Saturday 14 December 2013



विचार

        तीन भारत रत्ननरेंद्र मोदी और
                साहित्यकार  
                                                         
                        ओम वर्मा
                                           om.varma17@gmail.com  

नके साम्राज्य मेँ सूर्य कभी अस्त नहीं होता। सुगम संगीत की इस साम्राज्ञी के लिए कहे गए इस कथन से बेहतर कोई दूसरी उक्ति हो ही नहीं सकती। वे कई दशकों से फिल्म संगीत मेँ, हर हिंदुस्तानी के दिल मेँ और माँ सरस्वती के आँचल तले बसी हुई हैं। कृतज्ञ राष्ट्र ने इसके लिए उन्हें भारत-रत्न जैसे सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित कर एक तरह से इसी भावना या विचार का अनुमोदन ही तो किया है।
     लता मंगेशकर वह शख्सियत हैं जो धर्म, जातीयता और राजनीतिक विचारधारा से कहीं ऊपर हैं। राज्य सभा के कांग्रेसी सांसद सचिन तेंडुलकर को वे अपने पुत्रवत और भाजपा के पितृ-पुरुष आडवाणी जी को वे आदरवश दादा बोलती हैं। यानी उनके प्रशंसक इस दल से उस दल तक या कहें कि चतुर्दिक फैले हुए हैं। उनकी इस सर्वस्वीकृत छवि के आगे राजनीतिक छवि या किसी दल विशेष के व्यक्ति की छवि की तुलना की जाए तो वामन और विराट वाली स्थिति बनती है। तटस्थता के प्रति इसी प्रतिबद्धता मेँ अपनी आस्था व्यक्त करने के लिए कई बार देश के तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपतियों ने मतदान का अधिकार त्यागा भी  है।    
     इस परिप्रेक्ष्य में यह प्रश्न विचारणीय है कि क्या लता जी को अपनी यह इच्छा कि
नरेंद्र मोदी को देश का प्रधानमंत्री बनना चाहिए सार्वजनिक मंच पर व्यक्त करनी चाहिए? इस देश की नागरिक होने के नाते उन्हें अपनी पसंद के उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करने का पूरा अधिकार है और सार्वजनिक मंच पर अपनी राय व्यक्त करने से भी इस देश का कानून उन्हें रोक नहीं सकता। लेकिन कानूनी अधिकार और नैतिकता को एक पलड़े पर नहीं तोला जा सकता। राहुल गांधी और उनके दल  या यहाँ कहें कि यूपीए परिवार में भी उनके प्रशंसक लाखों में ही होंगे। क्या वे इस सरस्वतीकन्या के आशीर्वाद के पात्र नहीं हैं? ईश्वर की स्तुति या आराधना कर कोई भक्त आशीर्वाद माँगता है तो वह प्रतिद्वंद्वी के लिए आराधना व कृपा के द्वार बंद नहीं कर रहा होता है। मगर भारतीय जनमानस में देवीय आसान ग्रहण कर चुकी स्वर साम्राज्ञी जब नरेंद्र मोदी को पीएम के रूप में देखने की इच्छा व्यक्त करती हैं तो उसका निहितार्थ नरेंद्र मोदी के किसी भी प्रतिद्वंद्वी के लिए पराजय की कामना भी तो है। यानी प्रतिद्वंद्वी के लिए उनके पास आशीर्वाद और शुभकामनाओं का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। लता जी ने मोदी को लेकर जो मनोकामना व्यक्त की इस बात को लेकर उनके पक्ष या विरोध मेँ तर्क दिए जा सकते हैं पर उनसे भारत रत्न वापस लिए जाने की माँग निर्विवाद रूप से निहायत ही घटियापन है। यही दुविधा एक अन्य भारत रत्न अमर्त्य सेन को लेकर सामने आती है। मोदी के नाम पर उन्होंने अपने विचार कुछ ऐसे व्यक्त किए मानो मोदी राजनीति के क्षेत्र मेँ ही नहीं बल्कि देश के लिए भी अस्पृश्य और अवांछित व्यक्ति हों। क्या उनके ये विचार उन्हें दिए गए भारत रत्न अलंकरण का रिटर्न गिफ्ट  नहीं माने जाने चाहिए? अब यदि कल मोदी पीएम बन जाएँ तो क्या वे विरोध स्वरूप भारत रत्न अलंकरण वापस लौटाएंगे?    
     यहाँ हाल ही मेँ भारत रत्न से नवाजे गए सचिन तेंडुलकर का उदाहरण सामने आता है। वे राज्य सभा में यूपीए सरकार के मनोनीत सांसद हैं। उनका क्रिकेट प्रेमियों के बीच वही स्थान है जो संगीत प्रेमियों के बीच लता जी का। शासक दल की ओर से उनसे कांग्रेस का चुनाव प्रचार करने का आग्रह किया गया तो उन्होंने विनम्रतापूर्वक इंकार करके अपना कद और भी बढ़ा लिया। सचिन पूरे देश का वह रत्न है जिसकी बिदाई की तुलना अमेरिकी अखबार द्वारा गांधीजी की बिदाई से की गई, ब्रिटिश संसद द्वारा जिसे बधाई दी गई और जिसके सारे रेकॉर्ड्स स्वयं उसकी महानता की कहानी कह रहे हैं।  ऐसे सचिन अगर किसी दल विशेष का प्रचार करते तो क्या वे अपने आभा मण्डल को सीमित नहीं कर रहे होते? क्या तब उनके लिए वानखेड़े मेँ लग रही सचिन सचिन की एक सुर मेँ लगाई जा रही पुकार बीच मेँ किसी भी पल मोदी मोदी मेँ नहीं बदल जाती!
     कुछ ऐसा ही चमत्कार दो साहित्यकारों ने कर दिखाया। कन्नड़ साहित्यकार अनंतमूर्ति ने मोदी को लेकर जो बयानबाजी की वह किसी भी साहित्यकार के लिए सर्वथा अशोभनीय है। जिसे जनता ने तीन बार चुना हो और जब गुजरात दंगों की सर्वोच्च अदालत के मार्गदर्शन मेँ हुई जाँचों मेँ भी इस बात के कोई सबूत नहीं पाए गए कि दंगों के लिए मोदी स्वयं किसी भी प्रकार से जिम्मेदार थे, उसके लिए अन्य राज्य के साहित्यकार द्वारा विरोध करना क्या गुजरात की जनता का अपमान नहीं है? गुजरात के दंगों मेँ मोदी द्वारा समय पर नियंत्रण न कर पाने और ’84 के सिख नरसँहार मेँ तत्कालीन दिल्ली सरकार द्वारा न कर पाने को अलग अलग चश्मे से देखने वाले शंका के घेरे मेँ आने से नहीं बच सकते। इससे बेहतर होता कि अनंतमूर्ति नरेंद्र मोदी के विचारों का तार्किक भाषणों या लेखों के माध्यम से जवाब देते।
     ऐसी ही एक अप्रिय व फूहड़ स्थिति मेरे शहर (देवास) मेँ अभी कुछ माह पूर्व एक पुस्तक विमोचन के कार्यक्रम मेँ बनी। कार्यक्रम मेँ पधारे एक कवि की कविता का विषय उनमें व नरेंद्र मोदी के नाम मेँ समानता को लेकर था। लोकतांत्रिक पद्धति से निर्वाचित किसी राजनीतिक शख्सियत को कविता के बहाने भी गालियाँ दी जा सकती हैं यह पहली बार देखा था। इस दौरान कुछ श्रोताओं को असहज होते व बाद मेँ अधिकांश को तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए भी देखा गया। कवि को अपने नाम नरेंद्र (विदिशा के नरेंद्र जैन) होने पर तो अफसोस था पर उन्हें शायद यह पता नहीं है कि नरेंद्र नाम आचार्य नरेंद्र देव व स्वामी विवेकानंद का भी था।
     अब समय आ गया है कि राजनीति के धरातल से ऊपर स्थापित किए जा चुके सेलेब्रिटीज़ तय करें कि वे राष्ट्र की धरोहर हैं, न कि किसी राजनीतिक दल की। उनकी प्रतिबद्धता शोषित, आमजन व अंततः वतन के प्रति ही होनी चाहिए, किसी दल या राजनीतिक व्यक्तित्व के लिए नहीं। इसी तरह साहित्यकारों मेँ सियासती छद्म का थाह लेने की सूक्ष्म दृष्टि होनी चाहिए। उन्हें अपनी लेखनी को वैमनस्य फैलाने का माध्यम हरगिज़ नहीं बनने देना चाहिए।    
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100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 (म.प्र.)          

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