Thursday, 30 October 2014



व्यंग्य (नईदुनिया,29.10.14)
        समर्थन की वरमाला !
                       ओम वर्मा
                                   om.varma17@gmail.com
 
जैसे सोने का मिलना भी अशुभ और खोना भी अशुभजैसे पुलिसवालों से न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी अच्छीजैसे अल्पवृष्टि भी त्रासदी और अतिवृष्टि भी कयामत, वैसे ही राजनीति में समर्थन लेना भी अशुभ और न लेना भी अशुभ होता है। यह समझना मुश्किल है कि समर्थन न लेना ज्यादा अशुभ है या लेना। समर्थन न लेना यानी आसमान से नीचे गिरना और ले लेना(चाहे बाहर से ही सही) यानी खजूर पर पूरे पाँच साल तक अटके रहना! न जाने कब समर्थक अत्ता माझी सटकली की दहाड़ लगाता हुआ आए और खजूर हिलाकर नीचे टपका दे!
    वैसे देखा जाए तो समर्थन  का इतिहास सदियों पुराना है। त्रेतायुग में .विभीषण ने अपने ज्येष्ठ भ्राताश्री के बजाय प्रभु श्रीराम को समर्थन दिया पर उनका वह कृत्य था सत्य की रक्षा के लिए। द्वापर के महाभारत काल में अर्जुन और दुर्योधन भगवान श्रीकृष्ण से समर्थन लेने पहुँचे थे। यहाँ समर्थन की डील को दो फेक्टर्स ने प्रभावित किया : एक तो टाइमिंग और दूसरा उनकी लोकेशन। अर्जुन निद्रालीन प्रभु के चरणों के पास खड़े थे जबकि दुर्योधन सिर के पास। अर्जुन को मिला सारथी और दुर्योधन ने पाई नारायणी सेना। एक ने पाई ‘क्वालिटी’ तो दूजे ने ’क्वांटिटी। संदेश साफ था कि याचक बनकर ही सशक्त व स्थाई समर्थन लिया जा सकता है। यही नहीं कृष्ण ने समर्थन देते समय यह शर्त भी रखी कि वे शस्त्र नहीं उठाएँगेसिर्फ सारथी की भूमिका में रहेंगे यानी समर्थन अहिंसात्मक होगा।
   अब समर्थन के मायनेतौर तरीके और समर्थन लेने व देने वाले दोनों पूरी तरह से बदल गए हैं। समर्थन लेने वाला माँगे या न माँगेदेने वाला शोले के गब्बर की तरह अपनी शर्तें पहले रखने लगता है। जब तक बसंती नाचती रहेगीवीरू की साँसें चलेंगी। मुट्ठी भर विधायकों/सांसदों के दम पर समर्थक सारे मलाईदार विभाग अपने पास चाहता है। चूहे मात्र कुछ चिंदियों के बदले कपड़े की पूरी दुकान के लिए अड़ जाते हैं। समर्थन देकर कोई बहिनजी  सिर्फ अपनी ‘माया’ के विस्तार में लग जाती हैं तो कोई दीदी समर्थन देकर भी अवसर पाते ही समर्थित व समर्थक के बीच की ‘ममता’ का सेतु तोड़ने में तनिक देर नहीं करतीं। और अम्मा के पास तो समर्थन लेने के लिए दिल्ली वालों को इस तरह जाना पड़ा था मानो जलालुद्दीन अकबर पुत्र की कामना के लिए नंगे पैर सूफी संत सलीम चिश्ती की ख़ानक़ाह पर जा रहे हों।  
    मगर कभी कभी पांसे उलटे भी पड़ जाते है। जैसे पाँच वर्ष पूर्व दिल्ली में हुआ व इस बार मुंबई में होता नजर आया। दिल्ली में यूपी के हमारे एक मित्र जनपथ की सड़कों पर ‘मर्थन ले लो SSS समर्थन’ की हाँक लगा-लगाकर दिन भर घूमते रहेमगर किसी ने उन्हें घास तो दूरतिनका तक नहीं डाला था। ऐसी ही हाँक इन दिनों मुंबई में दो फेरी वाले सिर पर टोकरी रख कर लगाते नजर आए। एक की टोकरी में ढेर सारी घड़ियाँ थीं तो दूसरे की टोकरी में तीर-कमान। सभी पर समर्थन हाजिर है लिखे स्टिकर लगे थे। लेकिन घड़ी वाले की सारी घड़ियाँ या तो बंद पड़ी हुई थीं या उनमें बारह बज रही थी। वहीं तीर-कमानों की प्रत्यंचाएँ उतरी हुई थीं व तीर भोथरा गए थे।
    राजनीति का रंगमंच धीरे धीरे स्वयंवर में तब्दील होने लगा है। विवाह योग्य सुंदर राजकुमार सिर्फ एक होता है जिसका वरण करने के लिए कल तक सत्ताई सौंदर्य के मद में चूर पड़ी राजकुमारियाँ समर्थन की वरमाला लेकर पीछे पीछे दौड़ने लगती हैं। दिल्ली में हुए स्वयंवर में भी ऐसी ही थुक्का-फजीहत हुई थी जो लोगों की स्मृति से अभी मिटी भी नहीं थी कि अब एक नया एपिसोड सामने आ गया है। यह समर्थन की वरमाला का ही पुण्य-प्रताप है की हमेशा ‘लट्ठ भारती’ की बात कर दूसरों की धड़कनों को नियंत्रित करने वाले सीधे ‘विविध भारती’ की तरह देश की सुरीली धड़कन बनने का क्षुद्र प्रयास करते नजर आने लगे हैं।   
   और सबसे खतरनाक समर्थन तो वह होता है, जो बाहर से दिया जाता है, जिसकी महत्ता बहिर्मन के हथकंडे से ही प्रमाणित होती है। ऐसा समर्थन लेना तो मानो सबसे अशुभ होता है।
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Wednesday, 29 October 2014


नईदुनिया, दि. 29.10.2014 में प्रकाशित व्यंग्य


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Monday, 20 October 2014

विचार - वंशवाद के ताबूत में एक और कील!




विचार
   वंशवाद के ताबूत में एक और कील! 
                      ओम वर्मा        om.varma17@gmail.com 
रियाणा व महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में व इससे पहले सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस की जो गत हुई है उसकी कल्पना किसी कांग्रेसी या जी हुज़ूरी के शोर में डूबे गांधी परिवार ने शायद ही कभी की होगी। गांधी परिवार को लेकर कांग्रेसियों की सोच कुछ ऐसी है कि तेरे नाम से शुरू, तेरे नाम पे खतम’ पार्टी अध्यक्ष से लेकर उपाध्यक्ष और संसदीय दल की अध्यक्ष तक गांधी ही गांधी...! 1999 में  शरद पवार संगमा व तारीक अनवर के साथ मिलकर सोनिया गांधी के विदेशी मूल के आधार पर अलग होकर भी पंद्रह साल तक साथ चलते रहे हैं। एनडीए ने नरेंद्र मोदी को जब पीएम उम्मीदवार के रूप में सामने रख कर बढ़त  ले ली थी तब यूपीए सिर्फ संवैधानिक प्रावधान की दुहाई देता रह गया था कि पीएम सांसदों के द्वारा चुना जाता है। मगर वे यह भूल गए थे कि किसी को पीएम उम्मीदवार घोषित करके चुनाव लड़ने पर कोई कानूनी रोक भी तो नहीं है। यह भी सभी जानते थे कि जयपुर सम्मेलन में राहुल गांधी की पार्टी उपाध्यक्ष के रूप में नियुक्ति ही इसलिए की गई थी कि भविष्य में उनका राजतिलक किया जा सके। जब भाजपा ने नरेंद्र मोदी को पीएम पद का दावेदार घोषित किया था तब यह कहने की हिम्मत किसी कांग्रेसी में नहीं थी कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ राहुल गांधी को लाना ‘निर्बल से लड़ाई बलवान की ’ वाली बात साबित हो जाएगी। और तो और जैसी कि अब माँग उठने लगी हैराहुल की तुलना में प्रियंका को लाना शायद ज्यादा फलदायी हो सकता थायह बात कोई भी कांग्रेसी न तो समझ सका न 10जनपथ को समझा सका। समझाता भी कैसेजहाँ एक ओर मनु सिंघवी सरीखे बड़े वफादार जब यह स्थापित करने पर तुले थे कि “राहुल तो जन्मजात नेता हैं एक वरिष्ठ नेता तो राहुल जी को जीवन में एक बार पीएम के रूप में देखने के लिए ही जीवन जी रहे हैंवहीं कुछ लोग सोनिया को देश की माँ बताकर उनके एक इशारे पर झाड़ू तक लगाने के लिए तैयार बैठे थे। और तो और मासूमियत की हद तो तब हो गई थी जब पिछले दिनों लोकसभा में सोते हुए राहुल गांधी का ‘चिंतन’ करते हुए बताकर  बचाव किया गया था। 
     लोकसभा चुनावों की तरह विधानसभा के इन चुनावों में भी जहाँ नरेंद्रभाई एण्ड कं. अपनी सभा व मीडिया में स्थानीय सरकारों की नाकामियों को बड़ी शालीनता से उठाते रहे वहीं दोनों राज्यों में शासक दलों की स्थिति इतनी दयनीय थी कि वे अपनी छोटी-मोटी उपलब्धियों को भी जनता के जहन में नहीं उतार सके! गुजरात के 2002 एपिसोड का मुद्दा तो लोकसभा चुनाव में ही पिट चुका था। नरेंद्र मोदी को अमेरिका में बापू का नाम मोहनदास की जगह मोहनलाल बोल देने पर पानी पी पीकर कोसने वाले काँग्रेसी मित्रों को राहुल द्वारा पृथ्वीराज चौहान के विधानसभा भंग होने के कारण त्यागपत्र देने के बाद भी उन्हें सीएम बताने की बात पर यूँ चुप थे मानो उन्हें साँप सूँघ गया था।
    मोदी पर पुस्तकें आनाविदेशी अखबारों में उनके राज्य के विकास की प्रशंसा होना और तभी मनमोहनसिंह को कमजोर पीएम बताने वाली दो किताबें आना व अमेरिका के मेडिसन गार्डन में उनका भाषण अंतत: राहुल गांधी व नरेंद्र मोदी में वामन व विराट की इमेज बनाते चले  गए।
    महाराष्ट्र की जनता ने यह साबित कर दिया है कि देश में उग्रवादी तेवर दिखानाटोल नाकों पर उपद्रव करना व अन्य प्रांत से रोटी कमाने आए लोगों का तिरस्कार जैसे मुद्दों की काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ाई जा सकती। साथ ही महाराष्ट्र में मुस्लिम समाज ने काँग्रेस व एनसीपी के बजाय जो विश्वास भाजपा में दिखाया है उसे सिर्फ संपूर्ण समुदाय में सुरक्षा का भाव जागृत करके ही रिसिप्रोकेट किया जा सकेगा।                                         ***
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Sunday, 19 October 2014

          
              कच्ची व पक्की दीवार
                                 ओम वर्मा
                                  om.varma17@gmail.com
दीवारें दो तरह की होती हैं कच्ची दीवार और पक्की दीवार। साहित्यिक भाषा में एक मूर्त और एक अमूर्त! कच्ची दीवार यानी वह मूर्त दीवार जो ईंट गारे या अन्य बिल्डिंग मटेरियल की बनी होती है व सारी दुनिया को दिखाई देती है... जैसे कि ग्रेट वाल ऑफ चाइना’, या दोनों जर्मनियों के पुनर्मिलन से पूर्व पैंतालीस वर्षों तक तनी रही ऐतिहासिक बर्लिन वाल। चीन की 6000 किमी लंबी दीवार तो  चाँद से भी दिखाई देती है। बहरहाल दीवार चाँद से भले ही दिखे या न दिखे, दो देशों को बाँटे या न बाँटे, वह होती बड़ी ही कच्ची है। आखिर दीवार ही तो है कोई रेडक्लिफ लाइन नहीं कि हथौड़े, डायनामाइट या परमाणु बम से भी नहीं मिटाई जा सके। कई बार तो यूँ लगता है कि जैसे सारी दुनिया ही शीशे की है जहाँ कभी कोई सिरफिरा एक हवाई जहाज का अपहरण कर उसे टकरा दे तो ऊँची से ऊँची दीवार को ज़ीरो ग्राउंड में बदलने में पल भर न लगे। यानी मूर्त दीवारों को अच्छे या बुरे किसी भी प्रयोजन के लिए ध्वस्त किया जा सकता है। कहीं कोई दबंग  जमीन हथियाने के लिए  दीवारें जबरन भी खड़ी कर लेता है। घर पर पेटी बिस्तर तैयार रखकर नौकरी पर जाने वाला दबंग अफसर ऐसी दीवारों को एक झटके में जमींदोज़ भी कर सकता है।
   मगर जो अदृश्य व अमूर्त दीवारें होती हैं उनका लेखा जोखा या जवाब है किसी के पास? वो दीवार जिसे गुजरात और शेष भारत के बीच खड़ी करने की कोशिशें जारी हैं, वो दीवार जो कश्मीरियत और हिंदुस्तानियत के बीच या पूर्वोत्तर राज्यों के देशवासियों व शेष देशवासियों के बीच व हर अलगू चौधरी और जुम्मन शेख के बीच तामीर की जा रही है और रोज उस पर नई नई परतें चढ़ाई जा रही हैंवह दीवार जो एक नेता और वीज़ा के बीच में आड़े आ जाती है मगर उसके पीएम बनते ही एक झटके में ढह जाती है, या वह जो किसी लंगड़ को आज तक अदालत के फैसले की नकल लेने से रोक रही है...वह दीवार जो आज भी होरी को भूखा सोने या आत्महत्या करने पर विवश करती है... वह दीवार जो राँझे को हीर और मजनूँ को लैला से मिलने से आज भी रोके हुए है... वह कभी टूटेगी भी? और वह दीवार जिसके कि इस पार वाला उस पार वाले को सिर्फ पाँच साल में एक ही बार देख पाता है या वह जिसकी वजह से वंशवाद में सेंध लगाने के बारे में सोचना ही 1857 के विद्रोह के समान गदर मान लिया जाए, उस दीवार के लिए कोई बारूद या बुलडोजर अभी तक ईज़ाद क्यों नहीं हुआ? क्या मातृभूमि की रक्षा हेतु प्राण न्योछावर कर देने वाले शहीदों की शहादत की स्वर्णिम दीवार से उनकी मज़हबी पहचान की दीवार बड़ी हो सकती है? क्या टोपी और तिलक के बीच में दीवारें खड़ी की जाती रहेंगी? क्या हिंदी को संपूर्ण देश की राष्ट्रभाषा और संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनने में जो दीवार अवरोध बनकर खड़ी है उसे कोई ध्वस्त कर सकेगा? और लास्ट बट नॉट द लीस्ट कि अर्जुन को इक़बाल के साथ क्रिकेट खेलने से रोकने वाली या उनके बालमन में विषबेल सी खड़ी की जा रही दीवार को गिराने के लिए भी कोई महापुरुष कभी रथ यात्रा निकालेगा?  
   जाहिर है कि देश में दीवारें बहुत हैं। अगर इनमें से गलत दीवारों को गिराकर सही सही चुन ली जाएँ और उन पर सद्भाव की छतें ढाल दी जाएँ तो इतने मकान,  बल्कि घर बन जाएँ कि इंसानियत की छत्रछाया के बगैर कोई सिर न बचेगा!
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व्यंग्य       
       बाईस हजार हत्याओं के
        भविष्यवक्ता कहाँ हैं
? 
                                                ओम वर्मा
              
                                   
om.varma17@gmail.com
या तो वे कोई त्रिकालदर्शी हैं या अतींद्रिय शक्तियों के स्वामी! सच देखा जाए तो आज देश व समाज को उनके जैसे विचारक व स्वपनदृष्टा की जरूरत है। आज भले ही सामान हमारे पास सौ बरस का हो पर खबर पल भर की भी नहीं होती। ऐसे में सभी सर्वे व ओपिनियन पोल्स में आगे चल रहे या संवैधानिक प्रक्रिया से अपने प्रमुख प्रतिद्वंद्वी के निर्वाचित हो सकने की आशंका पर उन्होंने जो पूर्वानुमान, भविष्य कथन, चेतावनी या धमकी दी थी  उसे मैं अगर सदी की सबसे बड़ी भविष्यवाणी कहूँ तो शायद स्वर्ग पहुँच चुकी मानव कंप्युटर शकुंतलादेवी या बिना जान वाले, मेरा मतलब बेजान दारूवाला को भी कोई आपत्ति नहीं होगी। उन्होंने  भविष्यवाणी की थी कि अगर मतदाताओं ने उनके प्रतिद्वंद्वी को पीएम बनाया तो बाईस हजार लोगों की हत्या हो जाएगी। यानी  देश की जनता ने अपने इस पवित्र व सबसे बड़े लोकतांत्रिक अधिकार का उपयोग उनके अनुसार न करके बाईस हजार लोगों की जान को दाँव पर लगा दिया।
     एक राष्ट्रीय दल की अध्यक्ष का बेटा और उपाध्यक्ष जब इतनी बड़ी भविष्यवाणी करता है तो उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। मैं अपना ज्ञान बघारूँ या कथित विशेषज्ञों से बात करूँ इससे बेहतर मैंने यह समझा कि क्यों न हरयाणा व महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों के बाब अज्ञातवास पर जा चुके उक्त त्रिकालदर्शी नेताजी को खोजकर उनसे ही बात की जाए।
     “सर उनके पीएम बनने पर बाईस हजार लोगों की हत्या की बात आपने किस आधार पर कही थी?”
     “हम कोई भी बात हवा में नहीं करते। राजनीति के हमारे अनुभव हमारे कार्यकर्ताओं की रिपोर्ट, हमारे बहुत सारे सीनियर लीडर्स के निष्कर्ष और अपने लेपटॉप में दर्ज़ आँकड़ों के आधार पर मैंने यह बात कही थी।”
     “मैं नहीं समझ पा रहा हूँ, थोड़ा स्पष्ट करें।”
     “हमारे एक वरिष्ठ साथी ने हमें बताया था कि बारह वर्ष पहले उनके राज्य में दंगों में 1300 लोग मारे गए थे। अब आप खुद जोड़ के देख लो कि पूरे देश का क्षेत्रफल गुजरात के क्षेत्रफल का सत्रह गुना है। तेरह सौ इन टु(गुणित) सत्रह = बाईस हजार एक सौ। मैंने सौ कम करके बाईस हजार बताया तो क्या बुरा किया? रेशो प्रपोर्शन का बड़ा ही सिंपल सा गणित! एक और गणित देखें। किसी ने दंगों में मरने वालों की संख्या ग्यारह सौ बताई। आप उसको पॉपुलेशन से को-रिलेट  करके देख लें। देश की पॉपुलेशन, गुजरात की पॉपुलेशन से बीस गुना ज्यादा है। अब ग्यारह सौ में बीस का गुणा करके देख लो। वही बाईस हजार फिर आ जाएगा।” आँकड़ेबाजी में वे मुझे योगेन्द्र यादव व योजना आयोग वालों से भी भारी नज़र आ रहे थे।
     “अगर लोग आपकी बात न मानें तो आप क्या करेंगे?”
     “देखिए जैसे हम गुजरात में पिछले बारह वर्षों से उनका विरोध करते आए हैं, अगले पाँच वर्ष तक इन बाईस हजार हत्याओं के लिए भी करेंगे और इस भारी मुद्दे के आधार पर अगले चुनाव में हम उनका नमो नमो का नारा रागा रागा में बदल देंगे।” 
   लोकसभा, फिर हरयाणा व महाराष्ट्र के विधानसभा परिणाम, विकास के मुद्दे और अदालतों की क्लीन चिटें, मुझे कोने में सिसकते नज़र आने  लगे। तभी बाहर जनसमूह का शोर सुनाई दिया –
      “प्रियंका लाओ-देश बचाओ!”

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Friday, 3 October 2014


व्यंग्य (नईदुनिया, 03.10.2014)
          अधिकारी और साहित्य
              (समस्त हिंदी अधिकारियों से क्षमा याचना सहित)
                  ओम वर्मा         
                                  
om.varma17@gmail.com
जिस तरह खादी भण्डार में नौकरी कर लेने भर से कोई गांधी नहीं हो जातागर्मियों में गन्ने के रस का ठेला लगा कर उस पर ‘फलां मधुशाला’ लिखा बोर्ड व अमिताभ बच्चन का फोटू लगा लेने भर से कोई ‘हालावादी’ नहीं हो जाताअचकन में सुर्ख गुलाब  लगा लेने भर से कोई नेहरू नहीं हो जातामरियल घोड़े जुते ताँगे में बैठकर ‘टेसन’ तक जाने से कोई पार्टी का पितृपुरुष या ‘रथयात्री’ नहीं हो जातालिंग परीक्षण करवाकर कन्या भ्रूण के खात्मे के बाद नवरात्र में आठ दस कन्याओं को भोज करा देने से कोई नारी उद्धारक नहीं हो जातारुई धुनने वाला हर जुलाहा कबीरदास नहीं हो जाताजीवनसंगिनी से उसके आत्मिक सौंदर्य से कहीं ज्यादा दैहिक सौंदर्य को महत्व देने के कारण प्रताड़ना पाने वाला हर शख्स तुलसीदास नहीं हो जाताजूते गाँठने वाला हर चर्म शिल्पी प्रभु को चंदन मान स्वयं को पानी के रूप में प्रस्तुत कर चुका रैदास नहीं हो जाता और आगे की लटें सफ़ेद कर लेने भर से कोई लालबहादुर शास्त्री नहीं हो जाताउसी तरह किसी सरकारी कार्यालय या उपक्रम में हिंदी अधिकारी हो जाने भर से कोई हिंदी का कवि या लेखक नहीं हो जाता ...!," कहते कहते वे हाँफने लग गए थे। 

   वे शहर के नामी गिरामी साहित्यकार व समीक्षक हैं। उनके सामने एक काव्य संकलन व दो व्यंग्य संकलन समीक्षार्थ रखे हैं। तीनों के रचनाकार वे हिंदी अधिकारी हैं जो अपने कार्यालयों के हिंदी पखवाड़ों में उन्हें वर्षों से पत्रं-पुष्पं देकर बुलवाते रहे हैं। 'काव्य संकलनबेहतरीन आवरण-चित्रचिकने पन्नों और सर्जक के फोटो के कारण 'दर्शनीयअवश्य है पर पठनीय कतई नहीं। कविता का शरीर तो हर कहीं थाआत्मा कहीं नहीं थी। कविताएँ पढ़कर उन्हें आंग्ल महाकवि वर्ड्सवर्थ का कविता के जन्म को लेकर व्यक्त विचार कि "कविता शक्तिशाली भावनाओं का सहज अतिप्रवाह है: इसकी उत्पत्ति ट्रेंक्व्लिटी (tranquility) में रिकलेक्ट (recollected) हुए इमोशन से होती है", दम तोड़ता नज़र आ रहा था। यही हाल 'व्यंग्यकार हिंदी अधिकारीके सपाटबयानी वाले व्यंग्यों के संकलन के भी थे।
   दरअसल सरकारी कागजों के हिंदी अनुवाद व स्टॉफ को हिंदी का कार्यसाधक ज्ञान देने लिए कार्यशालाओं का आयोजन करते करते और हिंदी स्लोगन के पोस्टर लगवाते लगवाते या कहें कि हिंदी की रोटी खाते खाते कुछ (सब नहीं) हिंदी सेवियों को अकस्मात यह इल्हाम हो जाता है कि वे साहित्यकार हैं या उन्हें यह अपराध बोध कचोटने लगता है कि हिंदी की सेवा तो बहुत कर ली, अब तक साहित्य सेवा क्यों नहीं कीकार्यालयीन लायब्रेरी की धूल झाड़ते झाड़ते उन्हें अकस्मात यह अपराध बोध भी सताने लगता है कि साहित्य सेवा न करने से उनका जन्म कहीं अकारथ न चला जाए! लिहाजा अच्छा खासा इंसान फाइलों में हिंदी और अँगरेजी में लिखे पत्र और टिप्पणियों के आँकड़े भरते भरते कुछ ऐसा भाव विह्वल हो जाता है कि ‘कविता’ करने या वह जो लिखता है उसे कविता की संज्ञा देने लग जाता है। कुछ तीन चार सौ शब्दों वाले त्वरित टिप्पणीनुमा आलेख जो कुछ टुटपुंजिया अखबारों के व्यंग्य(?) कॉलम में छप भी जाते हैं उन्हें पुस्तकाकार देकरतड़क भड़क वाला विमोचन समारोह करवा कर खुद के लिए 'प्रतिष्ठितया 'वरिष्ठव्यंग्यकार लिखवाना प्रारंभ कर देता है। प्रकारांतर में वह हिंदी पखवाड़े के अवसर पर अपने संग्रह को खपाने की कला भी सीख  जाता है! कवि अधिकारी का बस चले तो वह सुमित्रानंदन पंत को स्वर्ग में जाकर ज्ञापन दे आए और उनकी कविता “वियोगी होगा पहला कविआह से उपजा होगा गान... निकलकर आँखों से चुपचापबही होगी कविता अनजान..“ को बदलकर यह कहने पर विवश कर दे कि “हिन्दी अधिकारी होगा पहला कविवाह से उपजा होगा ज्ञान।पंत जो मानते थे कि "कविता विचारों या तथ्यों से नहीं बल्कि अनुभूति से होती है"उन्हें इस संकलन को पढ़कर मानना पढ़ जाए कि अब कविता की दशा और दिशा हिंदी साहित्यकार नहीं, हिंदी अधिकारी तय करेगा। उधर स्वर्ग में शरदपरसाई व रवींद्रनाथ त्यागी की आत्मा को यही सोचकर शांति मिल रही होगी कि हमारे बाद व्यंग्य की फसल सूखी नहीं हैआज का संख्यात्मक रुझान कल के गुणात्मक अभियान में अवश्य परिणत होगा। 
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