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भारत एक त्योहारों का देश है। यकीन न हो तो आप कोई भी कैलेंडर उठाकर देख लें। हर दिन किसी न किसी धर्म, जाति, संप्रदाय, खाप या कबीले का त्योहार या उसके किसी 'महापुरुष' की जन्म या निर्वाण तिथि मिलेगी। उस दिन भी इनमें से कोई बड़ा त्योहार ही था।
हर त्योहार की तरह उस दिन उमंग-उल्लास देखते ही बनता था। सुबह के बाद थोड़ा समय सुख-चैन से बीता ही था कि दोपहर तक उमंग और उल्लास उन्माद में बदलने लगा। आठ-दस डीजे साउंड एवं 'उभरते' नेताओं के आदमकद पोस्टरों से सजे-सँवरे वाहन शहर में घूमने लगे।
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देखते ही देखते शहर का कोना-कोना कानफोड़ू संगीत के शोर-शराबे में डूब गया। बीमार अपने-अपने इष्ट देवता का स्मरण करने लगे। कुछ लोगों की नजरों में, घर में बोझ समझे जाने वाले वरिष्ठ नागरिक अपनी बेकाबू धड़कनों को थामने की नाकामयाब कोशिशें करने लगे।
आखिर हिम्मत करके एक कबीरनुमा सज्जन ने चौराहे पर जाकर एक अति उत्साही कार्यकर्ता को समझाने यानी भैंस के आगे बीन बजाने का प्रयास करते हुए कहा, 'भाई! थोड़ा कम आवाज में बजाओ। इतनी तेज आवाज से बच्चे, बूढ़े और बीमार सभी को तकलीफ होती है।'
इस पर धर्मप्रेमी सज्जन ने जवाब दिया, 'क्यों, हमको तो मनाकर रिये हो, पर जब 'उनके' त्योहार पर वे जोर से बजाते हैं तब उनको क्यों नहीं रोकते! जाहिर है कि कबीर निरुत्तर हो गए थे।
कुछ दिन बाद दूसरे संप्रदाय का त्योहार आया। फिर वही कानफोड़ू डीजे साउंड...शोर-शराबा, नारों से गूँजता और झंडियों से पटा शहर...!" बदला था तो सिर्फ लोगों के दुपट्टों, टोपियों और झंडियों का रंग। इस कबीर की फिर वही पीड़ा थी। इसने फिर वही हिमाकत की। और जाहिर है कि फिर वही उत्तर पाया, 'क्यों हमको तो मना कर रिये हो पर...।'
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कबीर का यह वंशज तब से अब तक दोनों समुदायों के बीच अपने प्रश्नों का उत्तर खोज रहा है। तय नहीं हो पा रहा है कि यह घातक ध्वनि प्रदूषण आखिर किस धर्म, मजहब या समुदाय के अनुयायी फैला रहे हैं? बच्चों, बुजुर्गों और बीमारों की शांति पर डाका आखिर कौन डाल रहे हैं? ये इसलिए चिल्ला रहे हैं कि कल वो चिल्ला रहे थे...! कल वो इसलिए चिल्लाएँगे कि आज इन्होंने नाक में दम कर रखा है।
ऐसी कई श्रृंखलाएँ अनवरत जारी हैं। आज ये संसद इसलिए ठप कर रहे हैं कि कल उन्होंने की थी। या अगली बार सत्ता में ये आ गए तो कल वे करेंगे। सीधी सी बात है कि मुर्गी क्यों है? क्योंकि अंडा है। वही अंडा जो किसी मुर्गी ने ही दिया है। पहले किसे खत्म किया जाए ताकि दूसरा भी न रहे, यह चिंतन आज और भी प्रासंगिक हो गया है।
मुर्गी पक्ष वाले और अंडा पक्ष वाले दोनों यह कब समझेंगे कि उदरस्थ तो दोनों को ही किया जा रहा है। और पहले आप-पहले आप में हमारी 'शांति एक्सप्रेस' छूटी जा रही है। ***
ओम वर्मा
नईदुनिया, इंदौर ने अपने कुछ गिने चुने उत्कृष्ट व्यंग्य अपने वेब- पोर्टल 'वेबदुनिया' पर अपलोड कर रखे हैं। उनमें जनवरी'2011 में प्रकाशित मेरा यह प्रिय व्यंग्य भी है।
भारत एक त्योहारों का देश है। यकीन न हो तो आप कोई भी कैलेंडर उठाकर देख लें। हर दिन किसी न किसी धर्म, जाति, संप्रदाय, खाप या कबीले का त्योहार या उसके किसी 'महापुरुष' की जन्म या निर्वाण तिथि मिलेगी। उस दिन भी इनमें से कोई बड़ा त्योहार ही था।
हर त्योहार की तरह उस दिन उमंग-उल्लास देखते ही बनता था। सुबह के बाद थोड़ा समय सुख-चैन से बीता ही था कि दोपहर तक उमंग और उल्लास उन्माद में बदलने लगा। आठ-दस डीजे साउंड एवं 'उभरते' नेताओं के आदमकद पोस्टरों से सजे-सँवरे वाहन शहर में घूमने लगे।
आखिर हिम्मत करके एक कबीरनुमा सज्जन ने चौराहे पर जाकर एक अति उत्साही कार्यकर्ता को समझाने यानी भैंस के आगे बीन बजाने का प्रयास करते हुए कहा, 'भाई! थोड़ा कम आवाज में बजाओ। इतनी तेज आवाज से बच्चे, बूढ़े और बीमार सभी को तकलीफ होती है।'
इस पर धर्मप्रेमी सज्जन ने जवाब दिया, 'क्यों, हमको तो मनाकर रिये हो, पर जब 'उनके' त्योहार पर वे जोर से बजाते हैं तब उनको क्यों नहीं रोकते! जाहिर है कि कबीर निरुत्तर हो गए थे।
कुछ दिन बाद दूसरे संप्रदाय का त्योहार आया। फिर वही कानफोड़ू डीजे साउंड...शोर-शराबा, नारों से गूँजता और झंडियों से पटा शहर...!" बदला था तो सिर्फ लोगों के दुपट्टों, टोपियों और झंडियों का रंग। इस कबीर की फिर वही पीड़ा थी। इसने फिर वही हिमाकत की। और जाहिर है कि फिर वही उत्तर पाया, 'क्यों हमको तो मना कर रिये हो पर...।'
ऐसी कई श्रृंखलाएँ अनवरत जारी हैं। आज ये संसद इसलिए ठप कर रहे हैं कि कल उन्होंने की थी। या अगली बार सत्ता में ये आ गए तो कल वे करेंगे। सीधी सी बात है कि मुर्गी क्यों है? क्योंकि अंडा है। वही अंडा जो किसी मुर्गी ने ही दिया है। पहले किसे खत्म किया जाए ताकि दूसरा भी न रहे, यह चिंतन आज और भी प्रासंगिक हो गया है।
मुर्गी पक्ष वाले और अंडा पक्ष वाले दोनों यह कब समझेंगे कि उदरस्थ तो दोनों को ही किया जा रहा है। और पहले आप-पहले आप में हमारी 'शांति एक्सप्रेस' छूटी जा रही है। ***
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