Monday, 27 August 2018

कंगारुओं के देश में- एक काव्यात्मक ट्रैवलॉग, सुबह सवेरे, 17.06.18


 पुस्तक समीक्षा
             कंगारुओं के देश में  - एक काव्यात्मक ट्रेवेलॉग
                                                                           - ओम वर्मा
रेखा राजवंशी का दिल्ली में बसा बसाया परिवार था। पति आलोक मर्चेंट नेवी में कैप्टन थे। नौकरी की वजह से आलोक छह माह प्रवास पर रहते थे और कई देश घूम चुके थे। इसी क्रम में सिडनी उन्हें कुछ ऐसा भाया कि अपनी अच्छी भली नौकरी छोडकर नए काम की तलाश में सिडनी आ बसे। सिडनी में काम तलाशा, नहीं मिला तो वापस दिल्ली आए, फिर सिडनी आए और ऐसे जमे कि स्थाई डेरा जमा लिया।
     इस पूरे विस्थापन, संघर्ष, और पुराने परिवेश से बिछोह के बाद नए परिवेश से सामंजस्य में अपनी नई पहचान बनाने की दास्तान वाला यह कविता संग्रह है कंगारुओं के देश में। कवयित्री के रूप में रेखा ने उसे कैसे देखा, संग्रह उसी का दस्तावेज़ है। घर से निकलने, हवाई यात्रा,ऑस्ट्रेलिया में बसने, वहाँ की प्राकृतिक सुंदरता, वहाँ के मूल निवासियों के जीवन का अध्ययन, वहाँ अपने बच्चों की पढ़ाई, वहाँ अपने लिए कोर्स कर शिक्षण कार्य की शुरुआत, साहित्यिक सृजन व पुस्तक प्रकाशन तक का पूरा संघर्ष व समर्पण का नाम है रेखा राजवंशी। कवयित्री का यह कथन स्वयं सारी बात कह देता है-“विदेश जाना इच्छा से हो या मजबूरी, परंतु मानवीय भावनाएँ हर जगह समान रहती हैं। चाहे काम के लिए भारत में भी एक शहर से दूसरे शहर जाना पड़े, तब भी हम अपने मित्रों, परिवार, गली, मोहल्ले, दुकान और मकान की यादें अपने मन की झोली में रखे रहते हैं। भारत में रहकर जब हम नॉस्टेल्जिक हो जाते हैं तो विदेश में रहकर ऐसा होना स्वाभाविक ही है।“
     अपने पहले के देश भारत को छोड़कर ऑस्ट्रेलिया जा बसना उन्हें कुछ वैसा ही झटका देता है जैसे किसी अन्तरिक्षयान को एक गृह की कक्षा से दूसरे गृह की कक्षा में प्रवेश करते समय लगता है। यान अन्तरिक्ष में तभी तक निश्चिंत रहता है जब तक की दूसरे गृह की चुंबकीय परिधि में नहीं आ जाता। यही हाल उन आप्रवासियों का होता है जो अपनी मातृभूमि छोड़कर कमाने के लिए दूसरे देश जा बसते हैं।  रेखा राजवंशी भारत में सरिता विहार, नई दिल्ली स्थित अपना घर छोड़कर कंगारुओं के देश में जा बसीं तो वे भला कक्षा विस्थापन के इस दर्द से अछूती कैसे रह सकती थीं। यही दर्द इन कविताओं में व्यक्त हुआ है। संकलन में अंत में दी गई बाद की कुछ ग़ज़लों के साथ मुक्तकों और गीतों को छोड़कर देखेँ तो साफ दिखाई देता है कि ये अलग-अलग कविताएँ नहीं हैं, बल्कि सबको एकसाथ जोड़कर एक लंबी कविता के रूप में भी पढ़ा/समझा जा सकता है।
     कविताएँ सही देखा जाए तो दो देशों की संस्कृतियों का एक संवेदनशील कवयित्री के दृष्टिकोण से अध्ययन भी है। लगता है मानों दो देशों की संस्कृतियों के बीच कवयित्री अपना अस्तित्व तलाश रही है। कविताओं में बचपन से लेकर किशोरावस्था से होकर वृद्धावस्था तक के दृश्य सामने आते हैं। कवयित्री का विरही मन बार बार अपनी माँ, अपनी नानी को कुछ इस तरह याद करता है अगर उन स्मृतियों को वह एक तूलिका में बदल सके तो अपने वर्तमान ऑस्ट्रेलियाई केनवास पर अपनी भारतीय संस्कृति व स्मृतियों के वो सारे रंग भर दे जो उसे बार बार बेचैन करते रहे हैं। ऐसा लगता है मानों कविताओं में कवयित्री भारतीय जीवन को फिर से जी लेना चाहती है।
     आदिवासी समाज जैसे हमारे यहाँ अन्याय व शोषण का शिकार रहा है, वैसा ही ऑस्ट्रेलिया में भी हो चुका है। रेखा जी वहाँ के आदिवासी लोगों पर हुए अत्याचारों के अतीत को जानकर विचलित हो जाती हैं। डिजरीडू नामक लंबे ऑस्ट्रेलियाई लोकवाद्य जितनी लंबी पीड़ा उनको होने लगती है जो संकलन की चार कविताओं के माध्यम से व्यक्त होती हैं।  
     कविता में वहाँ के बस्कर के नाम से जाने जाने वाले लोक कलाकारों  का भी जिक्र है किसी भी सार्वजनिक स्थल पर गायन-वादन-नृत्य और तरह तरह के शारीरिक कौशल के कारनामे दिखाते हैं। लोग सिक्के डाल जाते हैं उनके आगे, जो ज़ाहिर है कि उनका मेहनताना है, भीख नहीं! पति के लंबी जहाज़ी यात्राओं  पर जाने के दौरान रेखा जी ने घर से बाहर निकल निकलकर ऑस्ट्रेलियाई जनजीवन के इन्हीं दृश्यों को स्मृतियों में क़ैद कर उन्हें कविता का विषय भी बनाया है।
     सिडनी के पेरामेटा उपनगर में एक मधुर लोकवाद्य बजाने वाला कलाकार जिसे वे अक्सर देखा करती थीं, अकस्मात गायब होकर उन्हें बेचैन कर जाता है। अर्से बाद उसे फिर बजाते देख उन्हें महसूस होता है मानो वहाँ का जनजीवन पुनः जीवित हो उठा है।
     डार्लिंग हार्बर सिडनी की पहचान है। इससे कवयित्री का जुड़ाव कैसे होता है, इस पर भी एक बढ़िया कविता है। सभी कविताओं में कवयित्री चंचल बालिका मिलेगी से लेकर एक विरहिणी नायिका, सभी रूपों में नज़र आती है।
     संकलन की पहली कविता दिल्ली का अपना निवास छोड़ने से आरंभ होती है और ऑस्ट्रेलिया में रच-बस जाने पर समाप्त होती है। इनमें यात्रा के दौरान व जहाज बदलने के अवसर पर लिखी कविताएँ भी हैं। अंत में कुछ गीत, ग़ज़लें व मुक्तक भी हैं जो कवयित्री की छंद की समझ को साबित करती हैं। कंगारुओं के देश में एक कविता संकलन ही नहीं, एक काव्यात्मक ट्रेवेलॉग भी है।
                                                          ***
100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 म प्र

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