panव्यंग्य
ओम वर्मा
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मंत्रिमण्डल में फेरबदल और विस्तार
सारे घर में कोहराम मचा हुआ था। रोज़ रोज़ आलू-गोभी और भटे की सब्ज़ी। बहू बेचारी करे तो क्या करे! कभी ससुर नाराज़ तो कभी सास, कभी ननद नाराज़ तो कभी भौजाई...। पति ने तो आज थाली उठाकर ही फेंक दी। यानी पत्नी पर इतना ज्यादा दबाव पड़ चुका था कि उसके पास सब्ज़ी में बदलाव करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। घबराई पत्नी शाम को टहलने के बहाने घर से बाहर गई और मौका देखकर अपनी माँ से राय ली। माँ की सलाह पर बहू ने ससुराल में सब्ज़ी के मेनू में प्रस्तावित भारी फेरबदल कर ही दिया। क्या था आखिर वो भारी फेरबदल? आलू-गोभी और भटे के बजाय आलू-भटे और गोभी, और एक बार गोभी-भटे-आलू, किसी दिन भटे-आलू-गोभी, किसी दिन सूखे आलू-भटे-गोभी, किसी दिन गीले आलू-भटे-गोभी…।
कुछ ऐसे ही फेरबदल आजकल सरकारें किया करती हैं। रामलाल को श्यामलाल की जगह, श्यामलाल को पन्नालाल की जगह, और पन्नालाल को रामलाल की जगह...एण्ड सो ऑन...! पत्ते फेंटने से पहले ताश की गड्डी चाहे जनपथ से अभिमंत्रित होकर आए या नागपुर से, खेल वही दोहराया जाता है...! स्पष्ट बहुमत के बजाय अगर सरकार गठजोड़ी यानी भानमती के कुनबे टाइप हो तो मंत्रिमंडल में छोटा दल भी उस चूहे की तरह हो जाता है जो एक चिंदी के बदले कपड़ों का सारा शोरूम पाना चाहता है। कभी कभी सदा सुर्खियों में बने रहने वाले किसी अतिमानव को मंत्रिमंडल फेरबदल में या किसी बड़े संवैधानिक पद पर अपने पसंदीदा किरदार को न देख पाने की स्थिति में अकस्मात भगवद्गीता का दिव्यज्ञान प्राप्त हो जाता है और उसे संसार नश्वर लगने लगता है। किसी भी सरकार के फेरबदल पर विपक्ष वाले ये अवश्य कहते हैं कि नई बोतल में पुरानी शराब भर दी गई है। मगर आप यह न भूलें कि बाकी सारी पुरानी चीजों को कुछ लोग भले ही बेमज़ा समझ लें, मगर रिंदों के अनुसार शराब जितनी पुरानी होगी उतनी ही ‘अच्छी’ या महँगी मानी जाती है।
मंत्रिमण्डल में बदलाव के साथ साथ कुछ सरकारों को चुनावी आहात, असंतुष्टों के तुष्टिकरण और जातिगत समीकरणों के चलते ‘विस्तार’ भी करना पड़ता है। विद्रोहियों व असंतुष्टों का स्वागत करने की तो हमारी प्राचीन परंपरा रही है। विभीषण ने लंकेश से विद्रोह किया, पुरस्कार में पाया लंका का राज सिंहासन! किसी राज्य में विधायक असंतुष्ट हुए और पा गए निगमों व मण्डलों के अध्यक्ष पद! अब लाखों रुपए खर्च कर चुनाव लड़ा है, तो क्या खाली-पीली सांसद या विधायक बने रहने के लिए! फिर जिंदा क़ोमें तो वैसे भी पाँच साल इंतजार नहीं कर सकतीं!
एलिज़ाबेद काल के प्रसिद्ध अँगरेजी निबंधकार सर फ्राँसिस बेकन ने अपने एक निबंध ‘ऑव फालोअर्स एण्ड फ्रेंड्स’ (Of followers and friends) में अपने दरबारियों पर जरूरत से ज्यादा खर्च करने वाले शासक की तुलना मोर से करते हुए वे लिखा हैं- “मोर की पूँछ के दिखावटी पंख जितने ज्यादा बड़े होते हैं, उसकी उड़ान में वे उतने ही ज्यादा बाधक भी होते हैं। उनकी साज-सजावट पर उसे अतिरिक्त ध्यान देना पड़ता है सो अलग ।‘'
सूत्रात्मक (aphoristic)शैली में बेकन ने जो कहा उसे हम भी मानें यह जरूरी तो नहीं! वे एक अन्य विचारक पोप के शब्दों में चतुरतम के साथ-साथ क्षुद्रतम (wisest and meanest of mankind) भी थे। उन्हें राज्य द्वारा दंडित भी किया गया था। तो फिर हम ही क्यों मानें उनकी बात? हम बात भले ही करें पूरे हिंदुस्तान की पर सुनते हैं सिर्फ आलाकमान की।
देश की जो जनता आजादी के बाद पहले जीप खरीदी घोटाले से लेकर आज तक के बड़े बड़े ‘टू-जी’, ‘कोयला खदान घोटाले’ और राज्यों के ‘व्यापम’ से लेकर ‘मेरिट लिस्ट घोटाले’ तक का बोझ हँसते हँसते सह कर भी शान से जिंदा है वह क्या आठ दस नए मंत्रियों का बोझ नहीं सहन कर सकती? हो सकता है कि आगामी फेरबदल या विस्तार में आपकी कांस्टिट्युएंसी के प्रतिनिधि के भी अच्छे दिन आ जाएँ!
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