व्यंग्य (नईदुनिया,29.10.14)
समर्थन की वरमाला !
ओम वर्मा
om.varma17@gmail.com
जैसे सोने का मिलना भी अशुभ और खोना भी अशुभ, जैसे पुलिसवालों से न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी अच्छी, जैसे अल्पवृष्टि भी त्रासदी और अतिवृष्टि भी कयामत, वैसे ही राजनीति में समर्थन लेना भी अशुभ और न लेना भी अशुभ होता है। यह समझना मुश्किल है कि समर्थन न लेना ज्यादा अशुभ है या लेना। समर्थन न लेना यानी आसमान से नीचे गिरना और ले लेना(चाहे बाहर से ही सही) यानी खजूर पर पूरे पाँच साल तक अटके रहना! न जाने कब समर्थक ‘अत्ता माझी सटकली’ की दहाड़ लगाता हुआ आए और खजूर हिलाकर नीचे टपका दे!
वैसे देखा जाए तो समर्थन का इतिहास
सदियों पुराना है। त्रेतायुग में .विभीषण ने अपने ज्येष्ठ
भ्राताश्री के बजाय प्रभु श्रीराम को समर्थन दिया पर उनका वह कृत्य था सत्य की
रक्षा के लिए। द्वापर के महाभारत काल में अर्जुन और दुर्योधन भगवान श्रीकृष्ण से
समर्थन लेने पहुँचे थे। यहाँ समर्थन की डील को दो फेक्टर्स ने प्रभावित किया : एक
तो टाइमिंग और दूसरा उनकी लोकेशन। अर्जुन निद्रालीन प्रभु के चरणों के पास खड़े थे
जबकि दुर्योधन सिर के पास। अर्जुन को मिला सारथी और दुर्योधन ने पाई नारायणी सेना।
एक ने पाई ‘क्वालिटी’ तो
दूजे ने ’क्वांटिटी’। संदेश साफ
था कि याचक बनकर ही सशक्त व स्थाई समर्थन
लिया जा सकता है। यही नहीं कृष्ण ने समर्थन देते समय यह शर्त भी रखी कि वे शस्त्र
नहीं उठाएँगे, सिर्फ
सारथी की भूमिका में रहेंगे यानी समर्थन अहिंसात्मक होगा।
अब समर्थन के मायने, तौर तरीके और समर्थन लेने
व देने वाले दोनों पूरी तरह से बदल गए हैं। समर्थन लेने वाला माँगे या न माँगे, देने वाला शोले के गब्बर की तरह अपनी शर्तें पहले रखने लगता है। जब तक
बसंती नाचती रहेगी, वीरू की साँसें चलेंगी। मुट्ठी भर
विधायकों/सांसदों के दम पर समर्थक सारे मलाईदार विभाग अपने पास चाहता है। चूहे
मात्र कुछ चिंदियों के बदले कपड़े की पूरी दुकान के लिए अड़ जाते हैं। समर्थन देकर
कोई बहिनजी सिर्फ अपनी ‘माया’ के विस्तार में लग जाती हैं तो कोई दीदी
समर्थन देकर भी अवसर पाते ही समर्थित व समर्थक के बीच की ‘ममता’ का सेतु तोड़ने में तनिक देर नहीं करतीं।
और ‘अम्मा’ के पास तो समर्थन लेने के
लिए दिल्ली वालों को इस तरह जाना पड़ा था मानो जलालुद्दीन अकबर पुत्र की कामना के
लिए नंगे पैर सूफी संत सलीम चिश्ती की ख़ानक़ाह पर जा रहे हों।
मगर कभी कभी पांसे उलटे भी पड़ जाते है। जैसे पाँच वर्ष पूर्व दिल्ली में
हुआ व इस बार मुंबई में होता नजर आया। दिल्ली में यूपी के हमारे एक मित्र जनपथ की
सड़कों पर ‘समर्थन ले लो SSS समर्थन’ की हाँक लगा-लगाकर दिन भर घूमते रहे, मगर किसी ने उन्हें घास तो दूर, तिनका तक नहीं
डाला था। ऐसी ही हाँक इन दिनों मुंबई में दो फेरी वाले सिर पर टोकरी रख कर लगाते
नजर आए। एक की टोकरी में ढेर सारी घड़ियाँ थीं तो दूसरे की टोकरी में तीर-कमान। सभी
पर ‘समर्थन हाजिर है’ लिखे स्टिकर लगे
थे। लेकिन घड़ी वाले की सारी घड़ियाँ या तो बंद पड़ी हुई थीं या उनमें बारह बज रही
थी। वहीं तीर-कमानों की प्रत्यंचाएँ उतरी हुई थीं व तीर भोथरा गए थे।
राजनीति का रंगमंच धीरे धीरे स्वयंवर में तब्दील होने लगा है। विवाह योग्य
सुंदर राजकुमार सिर्फ एक होता है जिसका वरण करने के लिए कल तक सत्ताई सौंदर्य के
मद में चूर पड़ी राजकुमारियाँ समर्थन की वरमाला लेकर पीछे पीछे दौड़ने लगती हैं।
दिल्ली में हुए स्वयंवर में भी ऐसी ही थुक्का-फजीहत हुई थी जो लोगों की स्मृति से
अभी मिटी भी नहीं थी कि अब एक नया एपिसोड सामने आ गया है। यह समर्थन की वरमाला का
ही पुण्य-प्रताप है की हमेशा ‘लट्ठ भारती’ की बात कर दूसरों की धड़कनों को नियंत्रित करने वाले सीधे ‘विविध भारती’ की तरह देश की सुरीली धड़कन बनने
का क्षुद्र प्रयास करते नजर आने लगे हैं।
और सबसे खतरनाक समर्थन तो वह होता है, जो बाहर से
दिया जाता है, जिसकी महत्ता ‘बहिर्मन’ के हथकंडे से ही प्रमाणित होती है। ऐसा समर्थन लेना तो मानो सबसे अशुभ
होता है।
***
--------------------------------------------------------------------
--------------------------------------------------------------------
100, रामनगर, एक्सटेंशन, देवास 455001(म.प्र.)