Thursday, 10 December 2015

पुरुष (श्रीनरेश मेहता) - पुस्तक समीक्षा



                                                         पाठक मंच देवास
                               पुस्तक का नाम – पुरुष (काव्य खण्ड)
 कवि – श्रीनरेश मेहता 
 प्रकाशक – भारतीय ज्ञानपीठ, नई  दिल्ली
 समीक्षक – ओम वर्मा, 100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास                                                                      455001 
 मेल आईडी – om.varma17@gmail.com

ज्ञानपीठ पुरस्कार सहित अनेक पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित श्रीनरेश मेहता (1922-2000) अपने समय के एक श्रेष्ठ कवि, कथाकार और चिंतक रहे हैं। शाजापुर में जनमें मेहता जी का मूल नाम पूर्णशंकर था। 1940 में नरसिंहगढ़ राजमाता ने काव्यसभा में इनकी कविता से प्रसन्न होकर इन्हें नरेश उपनाम दिया जिसे इन्होंने श्रीनरेश मेहता के रूप में अपनाया।
       एक साहित्यकार के रूप में इनकी पहचान भारतीयता के लिए गहरी दृष्टि रखने वाले चिंतक के रूप में है। अपनी रचनाओं की समकालीनता के बारे में स्वयं कहते हैं कि वे अपने रूप, रंग और गंध में प्रकृति के रहस्यों से वंचित नहीं हैं। उनकी हिंदी में अपने ढंग की पहली लंबी कविता समय देवता समूची मानवस्थिति, सार्वभौम यथार्थ और साम्राज्यवाद के प्रति उनकी दृढ़ तात्कालिक प्रतिक्रिया को दिखाती है। संशय की एक रात और महाप्रस्थान उनकी लंबी कविताएं हैं जो समकालीन कविताओं के प्रबंध काव्य या महाकाव्य रूप को प्रतिपादित करती है। इसी तारतम्य में उनकी एक लंबी व महत्वपूर्ण कविता पुरुष भी है।
       ‘पुरुष’ को मेहता जी ने काव्य खण्ड की संज्ञा दी है। इसमें प्रकृति ही नहीं, पुरुष-पुरातन की भी भाव-लीलाएं हैं और सामान्य पुरुष की सहभागिता है। इस कारण इसमें  महज दार्शनिकता नहीं बल्कि जीवन-सौंदर्य और भाषा का लालित्य भी है। नरेशजी समूचे ब्रह्माण्ड पर एक काव्य रचना करना चाह रहे थे। इस हेतु वे सतत चिन्तन मनन में डूबे रहते थे। उन्होंने अनुभव किया कि मनुष्य और ब्रह्माण्ड दो धुव्रों के बीच ही मानवीय विचारधारा सम्पन्न होती है। ब्रह्माण्ड के अतुल विस्तार में मनुष्य एक बिन्दुमात्र है जबकि दूसरी ओर वह उसका द्रष्टा है और इस नाते उसका अतिक्रामी। वे इसी आधारभूमि पर सम्भवत: खण्ड-काव्य लिख रहे थे जो उनके निधन से दुर्भाग्यवश अधूरा रह गया। ब्रह्माण्ड विषयक उसी काव्य का एक महत्त्वपूर्ण खण्ड है ‘पुरुष’ जिसे अपने में पूर्ण पाकर भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रकाशित किया है।
  पुरुष और प्रकृति एक दूसरे के पूरक हैं। इस वजह से वे एक दूसरे पर  निर्भर हैं। उनकी इस शाश्वत पारस्परिकता का बड़ा मनोरम वर्णन वे यहाँ करते हैं। - 
   हमें जन्म देकर
        
ओ पिता सूर्य!
        
ओ माता सविता !
        
क्या इसलिए तुम मार्तण्ड हो कि
        
अब तुम प्रकाश के अतिरिक्त
        
और कुछ भी जन्म नहीं दे सकते ?
              
      इस कृति में कई जगह वे सृष्टि की अद्भुत व्याख्या करते हैं। दिन उनके लिए पुत्र और रात बेटी है। प्रकृति के इस मानवीकरण में वे उनके लिए उतने ही चिंतित हैं जितने अपने बच्चों के लिए-

          दिन-
          पूरा दिन न जाने कहाँ-कहाँ भटकता रहता है।
          इतने बड़े शहर में बच्चे का ऐसा दिन भर भटकना
          चिंतित किए रहता है
          रोज शाम को जब वह सकुशल लौट आता है
          तो कुछ चैन आता है।

          और रात भी तो
          पूरी रात न जाने आकाशों के किन-किन अँधेरों में
           तारों के साथ लुका-छिपी खेलती भटकती रहती है।
           इतने विस्तृत अँधेरे आकाश में बच्ची का ऐसा भटकना
           साँसत बनी रहती है।
           रोज सवेरे जब वह खिली काली- सी सकुशल लौट आती है
           तो कुछ चैन आता है।  


      श्रीनरेश जी के लिए मनुष्य और ब्रह्माण्ड दो ध्रुव हैं जिनके बीच मानवीय विचार यात्रा सम्पन्न होती है। उनकी चेतना मानव जीवन के रहस्य को ब्रह्माण्ड में और ब्रह्माण्ड के रहस्य को मानव जीवन में खोजना चाहती है।

        धरती पर इतिहास की खून टपकाती भूषाएँ पहने
        
इतिहास-पुरुष यात्रा कर रहा है
        
जबकि अन्तरिक्ष में
        
पुराण के प्रकाश-झुलसे
         उत्तरीय में विराट पुरुष यात्रा कर रहा है।’

वे स्वयं को प्रकृति का अविभाज्य अंग मानकर कहते हैं-

         ‘मैं प्रत्येक दिन जन्म लेता हूँ
         
इसलिए अपना ब्रह्मा हूँ
       
  मैं प्रत्येक दिन अपने संसार को बसाता हूँ, फैलाता हूँ
       
  इसलिए मैं अपना विष्णु हूँ
        
 और मैं प्रत्येक दिन मृत्यु को प्राप्त होता हूँ
       
  इसलिए रुद्र हूँ
       
  लेकिन फिर भी अजन्मा हूँ
        
 इसलिए मेरा कोई गोत्र नहीं
        
 और न ही मृत्यु को प्राप्त हूँ
        
 इसलिए मृत्युंजय शिव हूँ।’
     
      इस काव्य- खण्ड में श्रीनरेश मेहता जी एक दार्शनिक विचारक के रूप में अपने सर्वोच्च आसन पर विराजित नजर आते हैं। काव्य की हर पंक्ति से प्रतीत होता है जैसे उन्हें प्रकृति के कण कण से लगाव है, कण कण में संगीत है। प्रकृति के उपकरण व हर घटना में उन्हें मानवीय संबंधों की परस्परता की अमूर्तता नज़र आती है। अपने आलेख का समापन में इसी काव्य-खण्ड की उनकी बहुत अद्भुत पंक्तियों से करना चाहूँगा-
                किसी को प्रणाम करो
                वह प्रभु को प्रणाम है
                किसी का चरण स्पर्श करो
                वे चरण प्रभु के ही हैं।
      यह पथ बंधु था और प्रस्तुत काव्य खण्ड पुरुष पढ़कर ही समझा जा सकता कि श्रीनरेश मेहता जी श्रीनरेश मेहता क्यों हैं! छंदहीन कविताओं के दौर में ऐसी चिंतन को दिशा प्रदान करने एवं सृष्टि में स्वयं की स्थिति व भूमिका को परिभाषित करती यह कविता झुलसा देने वाली गर्मी में शीतलता के एक झौंके के समान है।
                                                    

                                                       ***

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