व्यंग्य
चिंतन शिविर और उनकी चिंताएँ
ओम वर्मा
साँप निकल गया है, लकीर पर चिंतन जारी है। सबके हाथों में बड़ी बड़ी
लाठियाँ हैं। इतने धुरंधरों के होते साँप आख़िर बच कर कैसे निकल गया। माहौल कुछ ऐसा
है कि सामूहिक बलात्कार पर बहस में भाग लेते समय भी जिनकी मुस्कराहट गायब नहीं
होती थी आज उन्होंने भी गंभीरता ओढ़ रखी है। जिस लहर को उन्होंने झोंका भी नहीं
समझा था वह तूफ़ान बनकर उनकी सालों पुरानी बस्ती को तो पहले ही तहस नहस कर गई थी।
अब जो सर छुपाने भर के लिए आशियाना बचा था वह भी उजड़ गया। परंपरानुसार बिखरे दूध
पर रोया जा रहा है।
पिछली बार बहू होने का कार्ड खेला था मगर बहू पर कहीं दीदी और कहीं अम्मा
भारी पड़ गईं थी। जिसे साँप समझ कर छेड़ा जा रहा था वह सिंहासन पर जा बैठा था और
उसकी छोड़ी गई लकीर पर अब तक लाठियाँ भांजी जा रही हैं। पिछली बार दस जनपथ एंड से
डाली गई हर गेंद पर असम की पिच पर हेमंत, कोलकाता में दीदी, चैन्नई में अम्मा और केरल में बुज़ुर्ग बल्लेबाज़ ने जिस तरह के हेलिकॉप्टर
शॉट लगाए थे वहाँ के दर्शकों की तालियों की गूँज कानों में अभी तक सुनाई दे रही
है। मगर इस बार के टी-20 मैच में फिर उसी ‘आउट ऑव फॉर्म’ चल रहे गेंदबाज़ को यूपी की टीम ने ऊँची बोली लगाकर ख़रीद लिया। मगर यह
दाँव उलटा पद गया। इस गेंदबाज़ के द्वारा फेंकी गई दिशाहीन गेंदों को देख देखकर
गोमती छोर से गेंदबाज़ी कर रहे गेंदबाज़ भी अपनी लाइन और लेंग्थ भूलने लगे। इधर
बल्लेबाज़ था कि ऐसे नए नए शॉट लगाता जा रहा था जो इससे पहले न तो प्रजातंत्र गैलरी
में बैठकर देखने वाले दर्शकों ने कभी देखे थे और न ही क्रिकेट की किसी किताब में
उसका उल्लेख देखा गया है।
यूँ तो यह सबसे पुराना
राजनीतिक दल है। मगर एक समय पूरे देश में जिसकी पताका फहराया करती थी अब उसे खुर्दबीन
से खोजना पड़ रहा है। आज उसकी स्थिति प्रसव वेदना से पछाड़ खा रही बुधिया सी हो गई
है और पार्टी के सारे दिग्गज घीसू - माधो की तरह अपने अपने हिस्से के ‘आलू’ हथियाने में लगे हैं।
चिंतन
शिविर धीरे धीरे चिंता शिविर में तब्दील होता जा रहा था। हार का ठीकरा फोड़ने के
लिए कोई उपयुक्त सिर तलाशा जा रहा था। कई ऊलजलूल, व अप्रासंगिक बयानों के बाद एक आवाज़ यह भी आई कि “हम भी उसके मुक़ाबले के लिए अपने युवराज को लाए थे...कहीं ऐसा तो नहीं कि
अपने युवराज की एक्सेप्टिबिलिटी उनके मुक़ाबले पब्लिक में कम हो?” एक कम चर्चित पार्टीमेन ने दबी ज़ुबान से थोड़ी हिम्मत करके अंधों की बस्ती
में ‘आईने ले लो’ जैसी आवाज़
निकालने की कोशिश की।
“ये कौन बद्तमीज़ घुस आया है...लगता है गुजरात वालों का भेजा आदमी है!” एक भियाजी किस्म के कार्यकर्ता ने हाँक लगाई। इतने में बाक़ी लोगों ने
युवराज की स्वीकार्यता पर शंका उठाने वाले ‘विद्रोही’ को अस्वीकार करते हुए टांगा-टोली कर सीधा मुख्य-द्वार दिखा दिया।
“हार के लिए वे नहीं मैं जिम्मेदार हूँ,“ मातृभूमि के लिए शीश चढ़ाने वाली मुद्रा में एक बलिष्ठ कार्यकर्ता ने आगे बढ़कर अपने गले पर हाथ घुमाते हुए कहा, “मैं अपना इस्तीफा देने को तैयार हूँ। इस बंदे का जोश देखकर राष्ट्रीय स्तर से लेकर मुहल्ले के स्तर तक के कार्यकर्ताओं में इस्तीफा पेश करने की होड़ सी लग गई जिसे देखकर युवराज भाव-विभोर हो गए।
जब हम गले गले संकट में फँस जाते हैं तभी हमें बुज़ुर्गों की याद आती है।
यहाँ भी यही हुआ। वे अकस्मात प्रकट हुए और बोले कि “पार्टी को एक बड़ी सर्जरी की
ज़रूरत है” और फिर एक गूढ़ चुप्पी लगा कर बैठ गए! रीतिकालीन कवियों की चौपाइयों सा
इधर उनका यह तीर छूटा नहीं कि उधर युवराज का हाथ बार बार अपनी नाक पर जाने लगा। उधर दूसरे बुज़ुर्ग ने पहले उन्हें चाय की दुकान लगवाने का अपना पिछला
सुझाव वापस लेते हुए आत्मसमर्पण की मुद्रा में नया विचार दिया कि “कोई मूर्ख ही कर
सकता है उन्हें अकेले हराने की बात।“ उनका साफ़ साफ़ इशारा था कि सन् ’77 की तरह तमाम मेंढकों को एक पलड़े में रखने का अभियान शुरू करना होगा।
मंथन जारी
है। इनके साथ क्यों गए, उनके साथ क्यों नहीं गए, युवराज की बहिन को लाएँ कि जीजाजी को? देश का मतदाता वंशवाद या एक ही परिवार का शासन जारी रखना चाहता है या नहीं… चुनाव में विकास जैसा भी कभी कोई मुद्दा था या नहीं... इस बारे में जब
होगी फुरसत तो देखा जाएगा! फिलहाल रोगी को निष्चेतक (एनास्थेसिया) सुँघा दिया गया है और सर्जन भी आ चुके हैं।
जैसे ही उन्हें यह पता चलेगा कि सर्जरी किस अंग की करनी है, अंग विच्छेद कर दिया जाएगा।
छपते छपते ज्ञात हुआ है कि घाव हाथ के ‘पंजे’ में है और सर्जरी पैर के पंजे में कर दी गई है!
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