Monday, 25 May 2015

               मोदी का एक साल
                     ओम वर्मा
बेशक नमो सरकार का एक साल अनेक उपलब्द्धियों से भरा हुआ है जिसकी प्रस्तुति व मार्केटिंग वे शानदार तरीके से कर भी रहे हैं। अधिकांश तथ्य और आँकड़े भी उनकी बात का समर्थन करते नजर आते हैं। लेकिन जैसे बैंड बाजे के शोर में दुल्हन की सिसकियाँ दबी रह जाती हैं कुछ वैसे ही ‘कामयाबी’ के इस जश्न में कुछ प्रश्न मुँह बाए खड़े हैं और जवाब भी माँग रहे हैं। जैसे विदेशी दौरों में पीएम देवानंद की तरह ‘नारसिसिज़्मके शिकार होकर हर फ्रेम में खुद की तस्वीर देखते नजर आते हैं। दौरे विदेश के हैं पर विदेशमंत्री साथ नहीं हैंउधर वे फ्रांस से लड़ाकू जहाजों का सौदा कर रहे हैं मगर रक्षामंत्री साथ नहीं हैं। चुनाव से पहले व इस पूरे साल में पार्टी ने बुजुर्गों को जिस तरह से नेपथ्य में खड़ा कर दिया है उसका क्या जवाब हैबेंगुलुरू की मीटिंग में वक्ताओं की लिस्ट से आडवाणी जी का नाम हटाकर मार्गदर्शक से सिर्फ दर्शक बना देना क्या दर्शाता हैसतहत्तर वर्षीय जसवंतसिंह की कोई खोज न खबर! पिछली सरकार की 'नाकामियों' का विदेश में रोना रोकर व अपने भारतीय होने पर शर्मिंदगी की बात भले ही किसी भी परिप्रेक्ष्य में कही गई हो, अपनी किरकिरी ही करवाई है। आत्महत्या करते किसानों के देश का पीएम दूसरे देश को लाखों डालर की सहायता की बात करे तो अम्मा चली भुनाने वाली कहावत याद करने के अलावा हम क्या कर सकते हैं?
  इधर मोदी जी ‘सबके विकास’ की बात करते हैं और उधर कभी उनका पार्टी अध्यक्ष चुनाव में ‘बदला लेने’ की बात कहता हैकोई उनको वोट न देने वालों को पाकिस्तान भेजने की ‘मधुर’ धौंस देता है। साथियों का एक समुदाय विशेष के प्रति ‘प्रेम’ कभी कभी इतना ज्यादा ज़ोर मारने लगता है कि कोई उनसे सांख्य बल में आगे रहने के लिए चार तो कोई दस बच्चे पैदा करने का फरमान जारी कर देता है। और इस नेहले पर दहला मारते हुए कोई उस समुदाय का मतदान का अधिकार छीन लेने की वकालात ही कर बैठता है। क्या नमो का यहाँ खुद चुप बैठे रहना भर ‘सेक्यूलर’ कहलाने के लिए पर्याप्त हैयही हाल मनमोहनसिंह का था जब वे कनिमोझीराजा व कलमाड़ी के कामों के लिए नैतिक रूप से जिम्मेदार होते हुए भी खुद को ईमानदार व पाक साफ बताते आ रहे हैं। यानी इस मुद्दे पर मनमोहनसिंह व नमो दोनों एक जैसे हैं। सच तो यह है कि इन बद्जुबानों ने जो वैचारिक प्रदूषण फैलाया है उसके आगे सारी उपलब्द्धियाँ बोनी नजर आती हैं। जब तक अल्पसंख्यक समुदाय का पूर्ण विश्वास हासिल नहीं हो जाता, कोई जश्न मनाना फिजूल है। जब राज्यों व केंद्र में एक ही दल की सरकार हो तो नक्सल समस्या से क्यों नहीं निपटा जा रहा है?  
   दिल्ली में उपराज्यपाल व केजरीवाल के बीच जो जंग जारी है उसमें कानूनी रूप से केजरीवाल भले ही सही न हों मगर एक स्पष्ट बहुमत वाली सरकार होने के नाते अपनी पसंद के ब्यूरोक्रेट नियुक्त न कर पाने के कारण जनता की सहानुभूति केजरीवाल के पक्ष में बढ़ती जा रही है। और केजरीवाल की सहानुभूति बढ्ने का मतलब अप्रत्यक्ष रूप से नमो की लोकप्रियता कम होना ही कहा जाएगा। एक बात के लिए सरकार अवश्य प्रशंसा की हकदार है कि अभी तक कोई घोटाला या भ्रष्टाचार का सुर्खियाँ बटोरने लायक समाचार सामने नहीं आया है।  
   और अंत में यही कि जिस तरह मोदी जी ने सक्षम लोगों से गैस सबसिडी छोडने की अपील की और कई लोगों ने उसे मान कर छोड़ा भी ऐसे ही क्या वे सक्षम लोगों से जातिगत आरक्षण छोड़ने की अपील कर सकते हैं?
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                                                      om.varma17@gmail.com


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