एक सपने की मौत
ओम वर्मा om.varma17@gmail.com
जब पहली बार उससे मेरी आँखे चार हुईं तो
मैं हतप्रभ रह गया। सोचता रह गया कि ये आँखें मैंने पहले कहाँ देखी हैं ! दिमाग पर
ज्यादा देर तक जोर नहीं डालना पड़ा। अभी कुछ दिन पूर्व ही मुंबई के जीजाबाई उद्यान
में स्थित चिड़ियाघर में अपनी छह वर्षीया भतीजी को घुमाने ले गया
था। वहाँ देखा था एक मृगशावक जिसकी आँखें मैं निर्निमेष देखता रह गया था ! मुझे
लगा था कि ऊपर वाले की वर्कशॉप में पूरे छह दिन यानी सोमवार से शनिवार तक बाकी
सारे जीव बनाए जाते होंगे और मृग सिर्फ संडे को। मगर उस मृगशावक को देखकर मेरा
संडे वाला भ्रम भी टूट गया था। उस शावक को संडे को बनाने के बाद ईश्वर की वर्कशॉप
के सारे मिस्त्री शायद हड़ताल पर चले गए थे और शावक की आँखे बनाना रह गई थीं। फिर
ईश्वर ने स्वयं अपने हाथों से दो तीन दिन का समय लिया और उस मृग शावक की आँखें
तैयार की। शायद वे आँखें वहाँ से निकलकर या उड़कर इसके चेहरे पर लग गई हैं...या
शायद इसने चुरा ली हैं।
घर पर मेनगेट से प्रवेश करते ही पहले नज़र गलियारे में लगे नल और बरतन
माँजने के स्थान पर पड़ती है। उस दिन शाम को ऑफिस से जैसे ही घर लौटा और बरतन माँजती उस ‘मृगनयनी’ से मेरी आँखें चार
हुईं कि मुझे हिप्नोटाइज़ होने में देर नहीं लगी। पत्नी ने द्वार खोला और मुझे उस
बारह- तेरह वर्षीया मृगलोचनी की आँखों के मोहपाश से मुक्त कराते हुए कहा,
“यह सपना है, आज से इसको रखा है
झाड़ू पोंछा और बरतन के लिए...!”
उसका पूरा चेहरा रक्ताभ था। ड्राइंग रूम में आने के बाद ‘सुनयना’ की आँखों व जंगली
फूल जैसे सौंदर्य के मोहपाश की मनःस्थिति से पति होने की अहंकारी मनःस्थिति में
लौटते हुए मैंने पत्नी से पूछा,
“तुमने इसको काम पर क्यों रखा ? इतनी छोटी लड़की क्या काम कर पाएगी ! और जरा उसका रंग-रूप देखो ! कल से
उसके साथ दिल्ली जैसा कुछ उल्टा-पुल्टा हो जाए तो हम कहाँ भागते फिरेंगे !”
“मैंने इसे नहीं इसकी माँ को रखा था,” पत्नी ने सरकारी किस्म का जवाब देकर मुझे संतुष्ट करने का प्रयास किया, “पर माँ ने काम और
पैसा तय करके हमारे यहाँ अपनी लड़की को रखवा दिया और खुद पीछे वाली ठाकुर भाभी के
यहाँ काम करने चली गई।“
तो यह बात है। मुझे इन काम वाली बाइयों पर कोफ्त होने लगी। काम ढेर सारा ले
लेती हैं और नहीं बनता तो बच्चों को उलझा लेती हैं।
अपनी बिटिया से मैंने स्कूल होमवर्क और पढ़ाई की जानकारी ली। मुझे यह सोचकर
आत्मसंतुष्टि हुई कि मैं पढ़ा-लिखा हूँ और परिवार का निर्वाहन करने में सक्षम हूँ...बच्चों को पढ़ा-लिखा कर इस
लायक तो बना ही सकता हूँ कि मेरे बच्चों को कहीं ‘छोटू’ या ‘बारीक़’ नहीं बनना पड़ेगा, और न ही कहीं बेटी
को बरतन साफ करना पड़ेंगे।
सपना की आँखें धीरे-धीरे मेरे दिल का कमरा ‘ऑक्युपाइ’ करने लगीं। एक दिन मुझसे रहा नहीं गया और उससे आखिर
पूछ ही बैठा,
“क्यों सपना, तू सिर्फ काम ही
करती है या स्कूल भी जाती है ?”
“स्कूल तो जाती थी अंकलजी...पर इस साल माँ ने तीसरी क्लास से पढ़ना छुड़ा
दिया।“
“क्यों ?” मैं चौंका।
“वो माँ से इत्ते घरों का काम नी संभलता था तो मेरे को और मेरी छोटी बेन
संगीता को दो-दो घर दिला दिए।“
यानी उसकी एक छोटी बहिन भी है। मेरी जानकारी में इजाफा हुआ। मैंने पूछा,
“छोटी बहिन कहाँ जाती है, और तुम कितने भाई बहिन हो ?”
“छोटी बहिन संगीता मोती बंगले में एक साब के घर रख छोड़ी है और तीन छोटी
बहनें और भी हैं। “मतलब....”
“हम कुल पाँच बहिनें हैं और मैं सबमेँ बड़ी
हूँ।“
“तुम्हारे पापा क्या करते हैं ?”
“मेरा बाप बेलदारी का काम करता है।”
बेलदारी का मतलब उसने बताया कि छत भरने की
यानी आर.सी.सी. भरने की मजदूरी को निमाड़ी लोग बेलदारी कहते हैं। निमाड़ से काम के
वास्ते यहाँ आए थे वे लोग। बाप कभी कभार ठेकेदार के पास छत भरने की मजदूरी करता है
और माँ कई घरों में बरतन – पोंछे का काम कर लेती है। लेकिन मेरी यह समझ में नहीं
आया कि जब दोनो ‘मनक’ कमा रहे
हैं तो फिर बच्चों से काम क्यों करवाते हैं। मेरे पूछने पर सपना ने यह भी बताया कि
शहर में शिवानी नर्सिंग होम और इंकम टैक्स ऑफिस के बीच की जगह में झाबुआ और निमाड़
से आए कुछ लोग झुग्गियाँ बनाकर रहते हैं वहीं इनका भी ‘घर’ है। सरकारी स्कूल में वो पढ़ती थी जहाँ फीस भी नहीं लगती थी और खाना भी
मिलता था। एक दिन उस मृगनयनी से मैं आखिर पूछ ही बैठा-
“सपना तू काम छोड़ दे और स्कूल जाया कर !
नहीं पढ़ेगी तो जिंदगी भर बरतन ही माँजेगी और पढ़ लिख लेगी तो अच्छे घर जाएगी।“
इस पर सपना ने जो जवाब दिया वह मेरा कलेजा
हिला देने को काफी था-
“अंकलजी मैं स्कूल जाना तो चाहती हूँ, पर स्कूल जाऊँगी तो ‘घर’
(जहाँ काम करती है) छूट
जाएँगे...और घर छूटने पर बाप रोज माँ को और हम सब बहिनों को ज्यादा मारेगा। बाप को
तो रोज दारू ‘चईये’... चाहे हमको खाने
को मिले या न मिले...!”
आगे की सारी कहानी मेरी समझ में आ गई थी।
माँ और दो बेटियों को मिलकर रोजाना कमाकर घर भी चलाना है और मार भी खाते रहना है।
लेकिन मैं एक होनहार बचपन को काम के बोझ में
लुप्त होते नहीं देखना चाहता था। मैंने पूछा-
“तेरे पास स्कूल की कॉपी किताब या जो भी
सामान हो, लेकर कल से रोज मेरे पास पढ़ने बैठ जाया कर। तेरा काम भी हो जाएगा और मैं
रोज पढ़ा भी दिया करूँगा।“ कम से कम पाँचवी क्लास तक तो वो पढ़ ही ले, ऐसी मेरी दिली इच्छा थी।
“ठीक है, ले आऊँगी अंकलजी
!”
अगले दिन उसके काम के बाद मैंने उसका ज्ञान
टटोला। उसे सौ तक गिनती और पाँच तक पहाड़े याद थे। इतना तो काफी है आगे सीखने के
लिए।
उसने रोजाना मुझसे पढ़ना शुरु किया। एक दो
दिन तक पत्नी को मेरी बात एक सनक सी लगी। लेकिन फिर वह भी अक्षरदान की पुण्य सलिला
में अपना अर्ध्य देने लगी। आठ दस दिन तक यह सिलसिला चला तो मुझे लगा कि पैसेंजर
गाड़ी किसी दिन एक्सप्रेस में बदल जाएगी । लेकिन तभी अचानक सिगनल लाल हो गया।
“वो अंकलजी...बात ये है कि मैं आज से अब नी
पढ़ूँगी...।“
“क्यों...!” मैं चौंका !
“वो पढ़ने में मेरा जो टेम जाता है उससे मेरे
दो घर का काम छूट जाता है और माँ नाराज़ होती है...बोलती है कि काम मत छोड़। वो मोती
बंगले वाले साब के यहाँ काम पे नी पोंचेगी तो वो दूसरी बाई रख लेंगे और तू पैसे नी
लाएगी तो बाप मारेगा।”
मैंने उसकी माँ से बात करी। उसने हमें
समझाया कि लड़की का काम पर जाना जरूरी है, नहीं पढ़ेगी तो
चलेगा पर पैसे नहीं मिले और इसके बाप को दारू नी मिली तो वो हम माँ-बेटी को और
ज्यादा माराकूटी करेगा।
“तुम लोग पुलिस में रिपोर्ट क्यों नहीं कर
देते...”, मैंने किसी ‘डेंटेड-पैंटेड’
सोशलाइट की तरह उसे समझाया।
“पुलिस आदमी को माराकूटी करके बंद कर देगी...फिर छुड़ाने तो हमको ही जाना
पड़ेगा। हमारा घर-बार और पेट तो हमको ही भरना है...।“
“तुम सपना को रात को भेज दिया करो...।“
“तुम सपना को रात को भेज दिया करो...।”
“रात को भेजेंगे तो वो और लड़ेगा झगड़ेगा।”
उसने यह भी बताया कि वो टी टी आपरेशन भी नी करवाने देता।
उसको
लड़का चइए...वो अब फिर से
माँ भी बनने वाली है।
मेरी दिलो-जान से इच्छा थी कि सपना उस नर्क
से मुक्ति पा जाए और थोड़ा बहुत पढ़ लिख सके। मैं स्वयं समय निकालकर उसे पढ़ाना चाहता
था, मगर समय सपना के पास नहीं था। बाल श्रम करवाने के पाप से पूरे समाज की
तरह मैं भी नहीं बच सका। मेरी सपना के प्रति सहानुभूति दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही
थी। मुझे उसमें व अपनी बेटी में कोई फर्क़ ही नज़र नहीं आता था। मैं जान बूझकर
बर्तनों को कुछ इस तरह से उपयोग में लाता कि एक दो जूठे बर्तन कम निकलते। ऐसा करके
मुझे यह एहसास बना रहता कि मैं उसका श्रम व समय बचा रहा हूँ...और इससे शायद उसे
पढ़ने के लिए प्रेरणा मिले, ऊर्जा बची रहे।
लेकिन मैं भी हवा को गले लगाए था और पारे की
बूँद को पकड़ना चाहता था। सपना को आगे नहीं पढ़ना था… सपना को
मुझसे नहीं पढ़ना था...सपना को मेरी बेटी की तरह माता-पिता का प्यार नहीं पाना था
सो नहीं मिला। सपना को एक कमाऊ पूत की तरह घर चलाने में सहयोग देना था और बाप की
दारू का इंतजाम करना था और बदले में रात को माँ को पिटते भी देखना था, खुद भी मार खानी थी , बहिनों को पिटते देखना
था...सो वह कर रही है।
सपना की माँ ने एक और ‘समझदारी’ का काम किया। उसकी बेटी की पढ़ाई और ज़िंदगी
को लेकर मुझे बार बार झुँझलाते, दुबलाते और पूछताछ करते देख
आखिर उससे हमारा घर ही छुड़वा दिया। अब वह किसी और घर में बर्तन पोंछा कर रही होगी
जहाँ कम से कम पढ़ने लिखने को लेकर कोई उसके पीछे नहीं पड़ता होगा।
एक मासूम बालमन की कम से कम मेरे सामने तो
हत्या नहीं हो रही है...मैं यही सोचकर खुद को संतुष्ट करने का प्रयास कर रहा
हूँ।
***
ओम वर्मा, 100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001
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