Monday, 18 May 2015

संदर्भ : अरुणा शानबाग के कोमा के 42 वर्ष

    
 विचार                                                       
  
   बलात्कार की सज़ा सिर्फ मृत्युदंड ही हो!
                                                ओम वर्मा
लात्कार हालांकि अब देश रोज की घटना हो चुकी है लेकिन कभी कभार मीडिया या किसी सामाजिक संगठन के कारण देश में गुस्सा भी फूट पड़ता है और कानूनी बदलाव की माँग को लेकर भावनात्मक उबाल भी! कभी फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना भी हो जाती है तो किसी भी कानूनी कमजोरी के चलते आरोपी या तो छूट जाता है या अगली कोर्ट में अपील दाखिल कर चुका होता है।
   लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि बलात्कारी की सज़ा आखिर क्या हो? किसी देश में संगसार करने का प्रावधान है तो कहीं कुछ। और हमारे यहाँ भी आयोग के माध्यम से सरकार ने सुझाव माँगे भी हैं। मुझे जो सबसे अजीबोगरीब सुझाव लगा वो है बलात्कारी को रसायन के उपयोग से नपुंसक बनाने का। पेट भरना व यौन क्रिया मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ हैं। मान लो कि किसी बलात्कारी को फस्ट ट्रैक अदालत में केस चला और उसे तीन माह में नपुंसक बनाने की सज़ा मिल जाए तो क्या वह जिंदगी भर नपुंसक बनकर घूमना सहन कर सकेगा ? क्या नपुंसक व्यक्ति को घर में रखकर उसके अन्य परिजन सहज रह सकेंगे? क्या यह बोध उसे सड़क फिल्म के महारानी नामक नपुंसक खल पात्र की तरह हिंसक नहीं बना देगा? क्या वह दुनिया और समाज से और बदला लेने की कोशिश नहीं करेगा? क्या मात्र नपुंसक बना देने से पीड़ित और अपराधी के बीच या उनके परिवारों के बीच आगे वैमनस्यता के नए बीज नहीं पड़ जाएँगे ?
     दरअसल बलात्कार का दंश जिसने भोगा है उसकी व्यथा को समझना इतना आसान भी नहीं है। एक बलत्कृत स्त्री व अपंग बनाकर जीवित छोड़ दिए गए व्यक्ति में कोई ज्यादा अंतर नहीं होता। अरुणा शानबाग का ताजा केस इसका ज्वलंत उदाहरण है जहाँ आरोपी की छह साल बाद ही शुद्धि हो जाती है और पीड़िता पूरे बयालीस वर्ष तक नारकीय जीवन जीती है। मान लो कि इस प्रकरण में सोहनलाल को आजन्म कारावास की सज़ा भी हो जाती तो वह चौदह वर्ष बाद स्वतंत्र विचरण कर रहा होता।
   एक आशंका यह भी सामने आती है कि बलात्कार व हत्या के आरोप में कोई व्यक्ति अगर आजीवन कारावास की सजा काट भी ले तो ऐसा व्यक्ति अंदर रहकर कोई कार्य कुशलता का या  टेक्निकल शिक्षा का प्रमाणपत्र लेकर तो नहीं आएगा! कोई नौकरी देने के लिए तो उसे नहीं तैयार खड़ा होगा। ऐसे व्यक्ति के अच्छे मार्ग के बजाय कुमार्ग पर निकल पड़ने की संभावना ही अधिक दिखाई देती है। ऐसे में जैसे मानव जीवन के स्वास्थ्य व समृद्धि के लिए मच्छर व चूहों को मारना आवश्यक है वैसे ही बलात्कारी के लिए सर्वाधिक उपयुक्त सज़ा अगर कोई हो सकती है तो सिर्फ और सिर्फ मृत्यु दण्ड! यह सज़ा पीड़ित को उसका स्वाभिमान भले ही न लौटा पाए, उसकी पुरानी ज़िंदगी भले ही वापस न लौटा पाए, पर शायद थोड़ा बहुत मल्हम तो लगा ही सकेगी और किसी नए दुस्साहसी को किसी अरुणा या किसी दामिनी की ज़िंदगी बर्बाद करने से भी शायद रोक  सके ।
     मेरे विचार से बलात्कार को जिसे की शरीर के साथ पीड़ित की आत्मा का भी वध कहा जा सकता है, आरोपी को मृत्यु दण्ड से कम सज़ा का कोई प्रावधान नहीं होना चाहिए। और बात सिर्फ एक अरुणा या एक दामिनी की नहीं है, देश की अदलतों में पंचानवे लाख से भी ज्यादा बलात्कार या महिला उत्पीड़न के केस दर्ज़ हैं। क्या उनके लिए फास्ट ट्रैक अदालतें फिर किसी नए आंदोलन की कोख से ही जन्म लेंगी ?                                                                               om.varma17@gmail.com
                                                         ***
          100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 (म.प्र.) 
                                       
           


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