व्यंग्य
क्या विचारधारा भी अनुवांशिक होती है?
साहिर कह गए हैं कि “मालिक ने इनसान को इनसान बनाया, हमने उसे हिंदू या मुसलमान बनाया!“ जाहिर है कि जन्म के समय बच्चा किसी लघु उद्योग इकाई से निकला वह उत्पाद होता है जिस पर ब्रांडनेम का टैग बड़े प्रतिष्ठानों में लगाया जाता है। यही बात उसकी राजनीतिक प्रतिबद्धता के बारे में भी कही जा सकती है। वह परिपक्व होकर अपनी विचारधारा तय करे उससे पूर्व ही परिजनों की विचारधारा उसे अपने रंग में रँग चुकी होती है। इसका सबसे बड़ा लाभ यह मिलता है कि अपने राजनीतिक करियर में तात्कालिक लाभ देखकर यदि वह ‘ख’ दल में चला भी गया हो तो बाद में पलटी मारते समय खुद को पैदाइशी ‘क’ दल का बताकर ‘दलबदल’ के अनैतिक कृत्य के विरोध में भभकी आग को घर वापसी के छींटे डालकर ठंडी करने का प्रयास करने लगता है।
जब हम जन्म से हिंदू या मुसलमान नहीं हो सकते तो जन्म से काँग्रेसी या भाजपाई कैसे हो सकते हैं? जैसे एक बच्चे को खुद अपने विवेक से अपना धर्म तय करने लायक होने से पहले हम उसका धर्म तय कर देते हैं, वैसे ही राजनीतिज्ञों के परिवार में जन्म लेने वाले बच्चे को भी अपनी राजनीतिक विरासत संभालना अपना ‘फर्ज़’ लगता है। उसे किसी भी पार्टी का न तो इतिहास जानने की और न ही उसके गुणदोष परखने की जरूरत है। मैंने सोचा कि ऐसे में क्यों न उनसे ही कुछ ज्ञान प्राप्त किया जाए जिन्हें अभी अभी अकस्मात यह इल्हाम हुआ है कि वे पैदाइशी काँग्रेसी हैं।
उनके पास पहुँचा तो देखा कि वे घर की दीवारों पर अपनी नई पार्टी, मेरा मतलब उनके पिताश्री के समय की उनकी पार्टी या उनके अनुसार वह पार्टी जिसके दफ्तर में ही उनका जन्म हुआ था, उसके वर्तमान उपाध्यक्ष के चित्र पर मोटे मोटे अक्षरों में उन्हीं के हाथ से लिखा हुआ ‘पप्पू’ शब्द घिस घिस कर मिटाने का प्रयास कर रहे हैं। तस्वीर से पप्पू शब्द मिटाने और उस पर हार पहना देने के बाद वे मेरी ओर मुखातिब होकर बोले,
“कहो गुरु क्या जानना चाहते हो?”
“कल तो आप भाजपा को अपनी माँ बताते थे और नमो सर के पैर छूते थे, फिर बिना कोई डीएनए जाँच या शपथपत्र प्रस्तुत किए अकस्मात ये वल्दीयत के खाने में बदलाव कैसे कर दिया?”
गुरओं के गुरु ने तपाक से जवाब दिया-“देखो गुरु ऐसा है कि -
“कल उनका था आज इनका हूँ।
मैं नहीं जानता मैं किनका हूँ।
जिसमें दम हो उड़ा के ले जाए,
हवा में उड़ता हुआ तिनका हूँ।“
“लेकिन आप तो कल बीजेपी को अपनी माँ और काँग्रेस को ‘बदनाम मुन्नी’ बता रहे थे...!”
इस पर फिर एक शेर ठोका, “क्या हुआ मुन्नी अगर बदनाम है।
“मगर सर इससे पहले आप ‘आप आप’ भजते फिर रहे थे और उससे पहले उसी आप वाले को आप बेपेंदी का लोटा भी बता चुके थे।” मुझे लगा कि मैं अपनी इस गेंद से उनके डंडे उड़ा दूँगा पर वे तो पहले ही एक कदम आगे निकल चुके थे। तुरंत बोले-
“ऐसा है गुरु कि –
राजनीति में सब बिन पेंदे लोटे हैं,
खरे यहाँ हैं कम अधिकतर खोटे हैं,
बड़े वहाँ थे अधिक, पड़े मुझ पर भारी,
गली यहाँ पर दाल यहाँ सब छोटे हैं।“
“पर सर यह तो अवसरवाद हुआ।“ मैंने एक बाउंसर से उनको डराना चाहा जिस पर उनका ‘हुक शॉट’ तैयार था। तुरंत बोले-
“जैसे मैखाने में सब हालावादी,
वैसे राजनीति में सब अवसरवादी,
मैं तटस्थ रह कर अब कैसे देख सकूँ
, पंजाबी सूबे की होती बरबादी।“
मेरे हर सवाल का उनके पास ‘ठोको तालीनुमा’ जवाब तैयार होता था। मैंने अंतिम ओवर में डाली जाने वाली गेंदों की तरह आक्रामक क्षेत्ररक्षण जमाने वाले अंदाज़ में अपने मन की बात आखिर कह ही डाली-
“कृपया बताएँ कि आपने इतने साल पार्टी में रहकर व बाद में राज्यसभा में रहकर देश व जनता के लिए क्या किया?”
“कृपया बताएँ कि आपने इतने साल पार्टी में रहकर व बाद में राज्यसभा में रहकर देश व जनता के लिए क्या किया?”
“ये पूछो कि क्या नहीं किया गुरु? वर्ड कप के समय क्रिकेट के टॉक शो में कई शेर सुनाकर खिलाड़ियों की होसला-अफजाई की, कॉमेडी शो में बरसों दर्शकों को हँसाया,! और गुरु आज के समय में किसी को हँसाना ही सबसे बड़ी मानव सेवा है।“ आगे के प्रश्न मेरे जहन में ही कुलबुलाते रह गए कि “गुरु कॉमेडी शो हो चाहे क्रिकेट का टॉक शो, वो तो सब आपने पैसे लेकर ही किए होंगे। उसमें जनता की सेवा कैसे हुई?” मगर मेरी हिम्मत नहीं हुई। वे एक शेर सुनाकर मुझे बकरी की तरह मिमियाने पर मजबूर कर सकते थे। वे ताली ठोकने के लिए मेरा हाथ तलाश रहे थे जो मैं अपना माथा ठोकने के लिए बढ़ा चुका था!
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