Thursday, 21 November 2013

  व्यंग्य (नईदुनिया, 18.11.13)
बापू के चरखे की नीलामी 
                                                         ओम वर्मा                                            om.varma17@gmail.com     
त्य, अहिंसा, धोती, सत्याग्रह और चरखे को मिलाओ तो गांधी बनता है ! बरुआ जी से क्षमा याचना कर करना चाहूँगा कि गांधी इज़ चरखा; चरखा इज़ गांधीसागौन की लकड़ी से बना यह पोर्टेबल चरखा यरवड़ा जेल में भी गांधी के व्यक्तित्व और दिनचर्या का अविभाज्य अंग था। 1933 में रिहा होने के बाद उन्होंने इसे वर्धा की एक मिशनरी के रेवरेण्ड डॉ. फ्लायड ए. पफ़र  (1888-1965) तथा उनकी पत्नी को भेंट कर दिया था। और इसी करामाती चरखे को गत 5 नवं. को लंदन के मलस्क्स आक्शन हाउस में एक लाख दस हजार पौंड मेँ नीलाम कर दिया गया। नीलामी की खबर से सभी दलदलों, आयमीन राजनीतिक दलों मेँ खलबली मच गई।
     “ये बापू आखिर चरखा क्यों चलाते थे? क्या इसका सूत और उससे बना कपड़ा चीन के सूत या कपड़े से भी सस्ता था?” एक कार्यकर्ता ने सवाल किया।   
     “इससे तो अच्छा होता कि चुनाव जीतने या कट्टे तमंचे बनाने के गुर सिखाकर जाते.. अब चरखे को चाटेंगे क्या
?” मंत्रीजी के एक लट्ठ-भारती विशेषज्ञ पट्ठे ने मूंछों पर ताव देते हुए अपनी जिज्ञासा सामने रखी।
     “मेरे ख्याल से वो चरखा हमें ही खरीद लेना था।“ एक और चुनावी झाँकी विशेषज्ञ ने सुझाव दिया।
     “क्या चरखे टाइप बात कर रहे हो यार! ब्रिटिश पौंड आज सौ रु. का है। एक करोड़ के चरखे पर एक करोड़ तो कस्टम वाले ही ले लेते। दो करोड़ से भी ज्यादा का चरखा लेकर अचार डालेंगे क्या?” पार्टी के चुनावी फण्ड के लिए चंदा वसूलने मेँ माहिर होने के कारण इन्हें बजट के समय चैनल चौपालों पर भी कुछ इसी तरह दहाड़ते हुए देखा जाता था। आज भी इस ‘अर्थशास्त्री’ कार्यकर्ता ने बापू को कुछ इसी तरह श्रद्धांजलि दी।
     “सोचो अगर बापू का चरखा हमारे पास आ जाता तो हम पटेल के स्टेचू ऑफ यूनिटीसे भी बड़ा मुद्दा जनता के सामने रख सकते थे और लोगों की व प्रेस वालों की इसगलतफहमी को भी दूर कर सकते थे कि हम गांधी को सिर्फ दो अक्तूबर और वो जनवरी मेँ कौन सी तारीख थी यार...हाँ वो तीस को ही याद करते हैं।“ इस जोरदार विचार पर कुछ ने ताली बजाई तो कुछ नंगे सिर होते हुए भी हेट्स ऑफ! हेट्स ऑफ !! चिल्लाने लगे।
     “मैं कहता हूँ अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। क्यों न हम किसी बड़े साधू से यह बयान दिलवा दें कि उसे सपना आया है कि फलाने फलाने किसी दलित व्यक्ति के यहाँ रखा चरखा ही बापू का असली चरखा है। फिर वहाँ हमारे बड़े सर एक रात रुकें, मुँह जूठा कर लें, कुछ मच्छरों को रक्तदान कर दें और चरखा लेकर राष्ट्र को समर्पित भी कर दें। इससे ये दलित लोग भी खुश हो जाएंगे, मच्छरों का भी टेस्ट चेंज हो जाएगा और वो यूपी के साइकिल वाले बाप-बेटों का मुँह भी बंद हो जाएगा। फिर उसी चरखे से काते गए सूत मेँ से एकाध धागा लेकर बाकी सिंथेटिक सूत मिलाकर उससे बनी साड़ियाँ देश की तमाम मातृशक्ति मेँ बँटवाने की घोषणा कर दी जाए। चरखे की हिफाजत भी हो जाएगी, खादी का प्रचार भी हो जाएगा और गांधीगिरी वाला मुद्दा भी हमारे पलड़े में आ जाएगा।“ स्वयं को पार्टी का थिंक टेंक समझने व बुद्धिजीवीनुमा गेट-अप वाले वरिष्ठ नेताजी ने कहा।
       चरखा कहीं प्याज़ की तरह ले न डूबे इसलिए कुछ सुझाव आए कि मेनोफेस्टो मेँ उसे वापस लाने की घोषणा हो; या एम.जी. रोड की तरह हर  मोहल्ले मेँ एक एक चरखा केंद्र खुलवा कर  सूत कताई का साप्ताहिक आयोजन हो। और यह भी कि आचार संहिता को ठोकर मारते हुए जगह जगह चरखे के कट आउट्स लगा दिए जाएँ!     
        चरखे पर गांधीगिरी जारी है।
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100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 (म.प्र.)
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