Thursday, 1 November 2018

व्यंग्य - जिधर भरा हो नेग का प्याला, लाइफ़ वहीं होगी झिंगालाला ! (नईदुनिया, 31.10.18)

   
               
        जिधर भरा हो नेग  का प्याला, लाइफ़ वहीं होगी झिंगालाला!   

                                                                                                       ओम वर्मा
जा बेटा तेल ले के आ तो!  
     
     उक्त आदेश सुनते ही बड़ा बेटा होने के नाते डिब्बा और थैली लेकर पिछले दरवाजे से मुझे मुहल्ले की लाला की दुकान पर पाव भर तेल लेने के लिए निकल जाना होता था। होता यह था कि महीने के अंत में जब अकस्मात कोई अतिथि देवता होने का एहसास दिलाने आ जाते थे तो उनके लिए यह भागदौड़ करना पड़ जाती थी। उन दिनों शाकाहारी घरों में मेहमानों का स्वागत भजिए-पूरी के महाभोज से ही किए जाने की परंपरा थी। या फिर जब बड़ी देर तक बारिश थमने का नाम नहीं लेती और बूँदों की बदमाशी  बटक में कनवर्ट हो जाती थी, तब दादाजी की अकस्मात भजिए खाने की फ़र्माइश हो जाती थी। घर में तेल के स्टॉक की तो जैसे पहले ही दिन से कृष्णपक्ष के चंद्रमा से  होड़ शुरू हो जाती थी। तो क़िस्सा मुख़्तसर यह कि मुझे आने में देर तो हो ही जाती थी क्योंकि एक तो लाला की दुकान पर यह अघोषित परंपरा थी कि उधारियों की सुनवाई सबके बाद में ही होती थी। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि मुहल्ले वालों के सामने खाते में लिखवाते समय मुझे एक अनजाना अपराध बोध, एक अनजानी हीन भावना कचोटने लगती थी। शायद यही वजह थी कि मेरा मुँह नगद वाले ग्राहकों के जाने के बाद ही खुल पाता था। पिछला चुकाने से पहले नया उधार लेने में संकोच का एक कारण यह भी था कि मेरी आत्मा का तब माल्याकरण या नीरव मोदीकरण नहीं हुआ था। वैसे लालाजी इस मामले में  पूरे गांधीवादी थे इस नाते कतार के अंतिम व्यक्ति का भी पूरा पूरा ध्यान रखते थे। लेकिन उधारी के अर्थशास्त्र और गांधीवाद का यह सम्मिलित फलसफा भी अतिथि के सामने मेरे अधिक समय तक नदारद रहने की वज़ह से उठने वाली आशंकाओं का निवारण नहीं कर पाता था।   उन्हें अकस्मात मिसिंग पर्सन का ध्यान आ जाता तो वे पूछ ही बैठते कि आपका बड़ा बेटा नहीं दिखाई दे रहा? और तब पिताजी चाहकर भी नहीं बता पाते थे कि वो तो गया तेल लेने, आप तो हमसे बात करो जी!
     
     लेकिन मेरा तब वह तेल लेने जाना न तो कोई पलायन था, न ही कोई निष्कासन। वह था महज़ घर की लज्जा का निवारण। मेहमान पिताजी के हावभाव देखकर समझ तो जाते थे कि घर का बड़ा बेटा किसी गुप्त मिशन पर भेजा गया है और ज़ाहिर है कि थाली परोसे जाने पर मिशन का उद्देश्य डिकोड भी कर लेते थे। मगर उन दिनों मेहमानों में इतनी तहज़ीब भी थी कि मेरे तेल लेने जाने के प्रकरण  को कभी अन्य रिश्तेदारों में वायरल नहीं किया।
     
     तेल लेने जाने का पारिवारिक प्रसंग राजनीति में अब बहुप्रचलित जुमला बन चुका है। यहाँ कौन कब किसको तेल लेने भेज दे या कब किसको तेल लेने जाना पड़ जाए, कोई नहीं जानता। आचार संहिता के चलते तेल का आवश्यक क़ोटा पूरा नहीं हो पाने की वजह से राधाओं के डांस आयटम मंचित नहीं हो पा रहे हैं क्योंकि नौ मन तेल लेने जिसे भी भेजा जाता है उसे अन्य दल की राधाएँ कम तेल पर नाचने की घोषणा करके अपनी तरफ कर लेती हैं।  विवाह में वर-वधू को तेल लगाना एक रस्म ज़रूर है मगर आज जबकि प्रतिबद्धता कपड़ों की तरह बदली जाने लगी हो, ऐसे चतुर सुजान भी सामने आ गए हैं जो तेल के साथ साथ तेल की धार भी देखते हैं और हवा के रुख़ को पहचानकर लाड़े को तेल लगाते लगाते बीच में दौड़कर लाड़ी को भी लगा आते हैं। वे अब यह नहीं देखते कि लाड़े की तरफ से हैं या लाड़ी की तरफ से, अब तो सिर्फ यह देखा जाता हैं कि नेग किधर से ज़्यादा मिलेगा। जिधर भरा हो नेग  का प्याला, लाइफ़ वहीं होगी झिंगालाला!    
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