Thursday, 21 May 2015


               
                    शिवांबु महात्म्य    
                                                  ओम वर्मा       
                                                                                  
जिस प्रकृति के कण कण में संगीत है, जिसके कण कण में भगवान बसे हैं, वहाँ उसके किसी भी उत्पाद को वृथा वस्तु समझना  या उत्पाद की चर्चा को उपहास की दृष्टि से  देखना उचित नहीं है। इस परिप्रेक्ष में मानव मूत्र पर एक लघु अनुशीलन प्रस्तुत है। मानव शरीर के इस बाय प्रॉडक्ट को अभी तक सिर्फ चार बार गरिमापूर्ण स्थान या सम्मान मिला है पहला जब इसे शिवांबु नाम देकर भगवान शिव से जोड़ा गया, दूसरा तब जब मोरारजीभाई ने इसकी जीवनदायिनी शक्ति को पहचाना और इसके नियमित सेवन से निन्यानवे वर्ष की लंबी उम्र पाई, और तीसरा उस दिन जब लगभग दो साल पूर्व महाराष्ट्र के एक मंत्री महोदय ने इसकी उपयोगिता वहाँ की ग्यारह करोड़ तेईस लाख जनता की प्यास बुझाने के लिए खाली तालाबों को भरने के लिए बताई, और चौथा हाल ही में तब जब गड़करी जी ने घर बैठे स्वमूत्र का उपयोग अपने ही आवास के उद्यान में किया और वैज्ञानिकों के सामने चुनौती पेश की।
   देश, खासकर महाराष्ट्र में लगातार गिरते भूजल स्तर और कुछ लोगों की आँखों में लगातार मरते जा रहे पानी को देखते हुए यह माना जाने लगा है कि अगला विश्व युद्ध अब जल को लेकर ही होगा। इतनी गंभीर समस्या के हल के लिए नाना प्रकार के उपाय किए जाते रहे व सुझाव दिए गए मगर समस्या है कि जस की तस बनी हुई है। ऐसे में पहली बार किसी मिनिस्टर ने एक सर्वथा नूतन विचार प्रस्तुत कर जल संवर्धन की दिशा में कोई ठोससुझाव दिया था जिसका तब  स्वागत किया जाना चाहिए था न कि विरोध! अब गड़करी सर ने अपने चमत्कारी प्रयोग से अजित पवार सर की आवाज को कुछ और बुलंद कर दिया है।
   मानव शरीर द्वारा प्रतिदिन उत्सर्जित शिवांबु की मात्रा यदि 400 मिली. भी मान ली जाए तो महाराष्ट्र की ग्यारह करोड़ तेईस लाख जनता प्रतिदिन इसकी 4492000 लीटर मात्रा उपलब्ध करवाती है। इस पदार्थ का 95 % भाग सिर्फ जल होता है। यानी शिवांबु से अंबु पृथक करने की विधि अगर विकसित कर ली जाए तो प्रतिदिन प्राप्त होने वाली 42674 लीटर जल की मात्रा महाराष्ट्र के सारे तालाब को पुनर्जीवित कर सकती है। एक बात और ...इस पदार्थ की एक लीटर मात्रा में 9.3 ग्रा. यूरिया होता है। यह भी सर्वविदित तथ्य है कि देश में रासायनिक खादों की कमी होने के कारण कई बार कालाबाज़ारी भी होती है। यदि जल के अलावा इस पदार्थ से यूरिया पृथक करने की तकनीक भी विकसित कर ली जाए तो अकेले महाराष्ट्र में ही किसानों को 41.8 MT कुदरती यूरिया प्रतिदिन उपलब्ध करवाया जा सकता है। इसे पूरे देश में लागू किया जाता तो आज किसानों की आत्महत्याओं में कमी भी आती और हो सकता है कि हम देश से यूरिया निर्यात करने की स्थिति में होते।
     अन्य वैज्ञानिक शोधों से भी यह सिद्ध हुआ है कि मानव मूत्र रासायनिक उर्वरकों का श्रेष्ठ विकल्प हो सकता है और कंपोस्ट खाद में मूत्र मिलाने पर लवण जमा होने की संभावना न्यूनतम रह जाती है। विज्ञान अब मानव मूत्र को ब्रैन सेल्स में भी बदल सकता है। इसमें मेमोरी न्यूरॉन्स भी सिक्रीट होते हैं। यानी जिस तरह क़तरे का भी वज़ूद होता है उसी तरह मानव शरीर से उत्सर्जित इस पदार्थ में भी मानवता के काम आने की अनेक संभावनाएं छिपी हैं है। जिसे गड़करी सर ने भी पहचान लिया है। बस जरूरत है तो सिर्फ उनका दोहन करने की।
   इससे पहले कि अमेरिका इसे लागू करे या इस पर अपना पेटेंट करवा लेहमें चाहिए कि इस गड़करी मॉडल को पूरे देश में लागू किया जाए। अजित पवार के तत्कालीन सुझाव व गड़करी जी के इस इनोवेशन पर दोनों को पद्म पुरस्कार से सम्मानित करने पर भी विचार किया जा सकता है।
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                                        om.varma17@gmail.com
       संपर्क : 100, रामनगर एक्स्टेंशन, देवास, 455001 (म.प्र.)
      


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