Wednesday, 29 April 2015
Tuesday, 28 April 2015
Monday, 27 April 2015
Friday, 24 April 2015
उनका छुट्टी से आना
व्यंग्य
उनका छुट्टी से आना!
ओम वर्मा
शायद वे देश के पहले राजनेता हैं जिनका दृश्यपटल पर न होना उनके होने से ज्यादा चर्चा में रहा। जब वे ‘सक्रिय’ थे तो पार्टी के वरिष्ठजनों का भी अवलंबन थे। वे नहीं थे तो सोशल मीडिया के सारे चुटकुलेबाज भी परेशान थे क्योंकि अब तो उन्हें आलिया भट्ट भी कोई मौका नहीं देती।
किसी वीआईपी को जब मुख्य परिदृश्य से दूर करना होता है तो उसके लिए ‘लंबी छुट्टी पर भेजने’ जैसी सम्मानजनक सूक्ति इस्तेमाल की जाती है जबकि छोटे मोटे के लिए‘निलंबन’। गैर कांग्रेसियों को उनका लंबी छुट्टी पर जाना शायद पार्टी हित में उठाया गया ऐसा ही कोई ‘सम्मानजनक’ कदम लगा होगा। लेकिन एक वरिष्ठ पार्टीजन के अनुसार वे ‘चिंतन-मनन’ के लिए एकांतवास पर गए थे। चिंतन तो उनका पुराना पेशन (Passion) है जिसे वे संसद में बीच सत्र में आँखें बंद कर भी कर लिया करते थे। मगर उनके इस चिंतन प्रवास से पार्टी को और कुछ हासिल हो न हो ‘चिंता’ जरूर हासिल हो गई थी। कहाँ तो पार्टी के कई वरिष्ठजन अध्यक्ष के रूप में उनका राजतिलक देखना चाहते थे और कहाँ वे कृष्ण की तरह ब्रज में गोपियों को रोता बिलखता छोड़ चले गए! जयपुर अधिवेशन में उनकी ताजपोशी के समय माते ने जहर के नाम से डरा तो दिया था मगर कान में यह मंत्र नहीं फूँका कि तैरना सीखने के लिए पानी में उतरना ही पड़ता है, जमीन पर चिंतन करने से कोई तैरना नहीं सीख सकता। कुछ पार्टीजनों की इच्छा थी कि शायद वे अवकाश पर जाने के बजाय हनुमान जी की तरह संकल्प लें कि कांग्रेस को सत्ता में लौटाए बिना ‘मोहि कहाँ बिश्राम!’, मगर उनकी आवाज बैंड-बाजे के शोर में दुल्हन की सिसकियों की तरह दब कर रह गईं।
बहरहाल हाशिए पर सिमटकर आईसीयू में दाखिल कांग्रेस का इस समय लोकतंत्र की रक्षा के लिए एक मजबूत पार्टी के रूप में पुनर्जीवित होना बेहद जरूरी है। शायद उन्हें अपने दल की ऐसी स्थिति देखकर सियासत से कुछ कुछ वैसी ही विरक्ति हो गई थी जैसी कभी राजकुमार सिद्धार्थ को एक रोगी, एक जईफ(अति वृद्ध व्यक्ति) और एक शवयात्रा देखकर राजपाट से हुई थी। उस विरक्ति ने तो सिद्धार्थ को ‘बुद्ध’ बना दिया मगर चौथा स्तंभ यह जानने को बेकरार है कि क्या ये भी किसी ‘बोधि वृक्ष’ जैसी शरणस्थली में चिंतन- मनन करके लौटे हैं या अपने पसंदीदा खेल ‘पेराग्लाइडिंग’ का आनंद ले रहे थे। क्या उनकी क्षुधा भी किसी ‘सुजाता’ ने शांत की है?
मेंढक जैसे कुछ शीत रुधिर(cold blooded) वाले जीव बिलों में छुपकर कुछ समय के लिए एक निष्क्रिय जीवन(हायबरनेशन) बिताते हैं। ऐसे ही कुछ पक्षी लंबी दूरियों के लिए माइग्रेट कर जाते हैं। हालाँकि हायबरनेशन और माइग्रेशन से लौटकर दोनों तरह के जीव एक नई ऊर्जा से भर जाते हैं। क्या हमारे युवराज का लौटना भी उनके व कांग्रेस के लिए ऐसा ही कायाकल्प करने वाला साबित होगा? या हो सकता है कि जैसे सुभाष बाबू के विलुप्त होने के अनसुलझे रहस्य पर कुछ कुछ अंतराल से कोई न कोई नई कहानी पेश कर दी जाती है और गरमागरम बहस होने लगती हैं, या जिस तरह हेमलेट नाटक के राजकुमार हेमलेट के‘पागलपन’ को लेकर समालोचकों में आज भी बहस होती रहती है कुछ वैसे ही अगले कई वर्षों तक देश में जेरे-बहस यह मुद्दा बना रहेगा और किताबें लिखी जाती रहेंगी कि हमारे युवराज अज्ञातवास पर कहाँ और क्यों गए थे, या उनका अवकाश पर जाना सचमुच चिंतन था या महज देशाटन था। और लाख टके का सवाल यह कि यदि चिंतन था तो उस चिंतन-मनन के मंथन से जो नवनीत उपजा है उससे क्या सचमुच उनका, पार्टी का या देश का कुछ भला हो सकेगा?
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Wednesday, 22 April 2015
मेरा कुछ सामान रह गया है...!
मेरा कुछ सामान रह गया है...!
सन 1971 में आई जेमिनी की फिल्म ‘लाखों में एक’। नायक है भोला यानी मेहमूद जो अनाथ, भोला भाला, अल्प शिक्षित व बेरोजगार है। एक चाल में सीढ़ियों के नीचे उसका आवास। भोला चाल के सभी परिवारों के घरेलू कामकाज निपटाता है और बदले में सब दया करके उसे भोजन दे देते हैं। चाल में रहने वाली लड़की गौरी जो भोला से प्यार करती है उससे रहमो-करम पर चल रही भोला की जीवन दशा देखी नहीं जाती। तभी एक दिन सिंगापुर से एक करोड़पति व्यक्ति अपने पुत्र भोला को खोजता हुआ आता है। जैसे ही चाल वालों को मालूम पड़ता है कि भोला रोड़पति से करोड़पति बनने वाला है और उनमें से प्रत्येक को एक-एक लाख रु. मिलने वाले हैं, सभी का भोला के प्रति व्यवहार बदल जाता है। उससे कोई काम नहीं करवाता, कोई उसे पौष्टिक पेय, कोई अलार्म घड़ी, कोई टेबुल लैंप, कोई सूटकेस और कोई टेबुल फैन लाकर भेंट कर देता है। बाद में जैसे ही सभी को यह मालूम पड़ता है कि यह गौरी का चाल में ही रहने वाले ट्रक ड्राइवर शेरसिंह यानी प्राण के साथ मिलकर बनाया गया प्लान था जिसके तहत प्राण का क्लीनर जग्गा सूट बूट पहनकर मेहमूद का नकली करोड़पति बाप बनकर आया था और सबको लखपति बनने का ख्वाब दिखाकर चला गया था।
भोला के फिर से “जैसे थे” की स्थिति में पहुँचते ही सबकी नजरें फिर बदल जाती है। सब अपने द्वारा दी गई गिफ़्टें अपने अपने तर्क देकर वापस उठा ले जाते हैं। भोला ‘पुनः मूषको भवः’ वाली स्थिति में लौट आता है।
यही हाल आज ‘आप’ और अरविंद केजरीवाल का है। पार्टी बनी तो कुछ लोगों को उनमें जादूगर मैंड्रेक नजर आने लगा जिसके छड़ी घुमाते ही दिल्ली में रामराज्य आ जाएगा,दिल्ली वाले पड़ौसी राज्यों को बिजली और पानी देना शुरू कर देंगे। लिहाजा किसी ने एक करोड़ रु. चंदा दिया तो किसी ने कार दी। किसी ने पार्टी का लोगो बनाकर दिया और कइयों ने पार्टी का काम करने के लिए टीवी चैनल से लेकर आईटी सेक्टर की अपनी बड़ी बड़ी नौकरियाँ छोड़ दीं। मगर जो केजरीवाल कल अथाह जनता के बीच में “इंसान से इंसान का हो भाईचारा, यही पैगाम हमारा” गाकर सबको कोरस में गाने पर प्रेरित कर देते थे, वे आज अकेले ‘बिछड़े सभी बारी बारी...” गाने को मजबूर हैं। फिल्म में भोला से वापस ले ली गई गिफ़्टों की तरह केजरीवाल से भी वसूली अभियान शुरू हो गया है। कार माँगी जा चुकी है,बौद्धिक अधिकार संपदा कानून के तहत पार्टी का ‘लोगो’ वापस माँगा जा रहा है। सुना है कि जिन्होंने झाड़ू भेंट कर कई गोदाम भर दिए थे वे अपनी झाड़ू, जिन्होंने दस-दस, बीस –बीस हजार देकर डिनर किया था वे भोजन के तात्कालिक मूल्यानुसार पैसे काटकर बाकी पैसे माँगने के लिए उपभोक्ता फोरम या चुनाव आयोग का दरवाजा खटखटाने का सोच रहे हैं।
वैसे आज के युग में भेंट लेना व देना दोनों खतरे से खाली नहीं है। मोदी सर को भेंट में मिला कोट उन्हें दिल्ली चुनाव में ताश के चौकड़ी वाला कोट (एक हाथ भी न बनने पर पराजित के लिए कहा जाने वाला फ्रेज) साबित हुआ। वैसे ‘भेंट’ या ‘दान’ में दी गई वस्तु के बारे में जहाँ तक खाकसार को ज्ञान है, उसे वापस नहीं माँगा जा सकता या कहें कि नहीं माँगा जाना चाहिए। यहाँ कोई ‘राइट टु रिकाल’ लागू नहीं होता। लेकिन जहाँ आस्थाएँ भंग होने लगती हैं नई परंपराओं का जन्म भी वहीं होता है क्योंकि न तो आज दान लेने वालों में कोई महाराणा प्रताप है और न ही देने वालों में कोई भामाशाह! लोग ‘आप’ के दरवाजे पर खड़े हैं और पुकार रहे हैं, “मेरा कुछ सामान रह गया है...लौटा दो ना...!
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विचार
कमजोर कौन, राहुल गांधी या कांग्रेस?
कमजोर कौन, राहुल गांधी या कांग्रेस?
ओम वर्मा
पहले सोलहवीं लोकसभा
चुनाव व बाद में हरयाणा व
महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों के बाद से कांग्रेस अभी आईसीयू से बाहर निकली भी न थी कि दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणामों ने उसे
एक बार फिर वहीं पहुँचा दिया। हर बार की तरह फिर ‘प्रियंका लाओ’ के आठ – दस पोस्टर बाहर निकले जो हमेशा की तरह फिर संदूकों में समा गए।
जब भाजपा ने
नरेंद्र मोदी को पीएम पद का दावेदार घोषित किया था तब यह बात कोई भी कांग्रेसी न तो समझ सका था न 10, जनपथ को समझा सका कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ राहुल गांधी को उतारना
शेर के आगे सिर्फ बंदूक का लायसंस दिखाने वाली बात होगी। तभी राहुल की तुलना में
प्रियंका को लाना शायद ज्यादा फलदायी हो सकता था। लेकिन यह भी एक तरह से वंशवाद की
बेल को सींचना ही होता। कांग्रेस की दौड़ कहाँ तक? एक
गांधी से दूसरे गांधी तक! यदा-कदा कोई पार्टीमेन काँग्रेस को गांधी परिवार
के आभा मण्डल से दूर ले जाने के उपक्रम में आवाज उठा दे या कोई विरोध पत्र लिखे तो
उसे या तो ‘लेटर बम’ करार दे दिया जाता है या जयंती नटराजन बना दिया जाता है। संवैधानिक ढंग से
निर्वाचित वर्तमान प्रधानमंत्री की कार्यशैली या किसी अन्य गुण की कोई कांग्रेसी
अगर प्रशंसा कर भी बैठे तो या तो उसकी आवाज बैंड-बाजा-बरात के शोर में दुल्हन की
सिसकियों की तरह दब कर रह जाती है या उसे बगावत मान कर नोटिस थमा दिया जाता है।
आज इस पर विचार करना चाहिए
कि जिस देश की आबादी में 65 प्रतिशत युवा हों वहाँ राहुल गांधी की स्वीकार्यता
आखिर क्यों नहीं बन सकी? मेरे विचार में इस रुझान को
बदलने या बनने से रोकने वाली दो सबसे महत्वपूर्ण घटनाएँ थीं उनका टाइम्स चैनल पर प्रसारित इंटरव्यू जिसमें उनकी सूई बार बार अटक जाती थी और अमेरिका के ‘वाल स्ट्रीट जर्नल’ में रॉबर्ट वाड्रा के
मायाजाल का खुलासा होना। फिर रही सही कसर राहुल गांधी
के हिंदी ज्ञान ने पूरी कर दी जिसकी वजह से वे ‘वन आउट
ऑफ टू’ के लिए गुजरात में ‘एक में से दो’ बच्चे कुपोषित और पंजाब में 'सेवन आउट ऑफ टेन' के लिए 'सात में से दस' युवा नशे की गिरफ्त में बताते हैं। और तो
और चाटुकारिता की हद तो तब हो गई थी जब पिछले दिनों लोकसभा में सोते हुए राहुल
गांधी का ‘चिंतन’ करते
हुए बताकर बचाव किया गया था।
उनका विपश्यना शिविर के लिए
थाईलैंड जाना वैसा ही है जैसे राजतंत्र में किसी राजकुमार को राजतिलक से पहले गुरुओं के पास
भेजा जाता था। कुछ किस्से कहानियों में गणिकाओं के पास 'तहजीब प्रशिक्षण' हेतु भेजे जाने का उल्लेख भी मिलता है। लाख टके का सवाल यह है कि दो माह के लिए मुख्य भूमिका से दूर रहकर परदेस
में जाकर 'ज्ञान' प्राप्त करने या चिंतन मनन करने से लाभ किसे मिला है? अगर यह सिर्फ किसी के लिए 'व्यक्तित्व विकास' भर था तो पार्टी में क्या अन्य कोई भी नेतृत्व गुण वाला सदस्य नहीं है? सचिन पायलट या ज्योतिरादित्य सिंधिया राहुल गांधी से किस गुण में उन्नीस बैठते
हैं?
अब समय आ गया है कि कांग्रेसी नेहरू- गांधी परिवार का भाट-चारणों की तरह गुणगान बंद करें।
लोकतंत्र का तकाजा है कि कांग्रेसी वंशवाद व परिवारवाद के दायरे से अब बाहर
निकलें। राहुल गांधी को अगर कमान सौंपी जाती है तो कांग्रेस को भी कहीं दिल्ली
सीएम के लिए किरण बेदी की पेराशूट लैंडिंग जैसे परिणाम भुगतना पड़ सकते हैं और देश में
कांग्रेस के 'वंशवादी' होने का संदेश जाएगा जो अलग!
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Friday, 17 April 2015
Monday, 13 April 2015
व्यंग्य
उफ्! कितना निर्दयी है अप्रैल का महीना।
ओम वर्मा
ओम वर्मा
नोबेल पुरस्कार प्राप्त आंग्ल महाकवि टी.एस. इलियट की रचना है ‘दि वेस्ट लैण्ड’। सन 1922 में प्रकाशित एवं अमेरिकी कवि एजरा पाउण्ड(1885-1972) को समर्पित यह रचना एक महाकाव्य है जिसे अँगरेजी साहित्य में मील का पत्थर माना जाता है। इस कविता की प्रथम पंक्ति है- “एप्रिल इज़ द क्रुअलेस्ट मंथ...।” यानी अप्रैल माह सबसे निर्दयी माह होता है। अप्रैल माह को निर्दयी माह बताने के पीछे इलियट का आशय यह है कि इंग्लैण्ड में यह एक नए उद्भव, नए सृजन का माह होता है। इस माह में वसंत की वर्षा जहां जाड़ों की निद्रा में सोए हुए वृक्ष, लता आदि जड़ों को जागृत कर बकायन या लायलेक जैसे वृक्षों को भी अंकुरित कर देती है, परंतु वनस्पतियों का यह पुनर्जन्म, जीवात्मावादियों में उनके शानदार अतीत की स्मृतियों को जागृत करने लगता है। लेकिन वे यह देखकर बड़े दुःखी होते हैं कि इस वेस्ट लैण्ड (बंजर या वंध्या भूमि) में जो भौतिकतावादियों से भरी हुई है, जीवात्म का पुनर्जन्म संभव ही नहीं है। यही कारण है कि यह माह जीवात्मावादियों के लिए मानसिक पीड़ा पहुँचाने वाला अर्थात ‘निर्दयी’ होता है।
मैं इलियट से पूर्णतः सहमत हूँ। मुझे लगता है कि कवि का कथन भारतीय संदर्भों में पूरी तरह सही सही लागू होता है। अप्रैल माह की निर्दयता हमारे लिए भी शक़ से परे है। इस माह हम पहले ही दिन जन्म जन्मांतर से मूर्ख बनते आए लोगों को एक बार फिर मूर्ख बनाने की कोशिश करते हैं। खैर छोड़िए, बात महीने के निर्दयी होने की चल रही थी। सो हम देखते हैं कि मार्च महीने में हमारे वेतन पर आयकर व वृत्तिकर कट चुकने के बाद लगभग झाड़ू लग चुकी होती है। इस झाड़ू के बाद पहली अप्रैल को या कारखानों में सातवीं तारीख को जो मामूली रकम हाथ लगती है उससे पूरे माह का गणित फेल होने लगता है। महीने की पहली से लेकर आखिरी तारीख तक के पूरे तीस दिन जिस तरह रोते कारांजते गुजरते हैं उसे देखकर अप्रैल माह को निर्दयी न कहूँ तो और क्या कहूँ?
चुनावी वर्ष को छोड़ दिया जाए तो सरकार मार्च में जो बजट प्रस्तुत करती है वह सारे बहस मुबाहिसे के बाद पहली अप्रैल से लागू होता है। यानी पहली अप्रैल से हर चीज महँगी। जिस पर भी कालाबाजारियों की कृपा से कई चीजें बाज़ारों से गायब! दुबले और दो आषाढ़! जेब में पैसे नहीं, बाज़ार में जरूरी चीजें नहीं, और जो हैं भी तो पहुँच के बाहर! वाह, अप्रैल वाह!
जिस घर में बच्चों की फीस भरनी है, वहाँ का रोना अलग। मई व जून की मिलाकर तीन माह की इकट्ठी फीस भरना होती है यानी मद से तीन गुना खर्च और अलाटमेंट की कमी पहले से ही है। इसी महीने में शिक्षकों पर स्थानांतर की तलवार लटकना शुरू हो जाती है। कब ट्रांसफर का अभिशाप शकुंतला को दुष्यंत से बिछड़ा दे, भगवान जाने! मार्च में ‘एकल प्रश्न पत्र प्रणाली’ की कृपा से जो परीक्षा देकर फ्री हो चुके हैं, उन नौनिहालों को इस सूखे और रूखे अप्रैल में कैसे व्यस्त रखें, यह एक अलग परेशानी। कुछ भाई - बहनों को राज्य सरकार ने या स्थानीय निकायों ने कृपा करके तीन-चार हजार रु. प्रतिमाह के ‘भारी’ वेतन पर शिक्षाकर्मी नियुक्त कर रखा है। उनके लिए अप्रैल से अधिक निर्दयी माह भला और कौनसा हो सकता है? तीस अप्रैल के बाद भला घर जो बैठना है! उधर दफ्तरों में बेचारे बाबुओं को 31 मार्च की क्लोजिंग की पोजीशन का लेखा-जोखा करते करते व ऑडिट आपत्तियों का जवाब देते देते पूरा अप्रैल माह गुजर जाता है। विवाहोन्मुख युवाओं के लिए अप्रैल से मनहूस माह शायद ही कोई हो। लोगों को बुलाओ तो मुसीबत कि “वाह साहब, आपको भी यही टाइम मिला था शादी करने के लिए! बच्चों की परीक्षाएँ हैं कैसे आएंगे?” न बुलाएँ तो मुसीबत, “वाह साहब, आपने बुलाया क्यों नहीं? बच्चों की परीक्षाएँ थीं, कोई हमारी तो नहीं थी!”
परीक्षाओं से याद आया कि छुट्टियों का हिस्सा काटकर ‘स्कूल हैं तो मास्टर नहीं हैं और जहां मास्टर हैं वहाँ विद्यार्थी नहीं हैं’ वाली स्थिति से गुजरकर जैसे तैसे थोड़ा बहुत कोर्स हुआ नहीं कि यह अप्रैल माह आ जाता है। अप्रैल आया कि परीक्षा लाया और परीक्षा का मतलब आजकल कहीं मुन्नाभाइयों को काम मिलने के दिन हैं तो कहीं वह नीम चढ़ा करेला है जिसमें वे कहाँ से उठाकर क्या पूछ लें, किसे मालूम! अच्छा पढ़ने वाले विद्यार्थी परेशान कि कब कौनसा पर्चा आउट हो जाए! और शिक्षक परेशान कि कब किस नकलवीर मुन्नाभाई का खंजर उन्हें जिंदगी से ही रिटायर करवा दे!
माह अप्रैल में काफी परीक्षाएँ भी खत्म हो जाती है। यानी परीक्षा परिणाम का इंतजार शुरू। और यह परीक्षा और परीक्षाफल के बीच का समय भी कोई समय है! एक एक पल मुआ यों गुजरता है जैसे सगाई और शादी या मतदान और चुनाव परिणाम के बीच का समय गुजर रहा हो!
अगले दो माह छुट्टियों के रहेंगे। मगर अनागत का भय पहले ही सताने लगता है। जैसे कई लोग पूरे अप्रैल भर यह सोचकर परेशान रहते हैं कि छुट्टियों के लगते ही कोई मेहमान न टपक पड़े। मार्च तक तो सब ठीक था मगर इधर अप्रैल आया और गर्मी आई। गर्मी आई तो मेरे शहर की जल व्यवस्था चरमराई। उसी के साथ चरमरा जाती है मेरी दिनचर्या। ऐसे में मेहमाननवाज़ी करूँगा या बाल्टियाँ टाँगकर यहाँ वहाँ भटकता फिरूँगा। मेरी आपबीती तो यह है कि अपने कर्जदाताओं को मार्च का हौआ बनाकर कल तक टरका दिया करता था। कह दिया कि भाई ईयर एंडिंग चल रहा है, दफ्तर में बहुत व्यस्त हूँ। अब अप्रैल में मैं क्या बहाना करूँ? तगादे वालों का ताँता बँधा हुआ है। ज्यादा परेशानी उनकी भी है जिनका जन्म ही पहली अप्रैल को हुआ हो तो मजबूरन देशी तिथि से मनाते हैं। पर इस वर्ष तो तिथि भी पहली अप्रैल को ही पड़ी है। बेचारे क्या करें! लिहाजा इलियट साहब ने बिलकुल सही कहा था कि अप्रैल माह सबसे निर्दयी होता है। मैं तो सहमत हूँ, आपको कोई शक?
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Thursday, 2 April 2015
विचार
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क्या क्रिकेट मूर्खों का खेल है?
ओम वर्मा
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जब भी किसी बड़े मुक़ाबले में हमारी क्रिकेट टीम
बाहर हो जाती है तब प्रिंट व सोशल मीडिया में यह जुमला चल पड़ता है कि ‘यह मूर्खों का खेल है।‘ पिछले कुछ
वर्षों में पहली अप्रैल को प्रकाशित हुए कई व्यंग्यों में भी दो बातें मुख्य रूप
से उभरकर सामने आती हैं कि ‘जनता वोट देकर मूर्ख बनती है’ या फिर जॉर्ज बर्नाड शॉ
के हवाले से यह कुतर्क दिया जाता है कि “क्रिकेट 22 मूर्खों द्वारा खेला जाने वाला वह खेल है जिसे 22 हजार मूर्ख स्टेडियम
में और 22 करोड़ मूर्ख टीवी पर
देखते हैं...,!"
किसी विशेष परिस्थिति, विशेष अवसर, और तत्कालीन संदर्भ में कही गई उक्त बात भले ही तब कुछ महत्व रखती हो, मगर आज क्रिकेट को
मूर्खों का खेल कहना यदि मूर्खता नहीं तो समझदारी भी नहीं है। आज जिस खेल में हमारा देश उसके जन्मदाता को भी मात देने का माद्दा रखता हो, जिसके सितारों को काउंटी और आईपीएल वाले मुँह माँगी फीस देने
को तैयार हों, जिस खेल के सामग्री निर्माण से लेकर खेल के प्रसारण, टीवी विज्ञापन, खिलाड़ियों के कपड़े और उनके द्वारा किए जा रहे विज्ञापनों से करोड़ों लोगों का
टर्नओवर जुड़ा हो...क्या वह मूर्खों का खेल है ? जिस खेल में दो पड़ोसी देशों के बीच
छिन्न-भिन्न होते समरसता के ताने –बाने को जोड़ने व सुधारने की कूव्वत हो, जिसके जरिए पुराने जख्मों को भरने का राजनय
चलाते हुए पडौसी देश के राष्ट्राध्यक्ष को
भी ससम्मान आमंत्रित किया जा सकता हो, जहाँ मुकेश अंबानी जैसा धनकुबेर जिसके एक मिनट की कीमत लाखों
में हो सकती है, खुद खड़ा होकर हर शाट पर ताली बजाता नजर आता हो...और जिसमें देश
की जीत व अपने पुत्रवत सचिन की शतकों के शतक के लिए भारतरत्न से सम्मानित स्वर
कोकिला लताजी स्वयं व्रत रख सकती हों उसे कम से कम मूर्खों का खेल तो मत कहो मेरे भाई!
क्रिकेट भी
आज शारीरिक
दक्षता के अलावा बहुत कुछ दिमागी चतुराई का खेल भी हो गया है। चतुर गेंदबाज अपनी उँगलियों के जादू से
बल्लेबाज को और बल्लेबाज एन वक्त पर अपना स्टैंस बदलकर सारे क्षेत्ररक्षकों को
चकमा दे सकते हैं। आज कई ऐसे गेंदबाज हैं जिनको पहले से पढ़ पाना
सिर्फ अनुभव और मानसिक कौशल का काम है। एकनाथ सोलकर, जोंटी रोड्स या युवराज की अंदर के
घेरे की व लॉर्ड्स में मदनलाल
की गेंद पर कपिल द्वारा विवियन रिचर्ड्स के शॉट को कैच कर असंभव खेल को संभव बना
देना 'ऑफ़ दि मूर्ख, बाय दि मूर्ख, एंड फॉर दि मूर्ख' वाली घटना थी? अब्दुल कादिर जैसे
अनुभवी स्पिनर को साढ़े सोलह साल का लड़का लगातार तीन बाउंड्री लगाकर ताली बजाने को
मजबूर कर दे, वह सिर्फ भद्रजनों का खेल हो सकता है, मूर्खों का कतई नहीं।
क्रिकेट ने दिलों को जोड़ा है, तोडा नहीं! क्रिकेट से ज्यादा लड़ाई झगड़ा तो पश्चिमी देशों में
फ़ुटबाल के दीवाने कर बैठते हैं। तो क्या फ़ुटबाल बदमाशों या मूर्खों का खेल हो गया ? दरअसल अपने मास
अपीली गुण के कारण क्रिकेट की लोकप्रियता, उसका ग्लैमर दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। कुछ लोगों को क्रिकेट से इसलिए नफ़रत हो गई है कि उसमें 'फिक्सिंग' होने लगी है ! लेकिन
इसमें क्रिकेट का क्या दोष ? गंगाजल से आप सामिष भोजन पकाएं या निरामिष ...गंगाजल तो गंगाजल
ही रहेगा ...। क्रिकेट चाहे हिन्दू खेले या मुसलमान, कल इमरान जीते, धोनी जीते ... आज क्लार्क जीते,,, खेल दर खेल आकर्षण व मान-सम्मान
खेल का अवश्य बढ़ा है। खिलाड़ी कभी भी 'आउट ऑफ़ फॉर्म' होकर टीम में शामिल
होने से वंचित हो सकता है, मगर 'शो मस्ट गो ऑन'...एंड 'शो विल गो ऑन।‘ कल कपिल घर-घर छाए थे, फिर सचिन व धोनी और
आज एबी डि’विलियर्स, गप्टिल, कोरी एंडरसन, रोहित
शर्मा और शिखर धवन हैं। टीवी और कंप्यूटर की तकनीक ने खेल में अब इतनी कट- टू- कट
बारीकियाँ व रोचकता पैदा कर दी हैं कि अम्पायर के गलत फैसले को भी 'रिव्यू' लेकर बदलवा कर दूध
से पानी बिना गर्म किए अलग किया जा सकता है। यह वो खेल है जिसमें कभी कभी अंतिम
पलों में रेडियो कमेंटेटर को यह चेतावानीपूर्ण घोषणा करना पड़ती है कि कृपया
कमजोर दिल वाले कमेंट्री न सुनें...और ऐसे खेल को मूर्खता के विशेषण से नवाजने वालों को मेरा
दूर से सलाम !
दरअसल जिन 'बुद्धिजीवियों' को क्रिकेट का तकनीकी ज्ञान नहीं होता उन्हें खेल समझ में नहीं
आता...! वे इसे राष्ट्रीय समय, धन व मानवशक्ति की बर्बादी बताकर आलोचना करना एक फैशन समझते हैं।
वे यह उदहारण देते हुए नहीं थकते कि अमेरिका जैसे उन्नत देश में
यह 'मूर्खों' का खेल नहीं खेला
जाता। लेकिन क्या कभी
उन्होंने अमेरिका में होने वाली WWF जैसी हिंसक कुश्तियों को 'मूर्खों' या हिंसकों का खेल बताने की हिम्मत की है ? आज क्रिकेट के कारण
असल में कई लोगों को रोजगार मिला है, प्रसारण, टीवी विज्ञापन आदि में कई करोड़ का व्यवसाय
हो रहा है, और इसे राष्ट्रीय खेल घोषित करने की माँग तक उठने लगी है, ऐसे में कोई इसे 'मूर्खों' का शगल बताए तो उसके
लिए सिर्फ प्रार्थना भर की जा सकती है।
1933-34
में इंग्लैंड की टीम का भारत दौरा। भारतीय टीम के विजय मर्चेंट को
उनकी छोटी बहिन लक्ष्मी ने अपनी ऑटोग्राफ बुक दी इंग्लैंड के सभी खिलाड़ियों का
ऑटोग्राफ लाने के लिए। उन्होंने ‘एम.सी.सी. टूरिंग टीम 1933-34’ शीर्षक लिखकर सभी सोलह
खिलाड़ियों के ऑटोग्राफ लिए। दो महीने बाद उन्हें गांधी जी का ऑटोग्राफ लेने के लिए
उनसे मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। गांधी जी ने मुस्कराते हुए उस हस्ताक्षर पुस्तिका
के पन्ने पलटने शुरू किए और जहां पर एम.सी.सी. के खिलाड़ियों के हस्ताक्षर थे, वहीं पर उन्होंने क्रम संख्या 17 पर ‘मो.क.गांधी’ लिख दिया। यानी सीधा संदेश था कि गांधी जी की लड़ाई अँगरेजी हुकूमत से है
और अगर वे इसे मूर्खों का खेल मानते तो ऑटोग्राफ बुक में इंग्लैंड की टीम के ‘17वें
खिलाड़ी’ की जगह हस्ताक्षर हरगिज न करते।
जॉर्ज बर्नाड शॉ ने पता नहीं किस सन्दर्भ में क्रिकेट को 22 मूर्खों का खेल बताया था, लेकिन उनके कथन में यह जोड़ना कि इसे 22 करोड़ मूर्ख टीवी पर देखते हैं, बहुत ही सतही टिप्पणी है, क्योंकि बर्नाड शा के समय तो टीवी की शुरुआत ही नहीं हुई थी। और लास्ट बट नॉट द लीस्ट कि अगर क्रिकेट सचमुच मूर्खों का खेल होता तो कथा शिल्पी प्रेमचंद अपनी अंतिम कहानी ‘क्रिकेट मैच’ लिखकर अपना वक़्त जाया नहीं करते!
जॉर्ज बर्नाड शॉ ने पता नहीं किस सन्दर्भ में क्रिकेट को 22 मूर्खों का खेल बताया था, लेकिन उनके कथन में यह जोड़ना कि इसे 22 करोड़ मूर्ख टीवी पर देखते हैं, बहुत ही सतही टिप्पणी है, क्योंकि बर्नाड शा के समय तो टीवी की शुरुआत ही नहीं हुई थी। और लास्ट बट नॉट द लीस्ट कि अगर क्रिकेट सचमुच मूर्खों का खेल होता तो कथा शिल्पी प्रेमचंद अपनी अंतिम कहानी ‘क्रिकेट मैच’ लिखकर अपना वक़्त जाया नहीं करते!
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