Monday 3 April 2017

मूल व्यंग्य - एंटीरोमियो दस्ता

व्यंग्य
                  एंटीरोमियो दस्ता
                                                                                                                 ओम वर्मा

ल तक जिन शोहदों की पौ बारह थी अब उनकी शामत आई हुई है। स्कूल कॉलेज के रास्तों की तो रौनक़ ही चली गई है। कट चाय के अड्डों व गुटका-सिगरेट की दुकानों पर तालाबंदी की नौबत आ गई है। इनके लिए काम की तत्काल कुछ वैकल्पिक व्यवस्था की जानी चाहिए अन्यथा कहीं ये भी कुछ काम न होने की अवस्था में आज़म भाईजान द्वारा सुझाया गया आबादी बढ़ाते रहने वाला विकल्प चुनने पर मज़बूर न हो जाएँ!

     जहाँ कभी कृष्ण और राधा ने रास रचाया था और जहाँ प्रेम का संदेश देती विश्व की सबसे ख़ूबसूरत धरोहर आज भी शान से खड़ी हैउस भूमि पर प्रेमियों को दोनों किसी को नज़र नहीं आएँ, चल दरिया में डूब जाएँ कहने पर क्यों मज़बूर होना पड़ रहा है? जिस देश में लैला-मजनूँ, शीरी-फरहाद, सोहनी-महिवाल, और हीर-राँझा की प्रणय गाथाएँ गाई, बजाई, सुनाई और फ़िल्माई जाती हों, वहाँ किसी सूबे में प्यार पर पाबंदी लगाने की नौबत आख़िर क्यों आ रही है? जहाँ इश्क को इबादत का दर्जा दिया गया हो और जिस इश्क में बंदे को खुदा करने की ताकत हो, उस इश्क पर भला कैसी पाबंदी? बात सीधी सी है जनाब कि इश्क जब इबादत के अमूर्त और दुरूह पथ को छोड़कर शरारत के हाईवे  पर चल निकलेगा तो चालान तो कटेगा ही। आज कृष्ण जब  शोहदा बन मीराओं को निर्भया बनने पर मजबूर कर रहा हो और कभी जिसकी बाँसुरी की तान सुन गौएँ व गोपियाँ अपनी सुधबुध खो बैठती थीं वह अब गुरुकुलों के पास से गुजरने वाली गोपियों को देख सीटी मारने पर उतारू होने लगेगा तो इनके चीरहरण को रोकने के लिए योगिओं को आगे आना ही पड़ेगा।
    
     लेकिन यहाँ लाख टके का सवाल यह भी पैदा होता है कि क्या स्कूल- कॉलेज के सामने से गुज़रने वाला हर लड़का एक शोहदा हैक्या कोई युवा जोड़ा एक दूसरे के मँगेतर या सच्चे प्रेमी नहीं हो सकते? क्या इस ऊपरी दबाव में आटे के साथ घुन की पिसाई नहीं हो रही है? अगर यह ‘एंटी –रोमियो’ अभियान इसी जोशोख़रोश से चलता रहा तो राज्य के सारे मजनूँ कहीं ‘योगी’ बनकर मठों की शरण न ले लें। वैसे भी जब से मठों से योगी सियासत में आने लगे हैंवहाँ ‘स्पेस’ बढ़ती जा रही है। हो सकता है कि माता-पिता आगे से बच्चों के नाम प्रेम रखने के बारे में सोचना ही बंद कर दें। सुना है कि उस राज्य में ‘मुगले-आज़म’ के “मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे...” व “कंकरिया मार के जगाया” टाइप के गानों  को गानेउनके रेडियो-टीवी प्रसारण पर भी रोक लगाई जा सकती है।
    
     काश ऐसे एंटीरोमियो स्क्वॉड अगर तेरह वर्ष पूर्व बिहार में बन गया होता तो कोई मटुकनाथ अपने बीवी-बच्चों को बिलखता छोड़कर अपनी शिष्या को नहीं फुसला पाता। अगर ऐसे दस्ते का विचार द्वापर युग के शासकों को भी आ गया होता तो तब आती जाती गोपियों को कोई परेशान नहीं कर सकता था। सरोवरों में स्नान कर रही गोपियों के वस्त्र चुराने वाला अगर दस्ते के हत्थे चढ़ जाता तो पुनः अपने जन्मस्थल पर नज़र आता। ऐसे ही दस्ते त्रेतायुग में बने होते तो न तो शूर्पनखा के नाक-कान काटे जातेन ही सीता-हरण होता और जब सीता-हरण नहीं होता तो पवनपुत्र के हाथों स्वर्णनगरी का विनाश भी नहीं हो सकता था।
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