व्यंग्य
अनुशासित सिपाही
ओम वर्मा
“मैं तो पार्टी का महज एक अनुशासित सिपाही हूँ।“
सियासत में इन दिनों यह बार बार दुहराया जाने वाला एक आम जुमला हो गया है। किंतु
जिस प्रकार उन्नीसवीं सदी के अँगरेजी निबंधकार चार्ल्स लैंब ने अपने प्रसिद्ध
निबंध ‘इंपर्फ़ेक्ट सिंपैथीज़’ में लिखा है कि ‘वे
सभी चीज़ों व व्यक्तियों को समान रूप से पसंद नहीं कर सकते,
क्योंकि उनके अंदर एक पूर्वाग्रहों की ग्रंथी है।‘ कुछ इसी प्रकार मुझे ‘सिपाही’
शब्द भी मेरे पूर्वाग्रहों के चलते कुछ कम ही पसंद है।
सिपाही शब्द सुनते ही मुझे घड़ी में आधी रात
को भी दस पर दस दिखाई देने लगते हैं। सिपाही यानी एक डंडा जो सड़क पर जा रहे कुत्ते
से लेकर किसी भी घीसू या माधौ के पिछवाड़े पर निशान बना सकता है। फिर उसके साथ ‘अनुशासित’
विशेषण उसे और भी विशिष्ट बना देता है। इस अति संक्षिप्त भूमिका का लुब्बे लुबाब
यह है कि इन दिनों ‘अनुशासित सिपाहियों’ से शहंशाह से लेकर वलीअहद तक परेशान हैं।
और इसी वजह से मैं भी कुछ ज़्यादा ही डरने लगा हूँ।
आज कोई
व्यक्ति यदि स्वयं को अनुशासित सिपाही बताता है और बार बार बताता ही जाता है तो
समझ लेना चाहिए कि वह और कुछ भले ही हो सकता है, पर अब कम से कम सिपाही के रूप में तो ज़्यादा
दिन नहीं रहने वाला। उसे अकस्मात यह इल्हाम होने लगता है कि वह सिर्फ भीड़ बढ़ाने या
सिर्फ उनके जय जयकार करते रहने के लिए नहीं बना है। अब उसकी महत्वाकांक्षा का
राकेट अपनी उलटी गिनती पूरी कर चुका है और उसे अब लांच होने से नहीं रोका जा
सकेगा। रोके जाने पर वह या तो सीधे आलाकमान की कुर्सी पर गिरने वाला है या फिर
बंगाल की खाड़ी में समा जाने वाला है। गरज यह है कि उन्हें जिन्हें कि कल तक माई-
बाप और क्या क्या नहीं बताया करता था, अब कब, कैसे पटखनी दे मारेगा,
आज कोई नहीं जानता।
हनुमान राम के अनुशासित सिपाही थे,
पर उनकी निगाह कभी भी अयोध्या के राजसिंहासन पर नहीं पड़ी। बीसवीं सदी के सबसे बड़े
अनुशासित सिपाही महात्मा गांधी थे जिन्होंने कथित नीची जाति वालों को ‘हरिजन’
की शुभसंज्ञा दी और धोती और खड़ाऊ से ऊपर कभी अपनी महत्वाकांक्षा को उठने ही नहीं
दिया। एक अनुशासित सिपाही मंगल पांडे था जिसका अनुशासन तोड़ना भी इतिहास बन गया था।
यह अनुशासित सिपाही स्वयं को अनुशासित कहता
ज़रूर है पर अनुशासन शब्द में से अनु उपसर्ग को उसने अंतरिक्ष में पृथ्वी की कक्षा
छोड़ने पर अपना एक हिस्सा अलग कर देने वाले राकेट की तरह त्याग दिया है। उसे लगता
है कि अब भी वह शासन न कर सका तो फिर कब करेगा? लिहाज़ा आज राजनीतिक दलों के ये अनुशासित
सिपाही ही दलाधिपतियों की सबसे बड़ी ‘चिंता’ बन गए हैं। आलाकमान यानी दलाधिपति,
इससे पूर्व कि कोई अनुशासित सिपाही ज़रूरत से ज़्यादा अनुशासित होने लगे,
या तो उसे कहीं राज्यपाल पद पर सुशोभित कर देते हैं या फिर राज्य की राजनीति में
रिबाउंड कर देते हैं। और जो समय रहते नहीं कर पाते, वे पाते हैं कि उनका यह ‘अनुशासित
सिपाही’ जो कल तक उनको कौंतेय अर्जुन और स्वयं को उनका सारथी
कृष्ण बताते नहीं अघाता था, यकायक पाला बदलकर कौरवों की सेना में शामिल
हो गया है या उसने अपनी स्वयं की बटालियन गठित कर ली है।
अनुशासित सिपाहियों की स्थिति कभी कभी साँप-छछूँदर
सी हो जाती है। उनके ’जबर्दस्त अनुशासन’
को आलाकमान न उगल सकता है न निगल सकता है। यह अनुशासित सिपाही आक्रोशित हो अपने
भाषणों में कभी कभी बैजू बावरा बन मालकोस की ऐसी तान छेड़ता है कि उससे उत्पन्न गर्मी
से माइक भी पिघलने लगता है।
कोई अनुशासित सिपाही सचमुच इतना अधिक
अनुशासित होता है कि वह सच में अंत तक अनुशासित ही बना रहता है। वह अपना अनुशासन
फिर अपनी आत्मकथा के बम के माध्यम से ही तोड़ता है। इन सियासी अनुशासित सिपाहियों से अलग
उन सिपाहियों की दुनिया भी है जिनकी नौकरी की पहली शर्त ही अनुशासन है। ये इतने
अनुशासित होते हैं कि खुशी खुशी साहबों के जूते पॉलिश भी कर लेते हैं और जैसा खाना
मिले खा लेते हैं। जली रोटियों व पतली दाल की बात करना इन अनुशासितों को
अनुशासनहीन की बिरादरी में खड़ा कर देता है। अब भला मातृभूमि की सेवा का व्रत लेने
वाले भी कभी खाने की क्वालिटी को लेकर लड़े हैं? बल्कि देशसेवकों ने जो मिला वही खाकर या
भूखे रहकर या फिर अनशन करके देशसेवा की है।
बहरहाल आप भले ही इन अनुशासित सिपाहियों,
खासकर सियासत के सिपाहियों के किरदार से सहमत हों या असहमत,
पर उन्हें नकार तो हरगिज़ नहीं सकते। इतिहास गवाह है कि आज़ादी के बाद देश व राज्यों
में कई बार इन्हीं अनुशासित सिपाहियों ने तख़्ता पलट किया है।
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