Friday 2 December 2016

चिंतन - इस पहली को पहली बार दिन सुहाना नहीं था।




          इस पहली  को पहली बार दिन सुहाना नहीं था।
                                                                                                      
                                                                                            ओम वर्मा                           
न्1954 में फिल्म आई थी पहली तारीख। फिल्म में था किशोरकुमार का गाया और उन्हीं पर फिल्माया गया गीत  “दिन है सुहाना आज पहली तारीख है...।” रेडियो सिलोन जिसका कि बाद में नाम श्रीलंका ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन हो गया था पर यह गीत हर माह की पहली तारीख को प्रातः 07.30 बजे 1954 से लेकर आज तक बिला नागा बज रहा है। किसी नौकरीपेशा माध्यमवर्गीय आम आदमी की जिंदगी में पहली तारीख का क्या महत्व होता है यह बात क़मर जलालाबादी का लिखा व सुधीर फड़के द्वारा संगीतबद्ध  यह गीत बहुत ही बढ़िया व मनोरंजक तरीके से व्यक्त करता है।  
     लेकिन इस पहली को पहली बार ऐसा हुआ कि किशोर का यह गीत जो सुबह उसने सुना था, शाम होते होते उसे बेसुरा लगने लगा था। गीत के बोल खोखले लगने लगे थे संगीत फड़के का फड़काता संगीत उसे भड़काता प्रतीत हो रहा था। हर पहली को वेतन के पैसे बैंक से निकालकर जब वह लाता और पत्नी के हाथ में रखता तो ऐसा लगता मानों दुनिया को  सचमुच इन्हीं हाथों की तरह गर्म होना चाहिए। फिर सौंपी गई लक्ष्मी को गृहलक्ष्मी जब अपनी तिजोरी में क़ैद करती थी तो उस समय उसकी आँखों में कुछ ऐसी  चमक आ जाती थी मानों पूरी सृष्टि उसके अधीन हो गई है। उस चमक को देखकर उसे  ऐसा लगता था कि अगर आज किसी कारण से घर में बिजली फैल हो भी जाए तो उसे विद्युत मण्डल वालों की चिरौरी नहीं करनी पड़ेगी।
     उस दिन यानी इस माह की पहली तारीख को जब उसके हाथ में वेतनपर्ची आई तो देखकर उसे बड़ा सुकून मिला था। ऑफिस से हमेशा की तरह लंच-ब्रेक में थोड़ा पहले निकलकर बैंक पहुँचा। पहले ऑफिस से बैंक तक के रास्ते पर पड़ने वाले सारे एटीएमों का जायजा लिया। कुछ बंद थे तो कुछ खुले भी। खुले थे उनमें अच्छी ख़ासी भीड़ थी और पैसे निकालने वालों पर दो हजार की सीमा की शर्तें लागू थीं। मगर मात्र दो हजार से उसका क्या होने वाला था? दो हजार गृहलक्ष्मी के हाथ में रखकर वह हाथ में वह गर्मी पैदा नहीं कर सकता था जिसकी उपमा देकर कवि ने दुनिया को उसके हाथ की तरह गर्म होने की कल्पना की थी। वह बेधड़क बैंक की लाइन में लग गया। हालांकि लाइन तो यहाँ भी छोटी कम लंबी न थी। दो घंटे बाद भी जब उसका नंबर नहीं आया तो उसे भूख लग आई। मगर घर जाकर नरम हाथों की गर्मी और आँखों में सौ वाट के बल्ब सी चमक महसूस करने की ललक ने उसकी भूख खत्म कर दी। कोई ढाई घंटे बाद उसे उम्मीद जगी क्योंकि अब उसके आगे सिर्फ एक ग्राहक बचा था।  
     मगर यहाँ उसकी उम्मीदों के आशियाने को जलाने के लिए एक नई तड़िता उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। अकस्मात मैनेजर ने कमरे से आकर कैश खत्म होने की घोषणा कर दी। लाइन में खड़े लोगों ने थोड़ा आक्रोश दिखाया, कुछ चिल्लाचोट मची और कुछ असंसदीय शब्दों का विस्फोट हुआ।  मगर बैंक स्टाफ को भी पिछले बीस-बाईस दिनों से यह सब सुनने की व इस परिस्थिति से निपटने की आदत सी हो गई थी। थोड़ी देर में सारा आक्रोश दूध के उफान की तरह ठंडा पड़ गया। सब अपने अपने घर लौट गए थे।
     उसे न तो नोटबंदी में रुचि थी न ही वह काले धन की सियासत को समझ सका था। उसे अफसोस था तो बस सिर्फ इस बात का कि आज उसे नर्म गर्म हाथों और आंखों की मिलियन डॉलर चमक का सानिध्य नहीं मिल सकेगा।
                                                      ***                        100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 (म.प्र.)


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