Tuesday, 6 December 2016

व्यंग्य - उनकी जूतियाँ और हमारा मोतीराम

व्यंग्य
                        उनकी जूतियाँ और हमारा मोतीराम  
                                                                 ओम वर्मा

“उसकी निगाह में न तो कोई छोटा है न कोई बड़ा, उसके लिए तो हर आदमी बस एक जोड़ी जूता है जो उनके सामने मरम्मत के लिए खड़ा है।“ उसके बापू मोचीराम जी ने कवि महोदय से कभी यह कहा जरूर था, मगर ....
   
      मगर बात यह है कि मोचीराम-धूमिल प्रसंग के इतने वर्ष बीत जाने के बाद मोचीराम की जगह उनके पुत्र मोतीराम ने ले ली है और जब से उसने यह काम शुरू किया है उसके सामने जूते की मरम्मत के लिए कोई वीआईपी आज तक नहीं आया था। उसके पिता व कविवर की मुलाक़ात के बाद से लेकर आज तक दिनोदिन देश ने कुछ ऐसी तरक्की कर ली है कि किसी भी बड़े को अब जूते मरम्मत की जरूरत ही नहीं पड़ती। बहिन जी या अम्मा का दर्जा प्राप्त वीआईपी के पास इतने जूते सैंडल होते हैं कि कई बेशकीमती जोड़ियाँ अलमारियों से किताबों की तरह झाँकती रह जाती हैं। बहिन जी और अम्माएँ इतना दम रखती हैं कि जरूरत पड़ने पर अगली फ्लाइट से जूतियों की नई जोड़ी भी मँगवा सकती है। अन्य छोटे-मोटे विशिष्टजन अपनी पादुकाओं में टूटफूट होने पर या तो उन्हें फेंक देते हैं या अपने घर सरकारी ड्यूटी पर नियुक्त स्टाफ को भेजकर मरम्मत करवा लेते हैं। वह जानता है कि आज भी हर आदमी जूते के नाप से बाहर नहीं है मगर यह भी सच है कि आज हर वीआईपी के सामने, खासकर अगर वह सियासी शख्सियत हो तो उसके नाप के जूते लेकर लोग लाइन से खड़े रहते हैं। हाँ यह बात आज भी सही है कि पेशेवर हाथों व फटे जूतों के बीच का आदमी आज भी वहीं है, उस पर आज भी सब अपने अपने ढंग से टाँके लगा रहे हैं और आज भी वह उँगली की चोट अपनी छाती पर सहने को अभिशप्त है। पिता मोचीराम को इनका जूता चमकाने के लिए परिश्रम करना पड़ता था, नई पीढ़ी उनकी किस्मत चमकाने के लिए परिश्रम कर रही है।
   
      पिता मोचीराम जी की शिकायत थी कि लोग काम तो खूब करवाते हैं पर नामा नहीं देते। मगर आज मोतीराम के साथ उलटा हो गया। मंत्री महोदया ने दस रु. के काम के बदले उसे दस गुना भुगतान कर दिया। शेष नब्बे रु. वापस भी नहीं लिए। स्वाभिमानी मोतीराम ने शेष राशि के बदले उनकी जूतियों में कुछ और टाँके लगा दिए। बख़्शिश का भार अपने ऊपर न रख मोतीराम ने भी साबित कर दिया कि हर ग्राहक उसके लिए एक जोड़ी जूता भर है। मंत्री महोदया की इस उदारता के कारण कई व्यापारी उनके मंत्रालय में अपने टेंडर आधे दामों पर भरने के लिए तैयार हो गए हैं। आम जनता में यह माँग उठने लगी है कि उन्हें वित्तमंत्री बनाया जाए ताकि वे दस के बदले सौ देने की अपनी उदार नीति पूरे देश में लागू कर सकें। वहीं उनके इस कृत्य से मफ़लरमेन को भी उनके पास काला धन होने का एक ठोस सबूत मिल गया है। मगर ये लोग यह भूल जाते हैं कि मंत्री महोदया के अचेतन में एक तुलसी भी बसी है जो  एक एक पाई का हिसाब लेना या रखना जानती है। सूत्रों के हवाले से यह भी ज्ञात हुआ है कि आयकर विभाग मोतीराम जी पर नजर रखने लगा है और पूछताछ के लिए नोटिस जारी करने वाला है कि उसे दस रु. की कमाई पर नब्बे रु. की जो अतिरिक्त कमाई हो रही है तो क्यों न इस आधार पर उसकी घोषित आय में यह नब्बे प्रतिशत अतिरिक्त राशि जोड़कर  उस पर आयकर वसूला जाए। इधर मोतीराम के वे नियमित ग्राहक जो अभी तक उससे अपने कई बार सिलवाए जा चुके जूते-चप्पलों को एक-एक दो-दो रुपयों में सिलवाते आए हैं, यह सोच सोचकर मंत्री महोदया को कोस रहे हैं कि उनके कारण मोतीराम अब उनके आगे ज्यादा मुँह फाड़ सकता है। दस रु. के काम पर सौ रु. कमाने वाले मोतीराम का बीपीएल कार्ड निरस्त होना तो तय है।
  
       ईश्वर मोतीराम को शक्ति प्रदान करे ताकि वह कैश या काइंड के इस खेल में अगली बार ईवीएम पर बटन दबाने से पहले वह स्वयं को इस भार से मुक्त रख सके। 
                                                   ***

100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 

व्यंग्य- सुबह सवेरे, 06.12.16 में - उनकी जूतियाँ और हमारा मोतीराम




किसी श्रमिक को काम के अतिरिक्त दाम देना आपकी उदारता का परिचायक तब हो सकता है जब आप दाएँ हाथ से दें और बाएँ को भी पता चले। मगर शासक दल का कोई प्रतिनिधि जब ऐसा करे और चालाकी से उसे सार्वजनिक न्यूज़ भी बना दे तो उसमें सामंतवादी सोच की झलक देखी जा सकती है। व्यंग्य में चर्मशिल्पी को आम आदमी (आप वाला नहीं) का प्रतीक दस के बदले सौ देने वाली नेत्री को शासक का प्रतीक या उस सोच की प्रतीक मानकर लिखने का प्रयास किया। किसी भी व्यक्ति को काम का दस गुना दाम देना क्या प्रलोभन देना नहीं है। क्या इससे उस पर एक अनैतिक किस्म का दबाव नहीं बन जाएगा और क्या उस पर यह मानसिक दबाव नहीं रहेगा कि वह इसे ईवीएम पर बटन दबाते समय रिसिप्रकेट करे
     जब हम  चर्मशिल्पी की बात करें और धूमिल की कविता मोचीराम का ध्यान आए ऐसा हो नहीं सकता। जातिसूचक शब्द या जूते की मरम्मत करने वाले के लिए मोची शब्द का प्रयोग किसी को इनेप्रोप्रिएट लग सकता है मगर चूंकि धूमिल की कविता में मोचीराम शब्द ही प्रयुक्त हुआ है इसलिए मैंने उसी नाम से उल्लेख किया है। उसके बेटे का नाम मोतीराम भी यही सोचकर रखा है कि आज मोचीराम शब्द का उपयोग करना उचित नहीं होगा। जिन्होंने मोचीराम कविता नहीं पढ़ी होगी उन्हें व्यंग्य को मेरी दृष्टि से देखने में असुविधा होगी। मगर वलेस के सभी सदस्यों के बारे में मुझे विश्वास है कि सभी का अध्ययन क्षेत्र मेरे अध्ययन क्षेत्र से तो विशाल ही रहा होगा।]



Friday, 2 December 2016

चिंतन - इस पहली को पहली बार दिन सुहाना नहीं था।




          इस पहली  को पहली बार दिन सुहाना नहीं था।
                                                                                                      
                                                                                            ओम वर्मा                           
न्1954 में फिल्म आई थी पहली तारीख। फिल्म में था किशोरकुमार का गाया और उन्हीं पर फिल्माया गया गीत  “दिन है सुहाना आज पहली तारीख है...।” रेडियो सिलोन जिसका कि बाद में नाम श्रीलंका ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन हो गया था पर यह गीत हर माह की पहली तारीख को प्रातः 07.30 बजे 1954 से लेकर आज तक बिला नागा बज रहा है। किसी नौकरीपेशा माध्यमवर्गीय आम आदमी की जिंदगी में पहली तारीख का क्या महत्व होता है यह बात क़मर जलालाबादी का लिखा व सुधीर फड़के द्वारा संगीतबद्ध  यह गीत बहुत ही बढ़िया व मनोरंजक तरीके से व्यक्त करता है।  
     लेकिन इस पहली को पहली बार ऐसा हुआ कि किशोर का यह गीत जो सुबह उसने सुना था, शाम होते होते उसे बेसुरा लगने लगा था। गीत के बोल खोखले लगने लगे थे संगीत फड़के का फड़काता संगीत उसे भड़काता प्रतीत हो रहा था। हर पहली को वेतन के पैसे बैंक से निकालकर जब वह लाता और पत्नी के हाथ में रखता तो ऐसा लगता मानों दुनिया को  सचमुच इन्हीं हाथों की तरह गर्म होना चाहिए। फिर सौंपी गई लक्ष्मी को गृहलक्ष्मी जब अपनी तिजोरी में क़ैद करती थी तो उस समय उसकी आँखों में कुछ ऐसी  चमक आ जाती थी मानों पूरी सृष्टि उसके अधीन हो गई है। उस चमक को देखकर उसे  ऐसा लगता था कि अगर आज किसी कारण से घर में बिजली फैल हो भी जाए तो उसे विद्युत मण्डल वालों की चिरौरी नहीं करनी पड़ेगी।
     उस दिन यानी इस माह की पहली तारीख को जब उसके हाथ में वेतनपर्ची आई तो देखकर उसे बड़ा सुकून मिला था। ऑफिस से हमेशा की तरह लंच-ब्रेक में थोड़ा पहले निकलकर बैंक पहुँचा। पहले ऑफिस से बैंक तक के रास्ते पर पड़ने वाले सारे एटीएमों का जायजा लिया। कुछ बंद थे तो कुछ खुले भी। खुले थे उनमें अच्छी ख़ासी भीड़ थी और पैसे निकालने वालों पर दो हजार की सीमा की शर्तें लागू थीं। मगर मात्र दो हजार से उसका क्या होने वाला था? दो हजार गृहलक्ष्मी के हाथ में रखकर वह हाथ में वह गर्मी पैदा नहीं कर सकता था जिसकी उपमा देकर कवि ने दुनिया को उसके हाथ की तरह गर्म होने की कल्पना की थी। वह बेधड़क बैंक की लाइन में लग गया। हालांकि लाइन तो यहाँ भी छोटी कम लंबी न थी। दो घंटे बाद भी जब उसका नंबर नहीं आया तो उसे भूख लग आई। मगर घर जाकर नरम हाथों की गर्मी और आँखों में सौ वाट के बल्ब सी चमक महसूस करने की ललक ने उसकी भूख खत्म कर दी। कोई ढाई घंटे बाद उसे उम्मीद जगी क्योंकि अब उसके आगे सिर्फ एक ग्राहक बचा था।  
     मगर यहाँ उसकी उम्मीदों के आशियाने को जलाने के लिए एक नई तड़िता उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। अकस्मात मैनेजर ने कमरे से आकर कैश खत्म होने की घोषणा कर दी। लाइन में खड़े लोगों ने थोड़ा आक्रोश दिखाया, कुछ चिल्लाचोट मची और कुछ असंसदीय शब्दों का विस्फोट हुआ।  मगर बैंक स्टाफ को भी पिछले बीस-बाईस दिनों से यह सब सुनने की व इस परिस्थिति से निपटने की आदत सी हो गई थी। थोड़ी देर में सारा आक्रोश दूध के उफान की तरह ठंडा पड़ गया। सब अपने अपने घर लौट गए थे।
     उसे न तो नोटबंदी में रुचि थी न ही वह काले धन की सियासत को समझ सका था। उसे अफसोस था तो बस सिर्फ इस बात का कि आज उसे नर्म गर्म हाथों और आंखों की मिलियन डॉलर चमक का सानिध्य नहीं मिल सकेगा।
                                                      ***                        100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 (म.प्र.)