घुसपैठ की जंग
ओम वर्मा
घुसपैठ यानी किसी के कार्यक्षेत्र, अधिकार क्षेत्र या परिसर में
अनधिकृत दखल या प्रवेश। यह सार्वभौमिक समस्या इन दिनों जीवन के हर क्षेत्र में व्याप्त
है।
मंदिर से दर्शन कर लौट रही एक बुजुर्ग महिला को
रास्ते में रोजाना भिक्षावृत्ति के लिए घर आने वाले पंडित जी मिले। माँजी ने उनका अभिवादन
किया तो पंडित जी ने दीन भाव से कहा कि माताजी आज आप घर पर नहीं थीं तो इस गरीब
ब्राह्मण को भिक्षा नहीं मिल सकी। बहूरानी ने कहा कि “आटा चक्की पर है।“
“अच्छा! बहू ने ऐसा कहा? आइए मेरे साथ।“
घर पहुँचते ही सासूमाँ ने भी पंडित जी को वही
जवाब दिया जो पहले बहू ने दिया था। पंडित जी ने जो कि परशुराम के वंशज थे, स्वयं को जब्त करते हुए
कहा, “यही
बात तो आपकी बहू भी कह चुकी थी। क्या यही कहने के लिए आप मुझे वापस लेकर आईं थी?”
सासूमाँ में ने अपना ललिता पवारी संस्करण जारी
रखते हुए कहा, “इस घर से भिक्षा देना या न देना यह मैं तय करूँगी। घर की
मालकिन मैं हूँ। वह कौन होती है मेरे अधिकार क्षेत्र में घुसपैठ करने वाली?” जाहिर है कि पंडित जी घुसपैठ के मुद्दे पर निरुत्तर होकर एक
बार फिर खाली हाथ लौट गए।
आज घुसपैठ कहाँ नही है? करगिल की घुसपैठ तो
इतिहास बन चुकी है क्योंकि वहाँ से खदेड़े जाने के बावजूद भी घुसपैठियों के सरदार
हार को गले में डाला गया हार समझकर हर साल जश्न मनाते रहते हैं। उधर पूर्वोत्तर के
राज्यों में वर्षों से चल रही घुसपैठ शनैः शनैः वोट बैंक में तब्दील हो जाती है और
यह मुद्दा भी राम मंदिर, काला धन व धारा 370 जैसे सिर्फ चुनावों के समय उठाए जाने वाले
अन्य मुद्दे की तरह फिर ठंडे बस्ते में समा जाता है। बड़े बड़े उद्योगों में
प्रयोगशाला विभाग व उत्पादन विभाग वाले एक दूसरे के अधिकार क्षेत्र में या तो
घुसपैठ करते देखे गए हैं या एक दूसरे पर घुसपैठ करने के आरोप लगाते रहते हैं। कुछ
घरों में नौकरीपेशा ससुर रिटायर होते ही बहू की रसोई में घुसपैठ करने लग जाते हैं
और विवाद का कारण बन जाते हैं। साहित्य के क्षेत्र में जबर्दस्त घुसपैठ व्याप्त
है। किसी बड़े अखबार समूह का मालिक जब अपने साप्ताहिक परिशिष्टों में अपनी लंबी
लंबी कविताएँ छापने लगे तो सारे समीक्षक व समालोचक इस साहित्यिक घुसपैठ पर साइलेंट
मोड में चले जाते हैं। किसी अच्छे खासे राजनेता के राजधानी के तख्ते-ताऊस पर आसीन
होते ही उसको आज का सर्वश्रेष्ठ कवि या चित्रकार स्थापित करने के प्रयास शुरू हो
जाते हैं। प्रकाशक और कैसेट-सीडी कंपनियाँ उसके दफ्तर के चक्कर काटने लग जाते हैं।
नामवरों के कान खड़े होने से पहले राजनीति साहित्य व कला के क्षेत्र में घुसपैठ कर
चुकी होती है। एक वरिष्ठ कथाकार साहित्यिक कार्यक्रमों में कभी अपना ऊटपटाँग लिखा
हुआ ‘कविता’ के नाम पर सुनाकर व कभी
सेक्स पर प्रवचन देकर मुक्तिबोध और वात्स्यायन के प्राविंस में घुसपैठ करने लग
जाते हैं।
अगर केंद्र व राज्य में अलग अलग दलों की
सरकारें हों तो या तो राज्यपाल राज्य सरकार के कामों में घुसपैठ शुरू कर देते हैं
या न भी करें तो भी राज्य सरकार को हमेशा यही लगता रहता है कि राज्यपाल मंत्रिमंडल
के अधिकारों में घुसपैठ कर रहे हैं। यही हाल अब दिल्ली के हैं। एक तरफ निर्वाचित
सरकार है जिसका मुखिया आंदोलन व धरनों की उपज है। दूसरी तरफ उपराज्यपाल हैं जिनके
पास संबंधित राज्य के पास पूर्ण राज्य का दर्जा न होने से कुछ विशेष या अतिरिक्त
अधिकार भी हैं। यहाँ मंत्रिमंडल कुछ नौकरशाहों की नियुक्ति को लेकर उपराज्यपाल पर
घुसपैठ का आरोप लगा रहा है। और जनता जो घुसपैठ तो छोड़िए, अभी तक अपने अधिकारों का
उपयोग करना भी नहीं सीखी है चुपचाप तमाशा देखने व सहने को अभिशप्त है! घुसपैठ की
यह जंग आखिर क्या गुल खिलाएगी यह तो बस अगले चुनाव में ही देख सकेंगे हम लोग!
संपर्क
: 100, रामनगर एक्स्टेंशन, देवास 455001 (म.प्र॰)
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