Tuesday, 31 May 2016
Friday, 27 May 2016
व्यंग्य - लकीर की सर्जरी, नईदुनिया, 25/05/16
व्यंग्य
व्यंग्य
लकीर की सर्जरी
लकीर की सर्जरी
साँप निकल गया है, लकीर पर चिंतन जारी है। सबके हाथों में बड़ी बड़ी लाठियाँ हैं। इतने धुरंधरों के होते साँप आखिर बच कर कैसे निकल गया। माहौल कुछ ऐसा है कि सामूहिक बलात्कार पर बहस में भाग लेते समय भी जिनकी मुस्कराहट गायब नहीं होती थी आज उन्होंने भी गंभीरता ओढ़ रखी है। दो साल पहले जिस लहर को उन्होंने झोंका भी नहीं समझा था वह तूफान बनकर उनकी साठ साल पुरानी बस्ती को तो पहले ही तहस नहस कर गई थी। अब जो सर छुपाने भर के लिए आशियाना बचा था वह भी उजड़ गया। परंपरानुसार बिखरे दूध पर रोया जा रहा है। इधर बहू होने का दाँव चलाया मगर बहू पर कहीं दीदी और कहीं अम्मा भारी पड़ गईं। जिसे साँप समझ कर छेड़ा जा रहा था वह सिंहासन पर जा बैठा है और उसकी छोड़ी गई लकीर पर अब लाठियाँ भांजी जा रही हैं। हेलिकॉप्टर खरीदी ने किसकी जेब गर्म की यह बात लोग बोफोर्स घोटाले की तरह शायद भुला भी दें मगर दस जनपथ एंड से डाली गई हर गेंद पर असम की पिच पर हेमंत,कोलकाता में दीदी, चैन्नई में अम्मा और केरल में बुज़ुर्ग बल्लेबाज ने जिस तरह के हेलिकॉप्टर शॉट लगाए हैं वहाँ के दर्शकों की तालियों की गूँज कानों में अभी तक सुनाई दे रही है।
“ये कौन बद्तमीज़ घुस आया है...लगता है गुजरात वालों का भेजा आदमी है!” एक भियाजी किस्म के कार्यकर्ता ने हाँक लगाई। इतने में बाकी लोगों ने युवराज की स्वीकार्यता पर शंका उठाने वाले ‘विद्रोही’ को अस्वीकार करते हुए टांगा-टोली कर सीधा मुख्य-द्वार दिखा दिया।
यूँ तो यह सबसे पुराना राजनीतिक दल है। मगर एक समय पूरे देश में
जिसकी पताका फहराया करती थी अब उसे खूर्दबीन से खोजना पड़ रहा है। आज उसकी स्थिति प्रसव वेदना से पछाड़ खा रही बुधिया सी हो गई है और पार्टी के सारे दिग्गज घीसू - माधो की तरह अपने अपने हिस्से के ‘आलू’ हथियाने में लगे हैं।
जब हम गले गले संकट में फँस जाते हैं तभी हमें बुजुर्गों की याद आती है। यहाँ भी यही हुआ। वे अकस्मात प्रकट हुए और बोले कि “पार्टी को एक बड़ी सर्जरी की ज़रूरत है” और फिर एक गूढ़ चुप्पी लगा कर बैठ गए! रीतिकालीन कवियों की चौपाइयों सा इधर उनका यह तीर छूटा नहीं कि उधर युवराज का हाथ बार बार अपनी नाक पर जाने लगा है।
मंथन जारी है। इनके साथ क्यों गए, उनके साथ क्यों नहीं गए, बहिन जी को लाएँ कि जीजाजी को? देश का मतदाता वंशवाद या एक ही परिवार का शासन जारी रखना चाहता है या नहीं… चुनाव में विकास जैसा भी कभी कोई मुद्दा था या नहीं... रॉबर्ट वाड्रा की संपत्ति में हुई कल्पनातीत वृद्धि ...नेशनल हेराल्ड घोटाला, अगस्टा हेलिकॉप्टर घोटाला आदि आदि भी कोई मुद्दे थे या नहीं... जनता इनका जवाब चाहती थी। इस बारे में जब होगी फुरसत तो देखा जाएगा! फिलहाल रोगी को निष्चेतक (एनास्थेसिया) सुँघा दिया गया है और सर्जन भी आ चुके हैं। जैसे ही उन्हें यह पता चलेगा कि सर्जरी किस अंग की करनी है, अंग विच्छेद कर दिया जाएगा।
छपते छपते ज्ञात हुआ है कि घाव हाथ के ‘पंजे’ में है और सर्जरी पैर के पंजे में कर दी गई है!
100, रामनगर एक्स्त्तेंशन, देवास 455001
Friday, 20 May 2016
Friday, 13 May 2016
व्यंग्य - डिग्री की पड़ताल, नईदुनिया, 04/05/16
डिग्री की पड़ताल
ओम वर्मा
‘सुनो जी’ और ‘कहो जी’, हर आम परिवार में ये चार शब्द या दो वाक्य रोज़मर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन
गए हैं। कइयों की तो पूरी जिंदगी ही इनमें फ़ना हो जाती है।
लेकिन उस दिन
ऐसा नहीं हुआ। मेरे ‘कहो
जी’ कहते ही जो प्रश्न या
फ़र्माइश सामने आई उससे घर का दृश्य कुछ ऐसे बदला मानो टीवी पर किसी ने संतों के
प्रवचन वाला चैनल बदल कर एकदम से किसी राजनीतिक मुद्दे पर चल रहा टॉक शो वाला चैनल
लगा दिया हो। किसी आरटीआई कार्यकर्ता के अंदाज को भी मात करने वाले तेवर के साथ वे
बोलीं-
“मुझे तुम्हारी
डिग्री देखना है।”
“मेरी डिग्री तो जब
तुम्हारे पूज्य पिताजी मुझे देखने के लिए आए थे तब उन्होंने भी नहीं माँगी थी। आज
जबकि घर में बहू और बेटी ससुराल में है, और हम दादा –दादी बन चुके हैं, तुमको मेरी डिग्री देखने की क्या जरूरत पड़ गई?”
“जो गलती मेरे पिताश्री
ने करी मैं उसे सुधारना चाहती हूँ। किसी दिन मेरा बुलावा आ गया और ऊपर वाले ने पूछ
लिया कि तुम्हारे पति के पास कौनसी डिग्री थी तो मैं क्या जवाब दूँगी?”
“एक बार सावित्री को
वरदान देकर यमराज जी फँस जरूर गए थे जिस कारण सत्यवान की घर वापसी हो गई थी। मगर
यह कलयुग है और किसी भी धर्मगुरु से पूछकर देख लो कि क्या पति की डिग्री की सही
जानकारी मिलने पर उन्होंने किसी की आज तक घर वापसी करवाई है?” मैंने बिल पास कराने के लिए
विपक्षी दलों की चिरौरी करने की स्टाइल में पासा फेंका।
“मुझे शक है कि तुमने
शादी से पूर्व अपने पास जिस डिग्री का होना बताया था वह फर्जी है। मैं अब उसकी
जाँच करवाना चाहती हूँ।”
माजरा अब मेरी
समझ में आया। यहाँ दिक्कत यह थी कि मेरे पिताश्री ने जिस जमाने में बी.ए. किया था
वह डिग्री को गाउन वाले फोटो के साथ मढ़वाकर बैठक में लटकाने का जमाना था। मेरे समय
में नॉन – टेक्निकल डिग्री को सिर्फ पोंगली बनाकर पटक देने का चलन शुरू हो चुका
था। अपनी तमाम चीजों के बारे में मैं शुरू से जिस तरह का लापरवाह रहा हूँ उस कारण
जैसे जैसे पत्नी मेरी डिग्री के फर्जी होने की आशंका पर ज़ोर देती जा रही थी वैसे
वैसे मेरे मन में उसके न मिल सकने का एहसास गहराता जा रहा था।
“देखो तुम्हारा सौभाग्य
या सुहाग मेरा तुम्हारे पति होने से है न कि मेरी डिग्री से”, मैंने चुटकी भर सिंदूर की कीमत बताने वाले अंदाज में समझाना चाहा, “मेरी कमाई से मकान, बच्चों की पढ़ाई, शादी-ब्याह सब हमने किए कि नहीं
यानी मैं एक अच्छा पति साबित हुआ कि नहीं?”
“हाँ मैं मानती हूँ कि
तुम एक अच्छे पति हो और तुमने सारे फर्ज़ पूरे किए। मगर इससे तुम्हारी डिग्री की
वैधता कैसे प्रमाणित हो सकती है? ये सारे काम तो
पाँचवी फेल धन्ना काका ने भी किए हैं। मुझे तो आज बस डिग्री देखना है तो देखना
है...!”
अब मैं समझा।
मेरे सुझाव पर वे सास-बहू टाइप सीरियल छोड़ कर आजकल टीवी पर न्यूज़ व टॉक शो ज्यादा
देखने लगी थीं। मेरे खिलाफ बहुत दिन से उन्हें कोई नया मुद्दा हाथ नहीं लग रहा था
तो डिग्री को मुद्दा बना लिया गया था। शायद कुछ लोगों की नजर में घर या देश चलाने
वाले में उसे चलाने के लिए अक्ल, ईमानदारी, अच्छी नीतियाँ और उनका ईमानदारी
से अनुपालन करवाने से कहीं ज्यादा चलाने वाले के पास डिग्री होना ज्यादा जरूरी है।
काश कोई उन्हें यह बता सकता कि बहुत पढे लिखे नौ विद्वानों को अपने राज्य में
ससम्मान नियुक्त करने वाला महान शासक मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर डिग्री के मामले में
‘तूफानी ठंडा’ था!
***
100,
रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 (म.प्र.)
Sunday, 1 May 2016
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