Sunday 19 October 2014

          
              कच्ची व पक्की दीवार
                                 ओम वर्मा
                                  om.varma17@gmail.com
दीवारें दो तरह की होती हैं कच्ची दीवार और पक्की दीवार। साहित्यिक भाषा में एक मूर्त और एक अमूर्त! कच्ची दीवार यानी वह मूर्त दीवार जो ईंट गारे या अन्य बिल्डिंग मटेरियल की बनी होती है व सारी दुनिया को दिखाई देती है... जैसे कि ग्रेट वाल ऑफ चाइना’, या दोनों जर्मनियों के पुनर्मिलन से पूर्व पैंतालीस वर्षों तक तनी रही ऐतिहासिक बर्लिन वाल। चीन की 6000 किमी लंबी दीवार तो  चाँद से भी दिखाई देती है। बहरहाल दीवार चाँद से भले ही दिखे या न दिखे, दो देशों को बाँटे या न बाँटे, वह होती बड़ी ही कच्ची है। आखिर दीवार ही तो है कोई रेडक्लिफ लाइन नहीं कि हथौड़े, डायनामाइट या परमाणु बम से भी नहीं मिटाई जा सके। कई बार तो यूँ लगता है कि जैसे सारी दुनिया ही शीशे की है जहाँ कभी कोई सिरफिरा एक हवाई जहाज का अपहरण कर उसे टकरा दे तो ऊँची से ऊँची दीवार को ज़ीरो ग्राउंड में बदलने में पल भर न लगे। यानी मूर्त दीवारों को अच्छे या बुरे किसी भी प्रयोजन के लिए ध्वस्त किया जा सकता है। कहीं कोई दबंग  जमीन हथियाने के लिए  दीवारें जबरन भी खड़ी कर लेता है। घर पर पेटी बिस्तर तैयार रखकर नौकरी पर जाने वाला दबंग अफसर ऐसी दीवारों को एक झटके में जमींदोज़ भी कर सकता है।
   मगर जो अदृश्य व अमूर्त दीवारें होती हैं उनका लेखा जोखा या जवाब है किसी के पास? वो दीवार जिसे गुजरात और शेष भारत के बीच खड़ी करने की कोशिशें जारी हैं, वो दीवार जो कश्मीरियत और हिंदुस्तानियत के बीच या पूर्वोत्तर राज्यों के देशवासियों व शेष देशवासियों के बीच व हर अलगू चौधरी और जुम्मन शेख के बीच तामीर की जा रही है और रोज उस पर नई नई परतें चढ़ाई जा रही हैंवह दीवार जो एक नेता और वीज़ा के बीच में आड़े आ जाती है मगर उसके पीएम बनते ही एक झटके में ढह जाती है, या वह जो किसी लंगड़ को आज तक अदालत के फैसले की नकल लेने से रोक रही है...वह दीवार जो आज भी होरी को भूखा सोने या आत्महत्या करने पर विवश करती है... वह दीवार जो राँझे को हीर और मजनूँ को लैला से मिलने से आज भी रोके हुए है... वह कभी टूटेगी भी? और वह दीवार जिसके कि इस पार वाला उस पार वाले को सिर्फ पाँच साल में एक ही बार देख पाता है या वह जिसकी वजह से वंशवाद में सेंध लगाने के बारे में सोचना ही 1857 के विद्रोह के समान गदर मान लिया जाए, उस दीवार के लिए कोई बारूद या बुलडोजर अभी तक ईज़ाद क्यों नहीं हुआ? क्या मातृभूमि की रक्षा हेतु प्राण न्योछावर कर देने वाले शहीदों की शहादत की स्वर्णिम दीवार से उनकी मज़हबी पहचान की दीवार बड़ी हो सकती है? क्या टोपी और तिलक के बीच में दीवारें खड़ी की जाती रहेंगी? क्या हिंदी को संपूर्ण देश की राष्ट्रभाषा और संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनने में जो दीवार अवरोध बनकर खड़ी है उसे कोई ध्वस्त कर सकेगा? और लास्ट बट नॉट द लीस्ट कि अर्जुन को इक़बाल के साथ क्रिकेट खेलने से रोकने वाली या उनके बालमन में विषबेल सी खड़ी की जा रही दीवार को गिराने के लिए भी कोई महापुरुष कभी रथ यात्रा निकालेगा?  
   जाहिर है कि देश में दीवारें बहुत हैं। अगर इनमें से गलत दीवारों को गिराकर सही सही चुन ली जाएँ और उन पर सद्भाव की छतें ढाल दी जाएँ तो इतने मकान,  बल्कि घर बन जाएँ कि इंसानियत की छत्रछाया के बगैर कोई सिर न बचेगा!
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100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001(म.प्र.)

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