व्यंग्य
उफ्! कितना निर्दयी है अप्रैल का महीना।
ओम वर्मा
ओम वर्मा
नोबेल पुरस्कार प्राप्त आंग्ल महाकवि टी.एस. इलियट की रचना है ‘दि वेस्ट लैण्ड’। सन 1922 में प्रकाशित एवं अमेरिकी कवि एजरा पाउण्ड(1885-1972) को समर्पित यह रचना एक महाकाव्य है जिसे अँगरेजी साहित्य में मील का पत्थर माना जाता है। इस कविता की प्रथम पंक्ति है- “एप्रिल इज़ द क्रुअलेस्ट मंथ...।” यानी अप्रैल माह सबसे निर्दयी माह होता है। अप्रैल माह को निर्दयी माह बताने के पीछे इलियट का आशय यह है कि इंग्लैण्ड में यह एक नए उद्भव, नए सृजन का माह होता है। इस माह में वसंत की वर्षा जहां जाड़ों की निद्रा में सोए हुए वृक्ष, लता आदि जड़ों को जागृत कर बकायन या लायलेक जैसे वृक्षों को भी अंकुरित कर देती है, परंतु वनस्पतियों का यह पुनर्जन्म, जीवात्मावादियों में उनके शानदार अतीत की स्मृतियों को जागृत करने लगता है। लेकिन वे यह देखकर बड़े दुःखी होते हैं कि इस वेस्ट लैण्ड (बंजर या वंध्या भूमि) में जो भौतिकतावादियों से भरी हुई है, जीवात्म का पुनर्जन्म संभव ही नहीं है। यही कारण है कि यह माह जीवात्मावादियों के लिए मानसिक पीड़ा पहुँचाने वाला अर्थात ‘निर्दयी’ होता है।
मैं इलियट से पूर्णतः सहमत हूँ। मुझे लगता है कि कवि का कथन भारतीय संदर्भों में पूरी तरह सही सही लागू होता है। अप्रैल माह की निर्दयता हमारे लिए भी शक़ से परे है। इस माह हम पहले ही दिन जन्म जन्मांतर से मूर्ख बनते आए लोगों को एक बार फिर मूर्ख बनाने की कोशिश करते हैं। खैर छोड़िए, बात महीने के निर्दयी होने की चल रही थी। सो हम देखते हैं कि मार्च महीने में हमारे वेतन पर आयकर व वृत्तिकर कट चुकने के बाद लगभग झाड़ू लग चुकी होती है। इस झाड़ू के बाद पहली अप्रैल को या कारखानों में सातवीं तारीख को जो मामूली रकम हाथ लगती है उससे पूरे माह का गणित फेल होने लगता है। महीने की पहली से लेकर आखिरी तारीख तक के पूरे तीस दिन जिस तरह रोते कारांजते गुजरते हैं उसे देखकर अप्रैल माह को निर्दयी न कहूँ तो और क्या कहूँ?
चुनावी वर्ष को छोड़ दिया जाए तो सरकार मार्च में जो बजट प्रस्तुत करती है वह सारे बहस मुबाहिसे के बाद पहली अप्रैल से लागू होता है। यानी पहली अप्रैल से हर चीज महँगी। जिस पर भी कालाबाजारियों की कृपा से कई चीजें बाज़ारों से गायब! दुबले और दो आषाढ़! जेब में पैसे नहीं, बाज़ार में जरूरी चीजें नहीं, और जो हैं भी तो पहुँच के बाहर! वाह, अप्रैल वाह!
जिस घर में बच्चों की फीस भरनी है, वहाँ का रोना अलग। मई व जून की मिलाकर तीन माह की इकट्ठी फीस भरना होती है यानी मद से तीन गुना खर्च और अलाटमेंट की कमी पहले से ही है। इसी महीने में शिक्षकों पर स्थानांतर की तलवार लटकना शुरू हो जाती है। कब ट्रांसफर का अभिशाप शकुंतला को दुष्यंत से बिछड़ा दे, भगवान जाने! मार्च में ‘एकल प्रश्न पत्र प्रणाली’ की कृपा से जो परीक्षा देकर फ्री हो चुके हैं, उन नौनिहालों को इस सूखे और रूखे अप्रैल में कैसे व्यस्त रखें, यह एक अलग परेशानी। कुछ भाई - बहनों को राज्य सरकार ने या स्थानीय निकायों ने कृपा करके तीन-चार हजार रु. प्रतिमाह के ‘भारी’ वेतन पर शिक्षाकर्मी नियुक्त कर रखा है। उनके लिए अप्रैल से अधिक निर्दयी माह भला और कौनसा हो सकता है? तीस अप्रैल के बाद भला घर जो बैठना है! उधर दफ्तरों में बेचारे बाबुओं को 31 मार्च की क्लोजिंग की पोजीशन का लेखा-जोखा करते करते व ऑडिट आपत्तियों का जवाब देते देते पूरा अप्रैल माह गुजर जाता है। विवाहोन्मुख युवाओं के लिए अप्रैल से मनहूस माह शायद ही कोई हो। लोगों को बुलाओ तो मुसीबत कि “वाह साहब, आपको भी यही टाइम मिला था शादी करने के लिए! बच्चों की परीक्षाएँ हैं कैसे आएंगे?” न बुलाएँ तो मुसीबत, “वाह साहब, आपने बुलाया क्यों नहीं? बच्चों की परीक्षाएँ थीं, कोई हमारी तो नहीं थी!”
परीक्षाओं से याद आया कि छुट्टियों का हिस्सा काटकर ‘स्कूल हैं तो मास्टर नहीं हैं और जहां मास्टर हैं वहाँ विद्यार्थी नहीं हैं’ वाली स्थिति से गुजरकर जैसे तैसे थोड़ा बहुत कोर्स हुआ नहीं कि यह अप्रैल माह आ जाता है। अप्रैल आया कि परीक्षा लाया और परीक्षा का मतलब आजकल कहीं मुन्नाभाइयों को काम मिलने के दिन हैं तो कहीं वह नीम चढ़ा करेला है जिसमें वे कहाँ से उठाकर क्या पूछ लें, किसे मालूम! अच्छा पढ़ने वाले विद्यार्थी परेशान कि कब कौनसा पर्चा आउट हो जाए! और शिक्षक परेशान कि कब किस नकलवीर मुन्नाभाई का खंजर उन्हें जिंदगी से ही रिटायर करवा दे!
माह अप्रैल में काफी परीक्षाएँ भी खत्म हो जाती है। यानी परीक्षा परिणाम का इंतजार शुरू। और यह परीक्षा और परीक्षाफल के बीच का समय भी कोई समय है! एक एक पल मुआ यों गुजरता है जैसे सगाई और शादी या मतदान और चुनाव परिणाम के बीच का समय गुजर रहा हो!
अगले दो माह छुट्टियों के रहेंगे। मगर अनागत का भय पहले ही सताने लगता है। जैसे कई लोग पूरे अप्रैल भर यह सोचकर परेशान रहते हैं कि छुट्टियों के लगते ही कोई मेहमान न टपक पड़े। मार्च तक तो सब ठीक था मगर इधर अप्रैल आया और गर्मी आई। गर्मी आई तो मेरे शहर की जल व्यवस्था चरमराई। उसी के साथ चरमरा जाती है मेरी दिनचर्या। ऐसे में मेहमाननवाज़ी करूँगा या बाल्टियाँ टाँगकर यहाँ वहाँ भटकता फिरूँगा। मेरी आपबीती तो यह है कि अपने कर्जदाताओं को मार्च का हौआ बनाकर कल तक टरका दिया करता था। कह दिया कि भाई ईयर एंडिंग चल रहा है, दफ्तर में बहुत व्यस्त हूँ। अब अप्रैल में मैं क्या बहाना करूँ? तगादे वालों का ताँता बँधा हुआ है। ज्यादा परेशानी उनकी भी है जिनका जन्म ही पहली अप्रैल को हुआ हो तो मजबूरन देशी तिथि से मनाते हैं। पर इस वर्ष तो तिथि भी पहली अप्रैल को ही पड़ी है। बेचारे क्या करें! लिहाजा इलियट साहब ने बिलकुल सही कहा था कि अप्रैल माह सबसे निर्दयी होता है। मैं तो सहमत हूँ, आपको कोई शक?
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100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 (म.प्र.)
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