विचार
कमजोर कौन, राहुल गांधी या कांग्रेस?
कमजोर कौन, राहुल गांधी या कांग्रेस?
ओम वर्मा
पहले सोलहवीं लोकसभा
चुनाव व बाद में हरयाणा व
महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों के बाद से कांग्रेस अभी आईसीयू से बाहर निकली भी न थी कि दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणामों ने उसे
एक बार फिर वहीं पहुँचा दिया। हर बार की तरह फिर ‘प्रियंका लाओ’ के आठ – दस पोस्टर बाहर निकले जो हमेशा की तरह फिर संदूकों में समा गए।
जब भाजपा ने
नरेंद्र मोदी को पीएम पद का दावेदार घोषित किया था तब यह बात कोई भी कांग्रेसी न तो समझ सका था न 10, जनपथ को समझा सका कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ राहुल गांधी को उतारना
शेर के आगे सिर्फ बंदूक का लायसंस दिखाने वाली बात होगी। तभी राहुल की तुलना में
प्रियंका को लाना शायद ज्यादा फलदायी हो सकता था। लेकिन यह भी एक तरह से वंशवाद की
बेल को सींचना ही होता। कांग्रेस की दौड़ कहाँ तक? एक
गांधी से दूसरे गांधी तक! यदा-कदा कोई पार्टीमेन काँग्रेस को गांधी परिवार
के आभा मण्डल से दूर ले जाने के उपक्रम में आवाज उठा दे या कोई विरोध पत्र लिखे तो
उसे या तो ‘लेटर बम’ करार दे दिया जाता है या जयंती नटराजन बना दिया जाता है। संवैधानिक ढंग से
निर्वाचित वर्तमान प्रधानमंत्री की कार्यशैली या किसी अन्य गुण की कोई कांग्रेसी
अगर प्रशंसा कर भी बैठे तो या तो उसकी आवाज बैंड-बाजा-बरात के शोर में दुल्हन की
सिसकियों की तरह दब कर रह जाती है या उसे बगावत मान कर नोटिस थमा दिया जाता है।
आज इस पर विचार करना चाहिए
कि जिस देश की आबादी में 65 प्रतिशत युवा हों वहाँ राहुल गांधी की स्वीकार्यता
आखिर क्यों नहीं बन सकी? मेरे विचार में इस रुझान को
बदलने या बनने से रोकने वाली दो सबसे महत्वपूर्ण घटनाएँ थीं उनका टाइम्स चैनल पर प्रसारित इंटरव्यू जिसमें उनकी सूई बार बार अटक जाती थी और अमेरिका के ‘वाल स्ट्रीट जर्नल’ में रॉबर्ट वाड्रा के
मायाजाल का खुलासा होना। फिर रही सही कसर राहुल गांधी
के हिंदी ज्ञान ने पूरी कर दी जिसकी वजह से वे ‘वन आउट
ऑफ टू’ के लिए गुजरात में ‘एक में से दो’ बच्चे कुपोषित और पंजाब में 'सेवन आउट ऑफ टेन' के लिए 'सात में से दस' युवा नशे की गिरफ्त में बताते हैं। और तो
और चाटुकारिता की हद तो तब हो गई थी जब पिछले दिनों लोकसभा में सोते हुए राहुल
गांधी का ‘चिंतन’ करते
हुए बताकर बचाव किया गया था।
उनका विपश्यना शिविर के लिए
थाईलैंड जाना वैसा ही है जैसे राजतंत्र में किसी राजकुमार को राजतिलक से पहले गुरुओं के पास
भेजा जाता था। कुछ किस्से कहानियों में गणिकाओं के पास 'तहजीब प्रशिक्षण' हेतु भेजे जाने का उल्लेख भी मिलता है। लाख टके का सवाल यह है कि दो माह के लिए मुख्य भूमिका से दूर रहकर परदेस
में जाकर 'ज्ञान' प्राप्त करने या चिंतन मनन करने से लाभ किसे मिला है? अगर यह सिर्फ किसी के लिए 'व्यक्तित्व विकास' भर था तो पार्टी में क्या अन्य कोई भी नेतृत्व गुण वाला सदस्य नहीं है? सचिन पायलट या ज्योतिरादित्य सिंधिया राहुल गांधी से किस गुण में उन्नीस बैठते
हैं?
अब समय आ गया है कि कांग्रेसी नेहरू- गांधी परिवार का भाट-चारणों की तरह गुणगान बंद करें।
लोकतंत्र का तकाजा है कि कांग्रेसी वंशवाद व परिवारवाद के दायरे से अब बाहर
निकलें। राहुल गांधी को अगर कमान सौंपी जाती है तो कांग्रेस को भी कहीं दिल्ली
सीएम के लिए किरण बेदी की पेराशूट लैंडिंग जैसे परिणाम भुगतना पड़ सकते हैं और देश में
कांग्रेस के 'वंशवादी' होने का संदेश जाएगा जो अलग!
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