरण-पादुकाओं व पच्चीस-तीस किलो सोने की मालकिन को एक झटके
में ‘जगत अम्मा’ से मात्र
कुछ क़ैदियों की ‘अम्मा’ में बदल
सकती है। उधर कुछ ‘भक्त’ अपनी
प्रिय नेत्री के जेल जाने पर इस तरह गंगा-जमुना बहा देते हैं मानो अम्मा आर्थिक
अपराध के कारण चार वर्ष के कारावास पर नहीं बल्कि चौदह वर्षों के वनवास पर गईं थीं
या ‘हिज़रत’ कर गईं थीं। फिर
उनकी शर्तबद्ध जमानत पर ऐसे खुशियाँ मनाने लगते हैं मानो देवी सीता अग्नि परीक्षा
देकर अपनी पाकीज़गी सिद्ध कर चुकी हैं। ऐसे ही किसी फाइव स्टार होटल जैसे ‘आश्रम’ में रहने वाले हाय प्रोफाइल संत को
हत्या जैसे जघन्य अपराध में अदालत के आदेश पर भारी लवाजमें के साथ सरकार को जाना
पड़े तो भक्तगणों के आँसू और उधर ताड़ियों के पीछे बाबा के आँसू!
वैसे आँसू की हर बूँद का अपना महत्व
है। छायावाद के अग्रेसर कवि के हाथ लगा तो अमर कविता बन गया और कृष्ण के वियोग में
बहा तो राजघराने की बहू को जोगन बना गया। और यही आँसू यदि कोई टोपीधारी गिद्ध बहाए
तो लोगों को अच्छे खासे आदमी में घड़ियाल नजर आने लगता है। चुनावी टिकट मिले तो
आँसू, न मिले तो टिकिटार्थी की पत्नी की आँख में आँसू!
आँसू तो इंचियोन में भी बहे, मगर ये उस वीरांगना के थे
जो प्रतिद्वंद्वी पर मुक्कों के प्रहार करते या सहते समय तो अविचलित रही, मगर रैफरियों के फैसलों की वज़ह से देश का पदक रूपी सम्मान न बचा पाने के
कारण बिफर पड़ी थी।
वस्तु का अपना वज़ूद तो अपनी जगह है ही, पर उसकी आगे की कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब वह किसी विशिष्ट व्यक्ति
के साथ जुड़कर उपमान बन जाती है। साँप घर में दिख जाए तो वध्य माना जाता है मगर
महादेव के गले में विराज जाए तो नाग बनकर पूजनीय हो जाता है। कुछ ऐसे ही अद्भुत
उतार चढ़ाव समय के इस प्रवाह में झाड़ू भी देख रही है। मेरे जैसे एक आम भारतीय ने
बचपन से झाड़ू या तो सफाईकर्मियों के हाथों में या घर की महिला के हाथों में देखी
है। महिला का ओहदा भले ही बदलता रहा हो पर झाड़ू से उसका साथ वैसा ही रहता आया है
जैसा शिव का त्रिशूल से, हनुमान का गदा से व कृष्ण का
बाँसुरी से। त्रुटिवश पैर लग जाने पर हम भले ही झाड़ू को स्पर्श कर माथे पर हाथ
लगाकर पाप के भागी होने के भय से तो बच सकते हैं पर झाड़ू थामने या कचरा बुहारने को
एक ‘निचले दर्ज़े’ का काम ही
मानते आए हैं जिसके लिए बाहर सिर्फ एक विशिष्ट समाज के ही लोग और घरों में सिर्फ
महिलाएँ ही बनी हैं। घर में झाड़ू यानी औरतें! झाड़ू लगाते लड़के को देख कर घर के लोग
भी उसके ‘हारमोनों’ के
संतुलन को लेकर चिंतित हो उठते हैं। अवकाश के दिन किसी शख्स से यदि ऑफिस जाने की
बात कह दें तो या तो वह तंज में कह उठेगा कि “क्या वहाँ
जाकर झाड़ू लगाउँगा?” या उस पर तंज कसा जाता है कि क्या
वह वहाँ झाड़ू लगाने जा रहा है?
झाड़ू का प्रयोग
मर्दों या समर्थ लोगों के लिए हुआ भी तो बिलकुल भिन्न अर्थ में। जैसे देश या
प्रदेश में सत्ता बदलने पर अक्सर नई सरकार पिछली सरकार वालों पर यह आरोप लगाती है
कि वे ‘झाड़ू’ लगा गए हैं।
झाड़ू को ऑपरेट करना भी दरअसल एक कला है। जो इस कला के अमूर्त रूप तक नहीं पहुँच
पाए वह उसके पास उनचास दिन से अधिक नहीं टिकती। वहीं अगर कोई चतुर सुजान उसे सही
दिन व सही वक़्त पर थामे तो न सिर्फ पूरे देश को थामने पर विवश कर सकता है बल्कि
उसे जनांदोलन के एक उपकरण में भी बदल सकता है। उम्मीद करें कि झाड़ू थामकर देश की
सफाई करने का दावा कहीं आगे जाकर काले धन की वापसी सा टाँय टाँय फिस्स न हो जाए! ***
100, रामनगर
एक्सटेंशन, देवास 455001(म.प्र.) Blog- omvarmadewas.blogspot.in
No comments:
Post a Comment