व्यंग्य (नईदुनिया, 03.10.2014)
“जिस तरह खादी भण्डार में नौकरी कर लेने भर से कोई
गांधी नहीं
हो जाता; गर्मियों में गन्ने के रस का ठेला लगा कर उस
पर ‘फलां मधुशाला’ लिखा
बोर्ड व अमिताभ बच्चन का फोटू लगा लेने भर से कोई ‘हालावादी’ नहीं हो जाता; अचकन में सुर्ख गुलाब लगा लेने भर से कोई नेहरू नहीं हो जाता; मरियल
घोड़े जुते ताँगे में बैठकर ‘टेसन’ तक जाने से कोई पार्टी का पितृपुरुष या ‘रथयात्री’ नहीं हो जाता; लिंग परीक्षण करवाकर कन्या भ्रूण
के खात्मे के बाद नवरात्र में आठ दस कन्याओं को भोज करा देने से कोई नारी उद्धारक
नहीं हो जाता; रुई धुनने वाला हर जुलाहा कबीरदास नहीं हो जाता; जीवनसंगिनी से उसके आत्मिक
सौंदर्य से कहीं ज्यादा दैहिक सौंदर्य को महत्व देने के कारण प्रताड़ना पाने वाला
हर शख्स तुलसीदास नहीं हो जाता; जूते गाँठने वाला हर चर्म शिल्पी प्रभु को चंदन मान स्वयं को पानी के रूप
में प्रस्तुत कर चुका रैदास नहीं हो जाता और आगे की लटें सफ़ेद कर लेने भर से कोई लालबहादुर शास्त्री नहीं हो जाता; उसी तरह किसी सरकारी कार्यालय या उपक्रम में हिंदी अधिकारी हो जाने भर से
कोई हिंदी का कवि या लेखक नहीं हो जाता ...!," कहते
कहते वे हाँफने लग गए थे।
वे शहर के नामी गिरामी साहित्यकार व समीक्षक हैं। उनके सामने एक काव्य संकलन व दो व्यंग्य संकलन समीक्षार्थ रखे हैं। तीनों के रचनाकार वे हिंदी अधिकारी हैं जो अपने कार्यालयों के हिंदी पखवाड़ों में उन्हें वर्षों से पत्रं-पुष्पं देकर बुलवाते रहे हैं। 'काव्य संकलन' बेहतरीन आवरण-चित्र, चिकने पन्नों और सर्जक के फोटो के कारण 'दर्शनीय' अवश्य है पर पठनीय कतई नहीं। कविता का शरीर तो हर कहीं था, आत्मा कहीं नहीं थी। कविताएँ पढ़कर उन्हें आंग्ल महाकवि वर्ड्सवर्थ का कविता के जन्म को लेकर व्यक्त विचार कि "कविता शक्तिशाली भावनाओं का सहज अतिप्रवाह है: इसकी उत्पत्ति ट्रेंक्व्लिटी (tranquility) में रिकलेक्ट (recollected) हुए इमोशन से होती है", दम तोड़ता नज़र आ रहा था। यही हाल 'व्यंग्यकार हिंदी अधिकारी' के सपाटबयानी वाले व्यंग्यों के संकलन के भी थे।
दरअसल सरकारी कागजों के हिंदी
अनुवाद व स्टॉफ को हिंदी का कार्यसाधक ज्ञान देने लिए कार्यशालाओं का आयोजन करते
करते और हिंदी स्लोगन के पोस्टर लगवाते लगवाते या कहें कि हिंदी की रोटी खाते खाते कुछ (सब नहीं) हिंदी सेवियों को
अकस्मात यह इल्हाम हो जाता है कि वे साहित्यकार हैं या उन्हें यह अपराध बोध कचोटने
लगता है कि हिंदी की सेवा तो बहुत कर ली, अब तक साहित्य सेवा
क्यों नहीं की? कार्यालयीन लायब्रेरी की धूल झाड़ते
झाड़ते उन्हें अकस्मात यह अपराध बोध भी सताने लगता है कि साहित्य सेवा न करने से
उनका जन्म कहीं अकारथ न चला जाए! लिहाजा अच्छा खासा इंसान फाइलों में हिंदी और
अँगरेजी में लिखे पत्र और टिप्पणियों के आँकड़े भरते भरते कुछ ऐसा भाव विह्वल हो
जाता है कि ‘कविता’ करने या
वह जो लिखता है उसे कविता की संज्ञा देने लग जाता है। कुछ तीन चार सौ शब्दों वाले
त्वरित टिप्पणीनुमा आलेख जो कुछ टुटपुंजिया अखबारों के व्यंग्य(?) कॉलम में छप भी जाते हैं उन्हें पुस्तकाकार देकर, तड़क भड़क वाला विमोचन समारोह करवा कर खुद के लिए 'प्रतिष्ठित' या 'वरिष्ठ' व्यंग्यकार लिखवाना प्रारंभ कर देता है। प्रकारांतर में वह हिंदी पखवाड़े
के अवसर पर अपने संग्रह को खपाने की कला भी सीख जाता
है! कवि अधिकारी का बस चले तो वह सुमित्रानंदन पंत को स्वर्ग में जाकर ज्ञापन दे
आए और उनकी कविता “वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान... निकलकर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान..“ को बदलकर यह कहने पर विवश कर दे कि “हिन्दी
अधिकारी होगा पहला कवि, वाह से उपजा होगा ज्ञान।" पंत जो मानते थे कि "कविता विचारों या
तथ्यों से नहीं बल्कि अनुभूति से होती है", उन्हें
इस संकलन को पढ़कर मानना पढ़ जाए कि अब कविता की दशा और दिशा हिंदी साहित्यकार नहीं, हिंदी अधिकारी तय करेगा। उधर स्वर्ग में शरद, परसाई
व रवींद्रनाथ त्यागी की आत्मा को यही सोचकर शांति मिल रही होगी कि हमारे बाद
व्यंग्य की फसल सूखी नहीं है, आज का संख्यात्मक रुझान
कल के गुणात्मक अभियान में अवश्य परिणत होगा।
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100,रामनगर
एक्स्टेंशन, देवास 455001(म.प्र.)
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