व्यंग्य
विचारधारा का पैदाइशी होना!
“मैं एक पैदाइशी कवि हूँ।“ कवियों के उस समूह में उस शाम रसरंजन के दौर में उन्होंने एक हाथ से मीरा की तरह अपना प्याला उठाया और दूसरे हाथ से पास बैठे कवि के हाथ पर ताली ठोकते हुए किसी वीर-रस के कवि के अंदाज में सबके बीच अपनी घुसपैठ को जस्टिफ़ाइ करने का प्रयास किया।
“आप अपनी वही आठ-दस पुरानी कविताएँ बार बार गोष्ठियों में सुनाते आए हैं…न कोई संकलन न कोई पुरस्कार... कुछ इक्का-दुक्का पत्र-पत्रिकाओं में ‘मित्रता निभाओ अभियान’के तहत दस-बीस कविताएँ क्या छप गईं, आप खुद को पैदाइशी कवि बताने लग गए!” हर गोष्ठी में उनसे पेंच लड़ाते रहने वाले अनोखीलाल जी ने चतुर टीवी एंकर की तरह ‘अड़ी’ लगा ही दी।
“पैदाइशी इसलिए हूँ कि मेरे पिता पं रसिकलाल ‘रसाल’ कवि थे, दादा पं चरणदास‘धमाल’ राजाश्रय प्राप्त कवि थे, माँ तो मुझे गर्भ में ही लोरियाँ सुनाया करती थी...! तो गुरु मैं पैदाइशी कवि हुआ कि नहीं।“ उन्होंने रणभूमि में जा रहे वीर सैनिक की तरह हुंकार भरते हुए जवाब दिया।
कल तक वे न सिर्फ कविता के नाम से चिढ़ते थे बल्कि जब भी अवसर मिलता, इस समिति के सारे कवियों का मज़ाक उड़ाने लग जाते थे। लेकिन आज शाम उन्होंने शहर के कवियों की समन्वय समिति की गोष्ठी में समारोहपूर्वक एंट्री मार ही दी। हालांकि इसी समिति को कुछ ही दिन पहले वे ‘मुन्नी’ की तरह बदनाम घोषित कर चुके थे। बाकी कवि भी जानते थे कि खुद को आज ‘कवि’ बताने वाला यह शख़्स महज आंगिक नौटंकी वाला कवि है जिसके पास गरजने की कला तो भरपूर है, बरसने लायक जल की एक बूँद भी नहीं है। लेकिन समिति में कुछ कवि ऐसे भी थे जो वर्षों से काव्य साधना में लीन थे और यह सोचकर चिंतित थे कि कहीं यह चुटकुलेबाज सचमुच मंच न लूट ले। जमे जमाए पंडितों से भी कभी कभार पब्लिक का टेस्ट पहचानने में चूक हो जाया करती है।
विवाद बढ़ते देखकर समिति ने कथित पैदाइशी कवि की डीएनए जाँच करवाने की घोषणा कर दी है। वैज्ञानिकों ने उस जीन (गुणसूत्र) की खोज प्रारंभ कर दी हैं जिससे व्यक्ति की विचारधारा व प्रतिबद्धता सुनिश्चित की जा सके।
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