Wednesday, 16 December 2015

Thursday, 10 December 2015

पुरुष (श्रीनरेश मेहता) - पुस्तक समीक्षा



                                                         पाठक मंच देवास
                               पुस्तक का नाम – पुरुष (काव्य खण्ड)
 कवि – श्रीनरेश मेहता 
 प्रकाशक – भारतीय ज्ञानपीठ, नई  दिल्ली
 समीक्षक – ओम वर्मा, 100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास                                                                      455001 
 मेल आईडी – om.varma17@gmail.com

ज्ञानपीठ पुरस्कार सहित अनेक पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित श्रीनरेश मेहता (1922-2000) अपने समय के एक श्रेष्ठ कवि, कथाकार और चिंतक रहे हैं। शाजापुर में जनमें मेहता जी का मूल नाम पूर्णशंकर था। 1940 में नरसिंहगढ़ राजमाता ने काव्यसभा में इनकी कविता से प्रसन्न होकर इन्हें नरेश उपनाम दिया जिसे इन्होंने श्रीनरेश मेहता के रूप में अपनाया।
       एक साहित्यकार के रूप में इनकी पहचान भारतीयता के लिए गहरी दृष्टि रखने वाले चिंतक के रूप में है। अपनी रचनाओं की समकालीनता के बारे में स्वयं कहते हैं कि वे अपने रूप, रंग और गंध में प्रकृति के रहस्यों से वंचित नहीं हैं। उनकी हिंदी में अपने ढंग की पहली लंबी कविता समय देवता समूची मानवस्थिति, सार्वभौम यथार्थ और साम्राज्यवाद के प्रति उनकी दृढ़ तात्कालिक प्रतिक्रिया को दिखाती है। संशय की एक रात और महाप्रस्थान उनकी लंबी कविताएं हैं जो समकालीन कविताओं के प्रबंध काव्य या महाकाव्य रूप को प्रतिपादित करती है। इसी तारतम्य में उनकी एक लंबी व महत्वपूर्ण कविता पुरुष भी है।
       ‘पुरुष’ को मेहता जी ने काव्य खण्ड की संज्ञा दी है। इसमें प्रकृति ही नहीं, पुरुष-पुरातन की भी भाव-लीलाएं हैं और सामान्य पुरुष की सहभागिता है। इस कारण इसमें  महज दार्शनिकता नहीं बल्कि जीवन-सौंदर्य और भाषा का लालित्य भी है। नरेशजी समूचे ब्रह्माण्ड पर एक काव्य रचना करना चाह रहे थे। इस हेतु वे सतत चिन्तन मनन में डूबे रहते थे। उन्होंने अनुभव किया कि मनुष्य और ब्रह्माण्ड दो धुव्रों के बीच ही मानवीय विचारधारा सम्पन्न होती है। ब्रह्माण्ड के अतुल विस्तार में मनुष्य एक बिन्दुमात्र है जबकि दूसरी ओर वह उसका द्रष्टा है और इस नाते उसका अतिक्रामी। वे इसी आधारभूमि पर सम्भवत: खण्ड-काव्य लिख रहे थे जो उनके निधन से दुर्भाग्यवश अधूरा रह गया। ब्रह्माण्ड विषयक उसी काव्य का एक महत्त्वपूर्ण खण्ड है ‘पुरुष’ जिसे अपने में पूर्ण पाकर भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रकाशित किया है।
  पुरुष और प्रकृति एक दूसरे के पूरक हैं। इस वजह से वे एक दूसरे पर  निर्भर हैं। उनकी इस शाश्वत पारस्परिकता का बड़ा मनोरम वर्णन वे यहाँ करते हैं। - 
   हमें जन्म देकर
        
ओ पिता सूर्य!
        
ओ माता सविता !
        
क्या इसलिए तुम मार्तण्ड हो कि
        
अब तुम प्रकाश के अतिरिक्त
        
और कुछ भी जन्म नहीं दे सकते ?
              
      इस कृति में कई जगह वे सृष्टि की अद्भुत व्याख्या करते हैं। दिन उनके लिए पुत्र और रात बेटी है। प्रकृति के इस मानवीकरण में वे उनके लिए उतने ही चिंतित हैं जितने अपने बच्चों के लिए-

          दिन-
          पूरा दिन न जाने कहाँ-कहाँ भटकता रहता है।
          इतने बड़े शहर में बच्चे का ऐसा दिन भर भटकना
          चिंतित किए रहता है
          रोज शाम को जब वह सकुशल लौट आता है
          तो कुछ चैन आता है।

          और रात भी तो
          पूरी रात न जाने आकाशों के किन-किन अँधेरों में
           तारों के साथ लुका-छिपी खेलती भटकती रहती है।
           इतने विस्तृत अँधेरे आकाश में बच्ची का ऐसा भटकना
           साँसत बनी रहती है।
           रोज सवेरे जब वह खिली काली- सी सकुशल लौट आती है
           तो कुछ चैन आता है।  


      श्रीनरेश जी के लिए मनुष्य और ब्रह्माण्ड दो ध्रुव हैं जिनके बीच मानवीय विचार यात्रा सम्पन्न होती है। उनकी चेतना मानव जीवन के रहस्य को ब्रह्माण्ड में और ब्रह्माण्ड के रहस्य को मानव जीवन में खोजना चाहती है।

        धरती पर इतिहास की खून टपकाती भूषाएँ पहने
        
इतिहास-पुरुष यात्रा कर रहा है
        
जबकि अन्तरिक्ष में
        
पुराण के प्रकाश-झुलसे
         उत्तरीय में विराट पुरुष यात्रा कर रहा है।’

वे स्वयं को प्रकृति का अविभाज्य अंग मानकर कहते हैं-

         ‘मैं प्रत्येक दिन जन्म लेता हूँ
         
इसलिए अपना ब्रह्मा हूँ
       
  मैं प्रत्येक दिन अपने संसार को बसाता हूँ, फैलाता हूँ
       
  इसलिए मैं अपना विष्णु हूँ
        
 और मैं प्रत्येक दिन मृत्यु को प्राप्त होता हूँ
       
  इसलिए रुद्र हूँ
       
  लेकिन फिर भी अजन्मा हूँ
        
 इसलिए मेरा कोई गोत्र नहीं
        
 और न ही मृत्यु को प्राप्त हूँ
        
 इसलिए मृत्युंजय शिव हूँ।’
     
      इस काव्य- खण्ड में श्रीनरेश मेहता जी एक दार्शनिक विचारक के रूप में अपने सर्वोच्च आसन पर विराजित नजर आते हैं। काव्य की हर पंक्ति से प्रतीत होता है जैसे उन्हें प्रकृति के कण कण से लगाव है, कण कण में संगीत है। प्रकृति के उपकरण व हर घटना में उन्हें मानवीय संबंधों की परस्परता की अमूर्तता नज़र आती है। अपने आलेख का समापन में इसी काव्य-खण्ड की उनकी बहुत अद्भुत पंक्तियों से करना चाहूँगा-
                किसी को प्रणाम करो
                वह प्रभु को प्रणाम है
                किसी का चरण स्पर्श करो
                वे चरण प्रभु के ही हैं।
      यह पथ बंधु था और प्रस्तुत काव्य खण्ड पुरुष पढ़कर ही समझा जा सकता कि श्रीनरेश मेहता जी श्रीनरेश मेहता क्यों हैं! छंदहीन कविताओं के दौर में ऐसी चिंतन को दिशा प्रदान करने एवं सृष्टि में स्वयं की स्थिति व भूमिका को परिभाषित करती यह कविता झुलसा देने वाली गर्मी में शीतलता के एक झौंके के समान है।
                                                    

                                                       ***

Wednesday, 9 December 2015

व्यंग्य- टाइपिंग त्रुटि के चमत्कार (सुबह-सवेरे, 09.12.15)


      
व्यंग्य
                         टाइपिंग  त्रुटि के चमत्कार
                                                                                                  ओम वर्मा
फिल्म थ्री इडियट्स। मुख्य अतिथि के लिए टाइप किए जा रहे स्वागत भाषण में  रेंचो चुपचाप चमत्कार को  बलात्कार से रिप्लेस कर देता है। वक्ता चूँकि हिंदी नहीं जानता इसलिए उसके लिए  जैसे चमत्कार वैसे ही बलात्कार’! चमत्कारी व्यक्तित्व यकायक मंच से बलात्कारी घोषित कर दिया जाता है। लुब्बे लुबाब यह कि वर्तनी की एक त्रुटि सरग-पाताल का अंतर पैदा कर सकती है।
      हर कार्यालय में काम करने के आधार पर आप लोगों को दो श्रेणी में विभक्त कर सकते हैं - कुछ कड़ा परिश्रम करते हैं और कुछ काम से जी चुराते हैं। सम पीपल वर्क हार्ड और सम पीपल हार्डली वर्क। लिखते समय Hard को Hardly कर पहले लिख दिया जाए तो फिर वही सरग-पाताल वाली स्थिति बन जाती है। इसी तरह पोस्टकार्ड के युग में एक यह किस्सा भी बहुत प्रचलित था कि कारड में लिखा था तुम्हारी माँ आज मर गई है जिसे पढ़ कर घर में कोहराम मच गया। बाद में मालूम हुआ कि वे सकुशल हैं और पत्र लिखने वाले उनके अशिक्षित पति ने अजमेर की जगह आज मर लिख दिया था।
      समाज की समरसता के ताने बाने को छिन्न भिन्न करने पर तुले कुछ लोग एक समाज विशेष के लोगों को अक्सर यह कह कर उकसाते रहते हैं  कि इन्हें “रोको मत, जाने दो!”  मैं चाहता हूँ कि इन्हें सद्बुद्धि मिले और इनके मुख से सदा यह निकले कि “इन्हें रोको, मत जाने दो!” मगर दुर्भाग्य से इस मुहावरे ने समय समय पर ऐसे गुल खिलाए हैं कि कई ऐसे लोग जिन्हें सचमुच बहुत पहले चले जाना था वे अभी तक रुके हुए हैं और जो यहाँ रुकने के हकदार थे उनको मजबूरन जाना पड़ा। यही स्थिति तब बनी जब एक बड़े कलाकार की अपने बच्चों के प्रति बहुत अधिक पजेसिव पत्नी स्वयं को असुरक्षित महसूस कर देश छोड़ कर जाने की बात कह बैठी। पति के मुँह से एक बार बात निकली नहीं कि सारा देश फिर दो खेमों- रोको मत, जाने दो और रोको, मत जाने दो के बीच बँट गया था। 
      यह आम रास्ता नहीं है लिखे सूचना पट्ट में नहीं को ही बना देना तो शरारती बच्चों का प्रिय शगल रहा है। लेकिन टाइपिंग में कभी कभी कुछ ऐसी गलतियाँ भी हुईं या कभी कभी गलती को टाइपिंग त्रुटि बता कर दबाने की कोशिशे भी हुई जिनसे राजनीतिक रंगमंच पर घमासान मच गया। सवाल-जवाब के बीच अक्सर बच्चों व पत्रकारों के बीच हँसी के पात्र बन जाने वाले एक युवा नेता ने इंग्लैंड में अपना रिटर्न दाखिल किया। हमारे शरलॉक होम्स डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने धमाका किया कि रिटर्न में उन्होंने अपनी नागरिकता इंग्लैंड बताई है। बचाव में यहाँ फिर टाइपिंग मिस्टेक का जुमला काम आया। ऐसे ही एक विधायक ने चुनाव में निर्वाचन प्रपत्र भरते समय अपने शपथ-पत्र में स्वयं को मंत्री बता दिया।  कल शायद इसे टाइपिंग त्रुटि बता दिया जाए। यहाँ भी गाज टाइपिस्ट पर ही गिरना है जो भूतपूर्व टाइप करना भूल गया था।  एक वर्तमान केंद्रीय मंत्री की डिग्रियों का भी कुछ ऐसा ही लोचा है। उन्होंने दो बार दो अलग अलग शैक्षणिक योग्यताओं का उल्लेख किया है। देखना है कि वे इसका ठीकरा किसके सिर फोड़ती हैं।
      और टाइपिंग मिस्टेक घोटालों की श्रृंखला का लेटेस्ट घोटाला है बड़ा भाई-छोटा भाई घोटाला। माता-पिता दोनों अपने अपने समय के भूतपूर्व मुख्यमंत्री हैं। इनका एक बेटा मंत्री और एक उप मुख्यमंत्री है। दस्तावेजों में जो बड़ा है वह बॉयलॉजीकली छोटा है और जो छोटा है वह बड़ा है। बिहार की जनता आशान्वित है कि उसे 'टाइपिंग त्रुटि' के ऐसे और भी चमत्कार देखने को मिलते रहेंगे।
                                                   ***
संपर्क : 100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 (म॰प्र॰)

Saturday, 5 December 2015

कस्बाई सिमोन - समीक्षा


                    पाठक मंच देवास
                             पुस्तक चर्चा
           पुस्तक का नाम : कस्बाई सिमोन (उपन्यास)
लेखिका - डॉ सुश्री शरद सिंह , एम 111, शांति विहार रजाखेड़ी, सागर 470004
                                                       मेल आईडी - drsharadsingh@gmail.com
प्रकाशक : सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग,                                                               दरियागंज, नई दिल्ली 110002   
समीक्षक : ओम वर्मा, 100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001
                मो.  9302379199 , मेल आईडी - om.varma17@gmail.com

पन्यास साहित्य की एक बहुत महत्वपूर्ण विधा है। अर्नेस्ट ए. बेकर के अनुसार उपन्यास गद्यबद्ध कथानक के माध्यम द्वारा जीवन तथा समाज की व्याख्या का सर्वोत्तम साधन है। लेखक इसके विशाल केनवास में अपने मनचाहे रंग भर सकता है। कहानी व कविता में संतुष्टि या यश मिल जाने के बाद रचनाकार को उपन्यास की ओर प्रवृत्त होते देखा गया है। प्रेमचंद जैसे कुछ कथाकार तो ऐसे कालजयी उपन्यास रच देते हैं कि बाद में शोधार्थियों में लंबे समय तक यह बहस मुबाहिसा चलता रहता है कि उन्हें कथाकार के रूप में श्रेष्ठ माना जाए या उपन्यासकार के रूप में!
     सातवीं सदी में बाणभट्ट द्वारा संस्कृत में लिखित कादंबरी विश्व का प्रथम उपन्यास माना जा सकता है। लेकिन हिंदी में तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल प्रथम उपन्यास श्रीनिवास दास रचित परीक्षा गुरु (1843) को ही मानते हैं।  हिंदी के आरम्भिक उपन्यास अधिकतर ऐयारी और तिलस्मी किस्म के थे। ऐतिहासिक उपन्यासों में वृंदावनलाल वर्मा तथा आचार चतुरसेन और आंचलिक उपन्यासों का नाम आते ही रेणु को भला कौन भूल सकता है? बाद में उपन्यास संस्कृतनिष्ठ शैली व मनोवैज्ञानिक शैली से होते हुए प्रेमचंद का युग आते आते सामाजिक विषयों पर लिखे जाने लगे। वर्तमान काल में तो न तो उपन्यासों की कमी है न ही उपन्यासकारों की। चाहे दलित उत्पीड़न हो या स्त्री विमर्श, राजनीतिक विषयवस्तु हो या बाल मनोविज्ञान, सभी विषयों पर उपन्यास लिखे जा रहे हैं। सेक्स जैसे वर्जित विषय पर भी उपन्यास सामने आ रहे हैं और थर्ड जेंडर पर भी।  यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इन दोनों विषयों पर दो लेखिकाओं निर्मला भुराड़िया (गुलाम मंडी) व शरद सिंह (कस्बाई सिमोन) ने भी सशक्त कलम चलाई है।
     अपनी कहानियों में शरद सिंह स्त्री जीवन का सूक्ष्म विश्लेषण करती आई हैं। दलित व शोषित स्त्रियॉं के पक्ष में वे सतत कार्य करती रही हैं। समीक्ष्य कृति में उन्होंने लिव इन रिलेशन’ जैसी प्रथा जो पश्चिमी देशों में लंबे समय से चली आ रही है को अपना विषय बनाया है। अब इस प्रथा ने दबे पाँव हमारे देश में भी पैर पसारना शुरू कर दिए हैं। माना जाता है कि स्त्री इसमें अपनी स्वतंत्रता को सुरक्षित अनुभव करती है। महानगरों में शायद यह अधिक चर्चा या चिंता का विषय न बने मगर कस्बे की बात भिन्न है। वह भी ऐसा कस्बा जो न तो पूरी तरह से महानगर बन पाया हो और न ही पूरी तरह से कस्बाई संस्कार छोड़ पाया हो। ऐसे परिवेश में लिव इन रिलेशन में रहने वाली स्त्री किस भँवरजाल में फँस जाती है यही इस उपन्यास का मर्म है।
      सहजीवन पर प्रेमचंद ने भी दो जगह कलम चलाई है- कहानी मिस पद्मा में व उपन्यास गोदान में। कहानी मानसरोवर के दूसरे खंड में संकलित है। प्रेमचंद के शब्दों में कथा में नायिका पद्मा के “दर्जनों आशिक थे- कई वकील, कई प्रोफेसर, कई रईस। मगर सब के सब अय्याश थे- बेफिक्र, केवल भौंरे की तरह रस लेकर उड़ जाने वाले। ऐसा एक भी न था, जिस पर वह विश्वास कर सकती।...उसके प्रेमियों में एक मि. प्रसाद था –बड़ा ही रूपवान और धुरंधर विद्वान। एक कॉलेज में प्रोफेसर था। वह भी मुक्त भोग के आदर्श का उपासक था। पद्मा के गर्भवती होने पर वह उसके लिए अवांछित हो जाती है। पद्मा उस पर बेवफाई का आरोप लगाती है तो वह उसे छोड़कर जाने की धमकी देता है। पद्मा यहाँ झुक जाती है और प्रेमचंद के अनुसार “प्रसाद ने पूरी विजय पाई।” कथा के माध्यम से प्रेमचंद ने सहजीवन पर विवाह की विजय दिखाई है। इसी तरह गोदान में मालती जो डॉक्टर है और प्रो. मेहता एक दूसरे से प्रेम करते हैं। मेहता मालती के घर रहने लगता  है। फिर जब मेहता मालती के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखते हैं तो मालती इनकार करते हुए कहती है, “मित्र बनकर रहना स्त्री- पुरुष बनकर रहने से कहीं सुखकर है। ...तुम्हारे जैसे विचारवान, प्रतिभावान पुरुष की आत्मा को मैं इस कारागार में बंदी नहीं करना चाहती।” यहा प्रेमचंद महज सहजीवन का एक मॉडल भर सामने रखते हैं। वे यह नहीं बताते कि भविष्य में क्या होता है।
   रूसो ने कहा था हम स्वतंत्र जन्म लेते हैं किंतु उसके बाद सर्वत्र जंजीरों में जकड़े रहते हैं। कस्बाई सिमोन उपन्यास की नायिका सुगंधा इन्हीं जंजीरों तो तोड़ कर आगे बढ़ना चाहती है। इन जंजीरों को तोड़ते हुए विवाह जैसी संस्था के औचित्य पर वह अपने तईं  कई सवाल भी खड़े करती है।  यहाँ यह बताना प्रासंगिक होगा कि लिव इन रिलेशनशिप को अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन, स्कॉटलैंड, और फिलीपींस आदि देशों में कानूनी मान्यता मिली हुई है। हमारे देश में महाराष्ट्र सरकार ने इसे कानूनी मान्यता दी हुई है। म.प्र. में आभा अस्थाना की अध्यक्षता में इस पर एक मसौदा तैयार होने की खबर पढ़ी थी मगर आगे क्या हुआ इसकी कोई खबर नहीं है। हमारे देश में सूचना प्रौद्योगिकी के लिए प्रसिद्ध शहर बैंगलुरु में लिव इन रिलेशन का चलन बड़ा है। कई फिल्मी सितारों ने भी इसे अपनाया है।
     फ्रांसीसी लेखिका सिमोन द बोउआर (1908-1986) जो स्त्री विमर्श की अपने समय की क्रांतिकारी लेखिका मानी जाती हैं का कहना था कि  स्त्री पैदा नहीं होती, उसे बनाया जाता है। उन्होंने दार्शनिक, राजनीतिक, और अन्य सामाजिक विषयों पर किताबें लिखीं जिनमें द सेकंड सेक्स सबसे अधिक चर्चित हुई। इस किताब में उन्होंने स्त्री शरीर और मन के बारे में पितृसत्ता द्वारा बनाए गए तमाम मिथकों और पारंपरिक विश्वासों को खुली चुनौती दी है। सिमोन का मानना था कि स्त्रियोचित गुण दरअसल समाज व परिवार द्वारा लड़की में भरे जाते हैं, क्योंकि वह भी वैसे ही जन्म लेती है जैसे कि पुरुष और उसमें भी वे सभी क्षमताएं, इच्छाएं व गुण होते हैं जो कि किसी लड़के में हो सकते हैं। शरद सिंह उपन्यास के कथानक में दो जगह सिमोन का उद्धरण भी देती हैं। उनकी नायिका भी अपने कस्बे की सिमोन बनना चाहती है।
     प्रस्तुत उपन्यास में सुगंधा और रितिक (काश इसे ऋतिक लिखा गया होता) एक दूसरे से प्यार करते हैं। नायक रितिक सुगंधा को 'लिव इन रिलेशन’ में रहने की चुनौती देता है। सुगंधा की धारणा है कि पुरुष बँधकर भी पूर्ण उन्मुक्त रहता है। वह पत्नी के होते हुए भी एक से अधिक प्रेमिकाएँ रख सकता है फिर भी समाज में क्षमा योग्य बना रहता है। अपने इस 'लिव इन रिलेशन’ की वजह से जब उन्हें बार बार मकान बदलते रहना पड़ता है तब उसे यह समझ में आता है कि 'घर' मानव जीवन में बहुत महत्त्व रखता है। वह यह भी मानती है कि पुरुष जो बनाता है, स्त्री वह बनने को तैयार हो जाती है। कुछ समय बाद जब रितिक अधिकार जताने लगता है तो सुगंधा को एहसास होने लगता है कि उसकी हैसियत एक 'रखैल' से ज्यादा नहीं है।
     हालांकि लेखिका ने भूमिका में ही यह स्पष्ट कर दिया है कि इस उपन्यास के कथानक का उद्देश्य किसी विचार विशेष की पैरवी नहीं करना नहीं अपितु उस विचार विशेष का कस्बाई स्त्री के जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को जाँचना परखनाहै। वे अपने उद्देश्य में सफल भी होती हैं। सुगंधा रितिक से छुटकारा पाकर ऋषभ से वही संबंध बनाती है मगर वहाँ भी उसे शीघ्र समझ में आ जाता है कि ऋषभ की नजरों में भी उसकी हैसियत 'कॉलगर्ल' से अधिक नहीं है। और फिर जीवन में विशाल का प्रवेश होता है। सुगंधा चूँकि विवाह को स्त्री की स्वतंत्रता पर एक थोपा गया बंधन मानती है इसलिए एक बार फिर विशाल के साथ उसी आत्मघाती राह पर चल पड़ती है, यह जानते हुए भी कि उसे फिर उन्हीं सामाजिक स्थितियों का सामना करना पड़ेगा।   
     यहाँ लेखिका ने बड़ी चतुराई का परिचय दिया है। कथानक में सुगंधा कई जगह जगह सिर्फ प्रश्न उठाती है। यह तथ्य अपने आप सामने आ जाता है कि उन्मुक्त रहकर सुगंधा सिर्फ शोषण का शिकार होती है और बदले में मिलता है उसे 'रखैल' या 'कॉलगर्ल' का लेबल। सुगंधा की दफ्तर की एक सखी है कीर्ति जिसका पति एक ठेकेदार है। कीर्ति सुगंधा को खुलासा करती है कि उसका इस्तेमाल कर उसका पति बड़े बड़े ठेके पाता है। वह इसे यह कहकर जस्टिफ़ाई करने का प्रयास करती है कि उन्होंने बच्चों को अच्छा भविष्य देने के लिए यह रास्ता चुना। यहाँ न तो कीर्ति इस पर कोई विरोध जाहिर करती है और न ही सुगंधा इस पर कोई विचार व्यक्त करती है। कीर्ति के प्रसंग से लेखिका क्या संदेश देना चाहती है यह स्पष्ट नहीं होता।
     कस्बाई सिमोन की नायिका स्त्री जीवन पर लादे गए हर बंधन से स्वयं को मुक्त करना चाहती है। यह सच भी है कि हर बंधन को हमारे समाज में सिर्फ स्त्री तक ही सीमित रखा गया है और बलात्कार या हत्या करके भी पुरुष के लिए दूसरा घर बसा लेना उतना मुश्किल नहीं होता जितना पीड़िता को शेष जीवन गुज़ारना। लेकिन यह दोष पितृसत्ता का है लेकिन उसका विकल्प उन्मुक्त जीवन तो हरगिज नहीं हो सकता। स्त्रियाँ अगर जूली बनने को तैयार होंगी तो पुरुष को मटुकनाथ बनने से कोई नहीं रोक सकता। लड़कों को जन्म से ही घुट्टी की तरह स्त्री का सम्मान करना व जीवनसाथी के प्रति वफ़ादार रहना सिखाया जाना चाहिए। दंड प्रावधानों व अभियोजन प्रक्रिया को थोड़ा और सुदृढ़ करना होगा ताकि किसी निर्भया के माता-पिता के जख्म भरने से पहले ही बलात्कारी जेल से छूटकर बाहर न आने पाए। विवाह को बंधन नहीं बल्कि दो आत्माओं व दो परिवारों का मिलन समझा जाएगा तभी इस संस्था की मर्यादा, पवित्रता और विश्वसनीयता सुरक्षित रह सकेगी। उपन्यास में नायिका ऐसे सारे बंधन का विरोध कर लिव इन रिलेशन में रहकर महज एक भोग्या बनकर रह जाती है। वह सही गलत का फैसला करने की स्थिति में भी नहीं रहती। ऐसा लगता है कि लेखिका ने भी अपनी राय थोपने के बजाय सही गलत का फैसला पाठकों पर ही छोड़ दिया है।
     लेखिका ने नायिका सुगंधा के संघर्ष व विद्रोह को सशक्त ढंग से प्रस्तुत किया है। कथानक अंत तक पाठक को बाँधे रखता है। कथानक में उठाए गए प्रश्नों पर समाज में गहन चिंतन मनन व विमर्श की जरूरत है। एक पठनीय उपन्यास के लिए लेखिका बधाई की पात्र हैं।
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