वैचारिक लेख (5 जून, विश्व पर्यावरण दिवस पर}
पर्यावरण
बचाना है तो कागज़ बचाओ
ओम वर्मा
आठवीं कक्षा का मेरा एक सहपाठी ...! रफ कॉपी
में पहले वह पेंसिल से लिखता, पूरी भर जाने पर एक बार फिर पेन से लिखता। यानी एक कॉपी का दो
बार उपयोग। साथी विद्यार्थियों में उसकी छबि 'कंजूस-मक्खीचूस' के रूप में
स्थापित हो चुकी थी। दूसरी ओर अन्य बच्चे कॉपियों का आधा-अधूरा उपयोग तो करते ही थे, जब चाहे पन्ने
फाड़कर कभी कोलंबस बन नाव चलाते,
कभी राइट बंधु बन हवाई जहाज उड़ाते तो
कभी अल्फ्रेड नोबेल बन पन्नों से हवा में डायनामाइट लगाने का मज़ा लेते। आज जबकि वसुंधरा पर
हरीतिमा सिकुड़ती जा रही है,
पर्यावरण दिनो दिन प्रदूषित होता जा
रहा है और मौसम-चक्र साल दर साल कभी ग्लोबल वार्मिंग तो कभी ग्लोबल कूलिंग के
ख़तरे उत्पन्न कर रहा है और कभी अतिवृष्टि तो कभी अनावृष्टि! ऐसे में निश्चित ही
कागज़ का सदुपयोग या न्यूनतम उपयोग करना आज कंजूसी नहीं बल्कि पर्यावरण संरक्षण की
दिशा में एक बहुत ही सार्थक पहल होगी।
पहले वार्षिक परीक्षा के बाद फेयर कॉपियों के
शेष बचे कोरे पन्नों को एकत्र कर उनकी एक जिल्द वाली रफ कॉपी बनवा ली जाती थी। इन सभी उपायों को
आज फिर से अपनाने की जरूरत है। आज के मॉडर्न स्कूलों में मोटे-मोटे
कव्हर वाली कॉपियों पर फिर अलग मोटे-मोटे कव्हर चढ़ाए जाते हैं। एक एक विषय की
दो-दो, तीन-तीन कॉपियाँ बनवाई जाती हैं। इससे एक ओर बस्ते
का बोझ तो बढ़ता ही है, बच्चों में कागज़ बचाने संबंधी संस्कार भी बीजारोपित नहीं हो पाते। गाँवों में खाकरे के
पत्तों से बने पत्तल-दोनों का स्थान कागज़ी पत्तल दोनों ने ले लिया है। आज इस पलायन को रोका
जाना बेहद ज़रूरी है।
कागज़ का दुरुपयोग करने में कुछ सरकारी
कार्यालय या कुछ सरकारी लोग कुछ अधिक ही निर्मम होते हैं। एक -एक दस्तावेज़
की अनावश्यक रूप से कई कई प्रतियाँ, चार लाइन की जानकारी के लिए भी
फुलस्केप कागज़ का उपयोग, एक ही परिपत्र की ढेर सारी प्रतियाँ, किसी किसी कार्यालय में अँगरेजी के
साथ साथ हिंदी या क्षेत्रीय भाषा (या तीनों में ) सारी प्रतियाँ,और बाद में त्रुटि
निवारण यानी अमेंडमेंट के लिए फिर उतनी ही प्रतियाँ...! कागज़ की इन फिजूलखार्चियाँ से बचा जा सकता है। एक उदहारण देखिए
जिसे जनरलाइज़ करके समझा जा सकता है। कुछ साल पहले बीएसएनएल ने नई बिलिंग पद्धति लागू की है। जहाँ बिल पहले एक
पृष्ठ का होता था वहीँ अब तीन पृष्ठ का हो गया है। बिल की रसीद का
आकार भी तीन गुना कर दिया है। यानी कागज़ पर तीन गुना खर्च! क्या
पहले के बिलों में इतनी परेशानी थी कि उसके निवारण के लिए कागज़ों का खर्च तीन
गुना बढ़ा दिया जाए? इसके फ़ॉर्मेट में थोड़ा सा बदलाव कर अंतर्देशीय पत्र कार्ड पर
मुद्रित कर इसे एक पन्ने तक सीमित किया जा सकता था। इससे डाक व्यय और
कागज़ दोनों की बचत होती। इसी तरह किसी भी
चुनाव में कागज़ी मतपत्रों का उपयोग
यदि पूरी तरह से बंद कर सिर्फ इवीएम यानी इलेक्ट्रानिक मशीन का ही
उपयोग किया जाए तो कई टन कागज़ बचाया जा सकता है। कागज़ी मुद्रा पर
ऑस्ट्रेलिया की तरह प्लास्टिक क़ोटिंग या वार्निश लेपन कर मुद्रा का जीवनकाल बढाकर
बहुत सारा कागज़ बचाया जा सकता है। इसी तरह खेरची व बड़े सभी लेनदेनों
में डेबिट कार्ड के प्रयोग को आवश्यक व लोकप्रिय बनाकर कागज़ी मुद्रा के प्रयोग को
मिनिमाइज़ किया जा सकता है । अब समय आ गया है कि ई-मेल सुविधा का
अधिक से अधिक उपयोग किया जाए।
'सॉफ्ट-कॉपी' से किया गया हर लेन देन या पत्राचार कागज़ बचाएगा।
कागज़ के उपयोग के बाद जलने या फेंकने से बेहतर है कि उसे एकत्र कर कागज़
उद्योगों को पुनर्चक्रीकरण यानी रिसायकलिंग के लिए उपलब्ध करवाया जाए। प्रारंभ में यह
प्रक्रिया थोड़ी महँगी लग सकती है मगर जिस तरह दुनिया में कुछ चीजें लाभ हानि के
गणित से ऊपर होती है, उसी तरह पर्यावरण पर किया गया खर्च भी धरती माँ की सेवा में किया
गया दीर्घकालीन निवेश है। मत भूलिए कि जब भी हम एक टन
पुनर्चक्रीकृत कागज़ उपयोग में लाते हैं तब हम 17 पेड़, 2103 ली. तेल, 4077 कि.वा. ऊर्जा, 31587 ली. पानी, और 266 कि. ग्रा. हवा को प्रदूषित होने से तथा भूमि का 2.33
घनमीटर हिस्सा 'लैण्ड फिल' बनने से यानी बंजर बनने से बचाते हैं। धरती को अगर माँ माना है तो माँ की तरह उसकी रक्षा
भी करनी होगी। ***
संपर्क :100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 (म.प्र.)
मेल आईडी om.varma17@gmail.com *************************************************************************************
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