व्यंग्य
माँग और आपूर्ति की उलटबाँसी
ओम वर्मा
पढ़ाई तो मैंने विज्ञान विषयों की ही करी थी मगर उसका उपयोग
आस पड़ोस के बच्चों को कभी निबंध लिखकर देने के लिए तो कभी बॉस के बच्चों को विज्ञान
प्रदर्शनी में मॉडल बना कर देने, कभी
वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में पॉइंट्स लिखकर देने और कभी अपने बच्चों का ‘होम वर्क’ पूरा करवाने में होता रहा। यानी गर्व करने
के लिए मैं कह सकता हूँ कि मेरी शिक्षा कहीं किसी के कुछ काम तो आई ! कभी कभी अपनी
इस बुद्धिमत्ता और चतुराई पर मन को बड़ा गर्व होने लगता है कि मैंने अर्थशास्त्र की
पढ़ाई नहीं की वर्ना किस काम आती ! अगर किसी बड़े स्थान पर होता तो मुझे भी बड़े बड़े
अर्थशास्त्रियों की तरह रुपए के लुढ़कने और रसातल में जाती अर्थव्यवस्था का जवाब
देने के लिए मुँह छुपाना पड़ जाता। और क्या पता कल को गिरते रुपए, घड़े को फोड़कर बाहर निकलते भ्रष्टाचार और सुरसामुख से भी ज्यादा विराट रूप
ले चुकी महँगाई के लिए मुझे भी दोषी या चोर ठहरा दिया जाता। अंततः मैं भी तो उसी
व्यवस्था का ही अंग हूँ।
बहरहाल, जैसे हिंसा को जस्टिफ़ाइ करने के लिए हमें कभी ‘बड़े
पेड़ों के गिरने पर छोटे-मोटों को होने वाली हानि’ या ‘क्रिया की प्रतिक्रिया’ के नियमों का बिना
भाषाशास्त्रियों या बिना न्यूटन का आभार माने सहारा लेना ही पड़ता है कुछ उसी तरह
अर्थशास्त्री किसी भी ‘लोचे’ में ‘माँग और आपूर्ति’ के नियम में अपनी सद्गति ढूढ़ने की
पुरजोर कोशिश करने लगते हैं। इस नियम के अनुसार माँग ज्यादा और आपूर्ति कम होने पर
वस्तु महँगी तथा सरप्लस होने पर सस्ती हो जाती है। लेकिन अर्थशास्त्र तो ठीक, जीवन के सभी क्षेत्रों में यह नियम दम तोड़ता नज़र आता है। जैसे हमें पढ़ाया
गया था कि हमें ‘नेता नहीं नागरिक चाहिए!’ यानी नेताओं की माँग नहीं है। इधर हम देख रहे हैं कि नेताओं की तादाद दिन
दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही है। यानी माँग कम, मगर आपूर्ति
ज्यादा ! अब आपूर्ति ज्यादा होने से नेताओं के भाव अपने आप कम होने थे। मगर ऐसा
नहीं हुआ। हर नेता का अपना भाव। मूल्य सूचकांक व ग्राफ के अक्षों (axis) को लांघता भाव !
बाज़ार में अनाज की आसमान छूती कीमतों को
देखकर अभी अभी केंब्रिज का गाउन टाँग कर
बैठे कुछ मित्र ‘माँग और
आपूर्ति’ वाला ज्ञान बघारते हुए फरमाने लगते हैं कि इस बार
फ़स्ल की पैदावार कम होने से आपूर्ति कम हुई, जिस कारण अनाज
महँगा हुआ है ! मगर पैदावार के सरकारी आँकड़े बताते हैं कि इस बार जैसी पैदावार तो
कभी हुई ही नहीं ! इतनी पैदावार कि रखने की जगह नहीं...माँग की आवाज को आपूर्ति का
शस्त्र बनाकर कुचलने से पूर्व बाहर पड़े पड़े बारिश में भीगने और सढ़ने को तैयार पड़ा अनाज...!
अनाज भी भरपूर मगर भाव उससे भी ज्यादा भरपूर !
धर्मों-संप्रदायों और संत-बाबाओं का देश !
इतने बाबा कि पैरों तले आने लगे। आश्रमों से लेकर जेलों तक और सियासी शिविरों से
लेकर टीवी चैनलों तक उपदेश देते, ज़मीनों
पर कब्जा जमाते, कृपा से लेकर क्रोध तक बरसाते बाबा, दवा देकर शरीर की ‘स्पर्श चिकित्सा’ से नाबालिग अहल्याओं का उद्धार करते बाबा...! माँग से कई गुना ज्यादा
बाबा होने पर भी एक भी बाबा को न तो बिना अपाइंटमेंट मिलने या प्रवचन देने की फुरसत
है और न ही गिरफ्तारी आदेश को तामील करने की जल्दी ! यानी माँग से ज्यादा आपूर्ति
होने पर भी बाबाओं का इकबाल भी बुलंद है
आज देश में बाबागिरी गांधीगिरी पर भारी पड़
रही है।
*** 100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001
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