व्यंग्य
आत्महत्या : दो दृश्य
ओम वर्मा om.varma17@gmail.com
दृश्य -1 समय- मध्यकालीन युग की एक शाम
वह रणभूमि में शहीद हुआ था। अगले दिन उसका शव घर लाया गया। शहीद की विधवा
विलाप कर रही है। कुछ देर बाद वह पति का शव अपनी गोद में रख लेती है। यह दृश्य
देखकर ‘वीरसिंह अमर रहे’ का नारा लगा रही भीड़ में से कोई यकायक ‘सती माता की
जय हो’ का नारा उछाल देता है। देखते देखते लकड़ी, नारियल व हार फूल का ढेर लग जाता है। आनन फानन में चिता सजा दी जाती है। भारी
शोर शराबे में सद्य विधवा की सिसकियाँ घुट कर रह जाती हैं। जयकारे के नारो के बीच विलाप
करती आवेशित स्त्री यकायक ‘सती माता’
में बदल कर चिता तक पहुँचती है या पहुँचा दी जाती है। उपस्थित भीड़ श्रद्धालुओं में
बदल चुकी है। कुछ दिन बाद चिता स्थल पहले ‘सती चबूतरे’ व बाद में पक्के मंदिर में बदल जाती है। आसपास सरकारी जमीन पर हार-फूल, प्रसाद, चुनरी व सती माता की तस्वीरों वाली कई
दुकाने भी खुल जाती हैं।
दृश्य -2
समय - वर्तमान काल
एक पार्टी की रैली चल रही है। रैली सभा में बदल जाती है। पास ही एक विशाल पेड़
पर एक किसान जो चुनावी राजनीति भी कर चुका है चढ़ रहा है। उसकी कुछ माँगें हैं। साथ
में एक लंबा दुपट्टा व एक राजनीतिक दल का प्रतीक बन चुकी एक वस्तु भी है। नीचे नारे
लगाती भीड़! इधर मंच पर कवि कुमार अविश्वास ‘स्थिति पर नजर’ रखकर मन ही मन नई कविता तैयार कर लेते
है-
कोई फार्मर
समझता है, कोई पागल समझता है।
लटकने वाले की बैचेनी मेरा दल समझता है।
फाँसी का तेरा फंदा, है कितना दूर अब तुझसे,
मेरा वोटर समझता है या मेरा दिल समझता है।
लटकने वाले की बैचेनी मेरा दल समझता है।
फाँसी का तेरा फंदा, है कितना दूर अब तुझसे,
मेरा वोटर समझता है या मेरा दिल समझता है।
तभी एक कार्यकर्ता आकर कुछ इशारा
करता है। वे खुद इस अंदाज में “लटक गया?” पूछ बैठते हैं मानों जानना चाह रहे हों कि उनके आदेश का अनुपालन हुआ या
नहीं। कुछ लोग मृतक को पेड़ से उतारने के लिए दौड़ पड़ते हैं मगर तब तक पंछी उड़ चुका
होता है। इधर मंच पर ‘द शो मस्ट गो ऑन’
की तर्ज पर पार्टी के सबसे बड़े नेता का भाषण जारी रहता है।
बाद में जब उनकी खूब थुक्का
फजीहत हुई और ‘ये सारे चैनल
वाले हमारे खिलाफ हैं’ या ‘ये बीजेपी
और कांग्रेस वाले मिले हुए हैं’ जैसे जुमलों से भी बात नहीं
बनी तो उनको सामने आना ही पड़ा।
“सर आप स्वयं बिजली के खंबे पर
चढ़कर ‘अवैध’ को ‘वैध’ करने की ताकत रखते हैं। उस दिन आपके सामने कोई
आत्महत्या जैसा अवैध काम जब कर रहा था तब आपने जीवन रक्षा जैसा ‘वैध’ काम करना क्यों उचित नहीं समझा?” किसानों की आत्महत्या पर ‘सबसे पहले’ खबर पहुँचाने के लिए नियुक्त एक पत्रकार ने पूछा।
“देखिए हम कोई भी काम जनता की
राय लिए बिना नहीं करते हैं। हमने एसएमएस के जरिए जनता की राय माँगी थी। मगर हमारे
पास डेटा पहुँचने से पहले ही सामने वाले ने फंदा लगा लिया। इसमें हमारी क्या गलती
है? हमारा दूसरा तरीका धरना देने का
रहा है। पेड़ के नीचे जो लोग थे असल में वे हमारे धरने वाले ही थे। पर उनकी बात भी
बंदे ने नहीं सुनी। फिर भी हम सामने वाले के परिवार से हाथ जोड़कर व फफक फफककर माफी
भी माँग चुके हैं।
अब इन्हें कौन समझाए कि माफी वह काठ की हांडी है जो बार बार नहीं चढ़ती और ‘रुदाली’ फिल्म के बाद रोना भी अपना अर्थ खो चुका है।
बहरहाल, राजनीति के सौदागरों के लिए आत्महत्या करता किसान
आकाश की उस कटी पतंग की तरह है जिसे झांकरा लेकर हर कोई झपट लेना चाहता है!
मगर बंधु, राजनीति के खेल में जनता वो
अंपायर है जो उँगली उठाने में देर नहीं करती! ***
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संपर्क :100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001(म.प्र.)
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