Wednesday, 20 July 2016

व्यंग्य - ओ गुरु ! अब नई टीम में ठोको ताली !, 20.07.16



      व्यंग्य
                               वाह गुरु! ठोको ताली!
                                                                                            -ओम वर्मा
गुरु गुरुपूर्णिमा के दिन अखबारों की सारी हेडलाइंस चुरा ले गए!
     साल भर बच्चों को पढ़ाने वाले मास्टर के बारे में जितना नहीं छपा, उससे ज्यादा बात – बात पर ओ गुरु, हो जा शुरू कहने वाले सरदार ने नंबर मार लिया। शेरो-शायरी के चौके छक्के जड़ने वाले ये गुरु बीच खेल में ही बेटिंग छोड़ कर यकायक फील्डिंग कर रही टीम की टोपी में भविष्य खोजने लगे। प्रस्तुत है उनसे लिए गए साक्षात्कार के अंश-
 रिपोर्टर : आप तो उस टीम को अपनी माँ बताते थे और कप्तान के पैर छूते थे, फिर बीच खेल में ये पाला बदल क्यों?”
गुरु : देखो गुरु ऐसा है कि  -
      “कल उनका था आज इनका हूँ।
        मैं नहीं जानता मैं किनका हूँ।
        जिसमें दम हो उड़ा के ले जाए
,
        हवा में उड़ता हुआ तिनका हूँ।“
रिपोर्टर :  लेकिन कल आप जिन्हें बेपेंदी का लौटा बचा चुके उनके साथ कैसे जा सकते हैं?” रिपोर्टर   
                 को लगा कि इस सवाल से वह गुरु के डंडे बिखेर देगा। मगर वे पहले ही एक कदम आगे
                 निकल कर गेंद को सीमापार पहुँचाने के लिए तैयार खड़े थे। तपाक से  बोले-
गुरु उवाच :  ऐसा है गुरु कि –
                  “खरे यहाँ हैं कम अधिकतर हैं खोटे  
                   राजनीति में हैं सब बिन पेंदे के लोटे ,
                   पिछली टीम के बड़े पड़ रहे थे भारी,
                    गलेगी आप में दाल यहाँ सब हैं  छोटे“
रिपोर्टर :  पर सर यह तो अवसरवाद हुआ। इसके जवाब में उनका वो बाउंसर आया कि रिपोर्टर
                का माइक टूटते टूटते बचा। अपनी खटाक शैली में बोले-
गुरु उवाच :   मेरे इस प्रतिवाद के बाउंसर पर उनका हुक शॉट तैयार था। तुरंत बोले-  
                           
जैसे मैखाने में सब हालावादी,
                             वैसे राजनीति में सब अवसरवादी,
                             मैं तटस्थ रह कर अब कैसे देख  सकूँ
                              पंजाबी सूबे की होती बरबादी।
     रिपोर्टर के हर सवाल का उनके पास ठोको तालीनुमा जवाब तैयार होता था। उसने अंतिम ओवर में डाली जाने वाली गेंदों की तरह आक्रामक क्षेत्ररक्षण जमाने वाले अंदाज़ में अपने मन की बात आखिर कह ही डाली-
    कृपया बताएँ कि आपने इतने साल पार्टी में रहकर व बाद में राज्यसभा में रहकर देश व जनता के लिए क्या किया?”
     ये पूछो कि क्या नहीं किया गुरु? वर्ड कप के समय क्रिकेट के टॉक शो में कई शेर सुनाकर खिलाड़ियों की होसला-अफजाई की, कॉमेडी शो में बरसों दर्शकों को हँसाया,! और गुरु आज के समय में किसी को हँसाना ही सबसे बड़ी मानव सेवा है। आगे के प्रश्न पत्रकार के जहन में ही कुलबुलाते रह गए कि गुरु कॉमेडी शो हो चाहे क्रिकेट का टॉक शो, वो तो सब आपने पैसे लेकर ही किए होंगे। उसमें जनता की सेवा कैसे हुई? मगर उसकी हिम्मत नहीं हुई। गुरु एक शेर सुनाकर उसे  बकरी की तरह मिमियाने पर मजबूर कर सकते थे। वे ताली ठोकने के लिए अपना हाथ बढ़ा रहे थे और पत्रकार अपना माथा!
                                                                ***
                             “

     

विशेष दर्जा-, 12.07.16


व्यंग्य
            विशेष दर्ज़ा
                                                    ओम वर्मा
र्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम के पिताअयोध्या नरेश राजा दशरथ जिनकी रानियाँ थीं तीन – बड़ी कौशल्यादूसरी सुमित्रा और लास्ट बट नॉट द लीस्ट- रानी कैकयी। राजा बड़े ही प्रतापी और नामी-गिरामी थेप्रजा का सही लालन पालन और ऋषि- मुनियों का बड़ा ही मान सम्मान करते थे। मगर वो राजा भी भला कोई राजा है जिसमें कोई खामी न हो ! तो महाराज दशरथ भी क्यों अपवाद होने लगे। अब तीन कोई सम संख्या तो है नहीं लिहाजा वे तीनों रानियों को चाहकर भी समान रूप से प्यार कर ही नहीं सकते थे। इसी ऊहापोह से निपटने के लिए उन्होंने अपने  ढंग से प्यार का बँटवारा किया। जितना प्यार कौशल्या और सुमित्रा दोनों के हिस्से में आता था उससे कहीं ज्यादा कैकयी के हिस्से में आता था। यानी रानी कैकयी छोटी जरूर थीं पर उन्हें विशेष दर्ज़ा प्राप्त था। विशेष दर्ज़ा चाहे किसी रानी का हो या राज्य काअपने लिए स्पेशल पैकेज लिए बिना नहीं मानता। यानी स्पेशल पैकेज की बीमारी त्रेता युग में भी थी जिसके तहत कैकयी ने माँगा अपने पुत्र का राज्याभिषेक और प्रभु श्रीराम के लिए चौदह वर्ष का वनवास। इस स्पेशल पैकेज  की परिणति स्वयं महाराज दशरथ के देहावसान व देवी सीता के अपहरण तक जा पहुँचेगी यह शायद स्वयं महाराज दशरथ को भी पता नहीं रहा होगा।
    
      ऐसा ही हाल द्वापर युग में रानी द्रोपदी का था। माता की पाँचो भाइयों में समान रूप से बाँट लेने की आज्ञा के फलस्वरूप वे पाँचों भाइयों की कॉमन पत्नी जरूर थीं पर सभी को अपने पत्नी होने के धर्म का समान अंश यानी ट्वेंटी पर्सेंट ईच(each)उन्हें देना था। मगर वो रानी भी रानी ही क्या जिससे कोई चूक ही न हो। द्रोपदी से भी चूक हुई। अपने वन ऑव द फाइव हस्बेंड्ज़(one of the five husbands) यानी एक पति अर्जुन जो अगर ओलंपिक हुए होते तो तीरंदाजी के सारे स्वर्ण पदक झपट सकते थे, (बशर्ते एकलव्य टीम में नहीं गया होता) को उन्होंने जीवन भर स्पेशल पत्नीत्व पैकेज प्रदान किया। इस कारण स्वर्गारोहण की अपनी यात्रा में स्पेशल दर्ज़ा दिए जाने की कीमत उन्हें बीच राह में अपने प्राण त्याग कर चुकानी पड़ी थी।   
     अंतरराष्ट्रीय राजनीति में विशेष दर्ज़ा एमएफएन यानी मोस्ट फेवर्ड नेशन के रूप में सामने आता है। अंकल सैम जिसे मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्ज़ा दे दें वहाँ डॉलरों की बरसात तो होती ही हैसाथ ही उन्हें उस देश की खुफिया एजेंसियों व उन्हीं के वित्त पोषण से फलते- फूलते आतंकवादी संगठनों की नापाक हरकतों को नज़रंदाज़ भी करना पड़ता है। चीन और पाक भारत से शांति वार्ता से लेकर शिखर वार्ताओं तक हर बार भाई-भाई के नारे जरूर लगाते आए हैं मगर दोनों देश माओवादियों से लेकर कश्मीर में अलगाववादियों तक को विशेष दर्ज़ा प्रदान कर स्पेशल पैकेज भेजने में भी नहीं चूकते। इसी तरह शासक दल को एक समुदाय विशेष को विशेष दर्ज़ा देने और अंततः कुछ तुष्टिकारक स्पेशल पैकेज देने की याद सिर्फ चुनावों के समय ही आती है। ऐसे ही एक विशेष दर्ज़े का नाम धारा 370 है जो कुछ लोगों के लिए संजीवनी, कुछ के लिए विष और कुछ के लिए गले की हड्डी बना हुआ है।  देश एक रेसकोर्स की तरह हो गया है जहाँ विशेष दर्ज़ा दिए जाने का दाँव  सिर्फ उसी घोड़े पर लगाया जाता है जिसके वोट उगलने की संभावना होती है। यह वह गौशाला है जहाँ ‘बाटा’ उसी गाय के सामने रखा जाता है जो ज्यादा दूध दे सकती है। यह और बात है कि बाद में बाटे का स्पेशल पैकेज पाने वाली गाएँ सींग मारने लग जाएँ। मनमोहन सरकार पर काला जादू डालकर बड़ा पैकेज़ लेते रहने वाली ममता दी और एनडीए से अलग होते ही सेकुलर घोषित हुए नीतीश जीदोनों  विशेष दर्ज़े और पैकेज पाने की माँग हर सरकार से करते आए हैं। उम्मीद है कि माँग पूरी होने के बाद दिल्ली वालों को सींग नहीं मारेंगे।                                                
                                                                                                                                    ***

व्यंग्य - हम बात भले ही ... 05.07.16

panव्यंग्य
                       मंत्रिमण्डल में फेरबदल और  विस्तार
                                                                                                            ओम वर्मा
सारे घर में कोहराम मचा हुआ था। रोज़ रोज़ आलू-गोभी और भटे की सब्ज़ी। बहू बेचारी करे तो क्या करे! कभी ससुर नाराज़ तो कभी सासकभी ननद नाराज़ तो कभी भौजाई...। पति ने तो आज थाली उठाकर ही फेंक दी। यानी पत्नी पर इतना ज्यादा दबाव पड़ चुका था कि उसके पास सब्ज़ी में बदलाव करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा।  घबराई पत्नी शाम को टहलने के बहाने घर से बाहर गई और मौका देखकर अपनी माँ से राय ली। माँ की सलाह पर बहू ने ससुराल में सब्ज़ी के मेनू में प्रस्तावित भारी फेरबदल कर ही दिया। क्या था आखिर वो भारी फेरबदलआलू-गोभी और भटे के बजाय आलू-भटे और गोभीऔर एक बार गोभी-भटे-आलूकिसी दिन भटे-आलू-गोभीकिसी दिन सूखे आलू-भटे-गोभीकिसी दिन गीले आलू-भटे-गोभी
     कुछ ऐसे ही फेरबदल आजकल सरकारें किया करती हैं। रामलाल को श्यामलाल की जगहश्यामलाल को पन्नालाल की जगहऔर पन्नालाल को रामलाल की जगह...एण्ड सो ऑन...! पत्ते फेंटने से पहले ताश की गड्डी चाहे जनपथ से अभिमंत्रित होकर आए या नागपुर सेखेल वही दोहराया जाता है...! स्पष्ट बहुमत के बजाय अगर सरकार गठजोड़ी यानी भानमती के कुनबे टाइप हो तो मंत्रिमंडल में छोटा दल भी उस चूहे की तरह हो जाता है जो एक चिंदी के बदले कपड़ों का सारा शोरूम पाना चाहता है। कभी कभी सदा सुर्खियों में बने रहने वाले किसी अतिमानव को मंत्रिमंडल फेरबदल में या किसी बड़े संवैधानिक पद पर अपने पसंदीदा किरदार को न देख पाने की स्थिति में अकस्मात भगवद्गीता का दिव्यज्ञान प्राप्त हो जाता है और उसे संसार नश्वर लगने लगता है। किसी भी सरकार के फेरबदल पर विपक्ष वाले ये अवश्य कहते हैं कि नई बोतल में पुरानी शराब भर दी गई है। मगर आप यह न भूलें कि बाकी सारी पुरानी चीजों को कुछ लोग भले ही बेमज़ा समझ लेंमगर रिंदों के अनुसार शराब जितनी पुरानी होगी उतनी ही ‘अच्छी’ या महँगी मानी जाती है।     
       मंत्रिमण्डल में बदलाव के साथ साथ कुछ सरकारों को चुनावी आहात असंतुष्टों के तुष्टिकरण और जातिगत समीकरणों के चलते  विस्तार भी करना पड़ता है। विद्रोहियों व असंतुष्टों का स्वागत करने की तो हमारी प्राचीन परंपरा रही है। विभीषण ने लंकेश से विद्रोह कियापुरस्कार में पाया लंका का राज सिंहासन! किसी राज्य में विधायक असंतुष्ट हुए और पा गए निगमों व मण्डलों के अध्यक्ष पद! अब लाखों रुपए खर्च कर चुनाव लड़ा है, तो क्या खाली-पीली सांसद या विधायक बने रहने के लिए! फिर जिंदा क़ोमें तो वैसे भी पाँच साल इंतजार नहीं कर सकतीं! 
      एलिज़ाबेद काल के प्रसिद्ध अँगरेजी निबंधकार सर फ्राँसिस बेकन ने अपने एक निबंध ऑव फालोअर्स एण्ड फ्रेंड्स (Of followers and friends)  में अपने दरबारियों पर जरूरत से ज्यादा खर्च करने वाले शासक की तुलना मोर से करते हुए वे लिखा हैं- “मोर की पूँछ के दिखावटी पंख जितने ज्यादा बड़े होते हैं, उसकी उड़ान में वे उतने ही ज्यादा बाधक भी होते हैं। उनकी साज-सजावट पर उसे अतिरिक्त ध्यान देना पड़ता है सो अलग ‘'
    सूत्रात्मक (aphoristic)शैली में बेकन ने जो कहा उसे हम भी मानें यह जरूरी तो नहीं! वे एक अन्य विचारक पोप के शब्दों में चतुरतम के साथ-साथ क्षुद्रतम (wisest and meanest of mankind) भी थे। उन्हें राज्य द्वारा दंडित भी किया गया था। तो फिर हम ही क्यों मानें उनकी बातहम बात भले ही करें पूरे हिंदुस्तान की पर सुनते हैं सिर्फ आलाकमान की।
     देश की जो जनता आजादी के बाद पहले जीप खरीदी घोटाले से लेकर आज तक के बड़े बड़े टू-जी’, कोयला खदान घोटाले और राज्यों के व्यापम से लेकर मेरिट लिस्ट घोटाले तक का बोझ हँसते हँसते सह कर भी शान से जिंदा है वह क्या आठ दस नए मंत्रियों का बोझ नहीं सहन कर सकती? हो सकता है कि आगामी फेरबदल या विस्तार में आपकी कांस्टिट्युएंसी  के प्रतिनिधि के भी  अच्छे दिन आ जाएँ!
                                                                                                                              
                                                                                          ***  

व्यंग्य -दो लाख का इनाम... 19.07.16



 व्यंग्य
               दो लाख का इनाम – एक अनंत दूरी की कौड़ी!
                                                                                                         - ओम वर्मा
लोग बड़ी दूर की कौड़ियाँ ले आते हैं यह तो मैंने सुना था पर इस बार वे जो कौड़ी लेकर आए हैं उसे सिर्फ दूर की मान लेना कौड़ियों की तौहीन होगी। इस बार उनकी कौड़ी इस धरती की नहीं बल्कि किसी ऐसे ग्रह की है जिसकी दूरी किलोमीटर में नहीं बल्कि प्रकाशवर्ष के रूप में ही मापी जा सकती है। उन्होंने घोषणा की है कि जिसने नरेंद्र मोदी से चाय खरीदी है वो सामने आए तो उसे दो लाख रु. इनाम देंगे।
   सर मैंने खरीदी थी नरेंद्र मोदी बल्कि बालक नरेंद्र मोदी से चाय। मुझे दीजिए दो लाख का इनाम!” मैंने धड़धड़ाते हुए उनके कार्यालय में प्रवेश किया और गरजते हुए उनके सामने अपना पुरस्कार का दावा पेश किया।
     जरूर मिलेगा आपको इनाम! बल्कि हम तो जनता को देने के लिए ही बैठे हैं कोई लेने वाला ही नहीं आ रहा है। हाँ तो बताइए आपने कब खरीदी थी मोदी जी से चाय?”
     “सर एक बार रेलयात्रा के दौरान मैं गुजरात में वडनगर रेल्वे स्टेशन से गुजर रहा था तब मैंने ट्रेन में चाय पी थी...
    लेकिन इस बात का क्या प्रमाण कि वह चाय आपने तब नरेंद्र मोदी से ही ली थी? उन्होंने अपने चतुर राजनीतिक होने का प्रमाण दिया।
     सर मैंने उस बालक का नाम पूछा था तो उसने नरेंद्र व पिता का श्री दामोदरदास मोदी ही बताया था।
    आपके पास इस घटना का कोई फोटो, गवाह या रिकॉर्डिंग है?
     सर उस समय न तो मोबाइल बने थे और न ही मुझे यह पता था कि यह बालक बड़ा होकर पीएम बनने वाला है वर्ना में कैमरा साथ लेकर चलता।
     यह आपकी चिंता का विषय है...  पहले तो पुरस्कार के दावेदार को सबूत के तौर पर फोटो या वीडियो पेश करना होंगे जिसे जांच के लिए फोरेंसिक प्रयोगशाला में भेजा जाएगा जहाँ उनके सही पाए जाने पर ही पुरस्कार दिया जा सकेगा।
      पुरस्कार लेने मैं जिस उत्साह व उमंग से अंदर गया, उनकी शर्तें सुनकर वह काफ़ूर हो चुका था। दो लाख रु. का इनाम तो था मगर उसमें शर्तें लागू थीं। यह बात सच साबित हो भी जाए तो पहले वे कथित चाय विक्रेता से रेल्वे प्लेटफॉर्म पर चाय बेचने का लायसंस माँग सकते हैं। और यदि पिताजी की दुकान बाहर भी थी तो बेचने वाले पर अनधिकृत रूप से प्लेटफॉर्म पर प्रवेश व विक्रय करने के अपराध में केस चलाने की माँग भी की जा सकती है। और दावेदार लाख प्रमाण प्रस्तुत कर दे, वे उसे बटाला एनकाउंटर की तरह फर्जी भी बता सकते हैं।
     इतिहास में ऐसे कई कारनामे दर्ज़ हैं जिनके लिए प्रमाण प्रस्तुत करने वालों पर आगे पुरस्कारों की घोषणा हो सकती है। जैसे धीरूभाई अंबानी को पेट्रोल पंप पर काम करके उद्योगपति बनने की बात कहने वालों से किसी पेट्रोल भरवाने वाले का सबूत, प्रभु श्रीराम को शबरी के झूठे बेर खाते देखने का सबूत लाने और आंबेडकर जी को तालाब से पानी पीने से रोके जाने का सबूत, जिसने गांधी को दक्षिण अफ्रीका में रेल में टीसी के हाथों अपमानित होते देखा हो उसका सबूत! जिस घटना का जितना बड़ा राजनीतिक वज़न होगा, जाहिर है कि इनाम का पैकेज़ भी उतना ही बड़ा होगा! मैं तो अब किसी भी छोटू या बारीक से बाज़ार में अपने लिए चाय लेते, अखबार खरीदते या गाड़ी पर कपड़ा लगवाते हुए उस पल का फोटो लेने का पहले ध्यान रखता हूँ ताकि वक़्त जरूरत पड़ने पर उस पर मिलने वाले भारी इनाम से वंचित न हो जाऊँ।
     राजनीति के वर्तमान शब्दकोश से असंभव शब्द हटा दिया गया है!
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