ढाक के तीन पात
लेखक- मलय जैन
*व्यंग्य* वह वैचारिक निबंध
है जिसमें लेखक विसंगतियों,
विद्रूपताओं, कुत्सित मानसिकता और
समाज व राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार का पोस्टमार्टम करता है। आज जबकि मूल्यों
का निरंतर ह्रास हो रहा है, ऐसे
में व्यंग्य की भूमिका और भी महत्वपूर्ण और सार्थक हो जाती है। जब भी बात भ्रष्टाचार की हो रही हो तो सियासतदानों के
नित उजागर होते बड़े बड़े घोटाले याद आने लगते हैं और रिश्वत का नाम लेते ही हमारे
सामने खाकी वर्दी घूम जाती है। ऐसे में ‘ढाक के तीन पात’ जैसी कृति सामने आती है और जब यह मालूम पड़ता है कि इस कृति
का सर्जक एक पुलिस अधिकारी है तो आप चौंके बिना नहीं रहते। पुलिस की नौकरी में
कितनी भागदौड़, कितना दबाव और कितना
तनाव रहता है यह किसी से छिपा नहीं है। मलय जी ने पुलिस विभाग के अपने सेवाकाल में
निश्चित ही इन सभी चीजों को देखा,
सुना या हो सकता है कि भुगता भी हो। ऐसे में एक ऐसे उपन्यास की रचना करना जो ऊपर
से लेकर नीचे तक की सारी भंग व्यवस्थाओं की स्केनिंग करता हो, निश्चित ही एक श्रमसाध्य व
चुनौतीपूर्ण काम रहा होगा। उपन्यास पढ़कर यह तथ्य निर्विवाद रूप से सामने आता है कि
मलय इस चुनौती का सामना करने में पूरी तरह से समर्थ रहे हैं।
उपन्यास की
शुरुआत ही इतनी खूबसूरत तरीके से होती है कि पाठक आश्वस्त हो जाता है कि आगे उसे
ऐसी कई कलात्मक बुनावटें देखने को मिलने वाली हैं। ऑफिस की फाइलों का रखरखाव, अलमारियों का वर्णन, बाबुओं की कार्य शैली, दलाल, बांकेलाल के केंटीन और आरटीआई
एक्टिविस्ट लपकासिंह का जो शब्दचित्र लेखक ने खींचा है उसे देखकर यह भ्रम होने
लगता है कि लेखक के हाथ में कलम है, ब्रश है या कैमरा है?
कमिश्नर साहिबा के पास के गाँव में अकस्मात दौरे की सूचना मिली है निर्देश दिए जा
रहे हैं कि उनके वहाँ पहुँचने से पूर्व *‘जहाँ लीपा जा सकता है वहाँ लीप दो और जहाँ पोता जा सकता है, वहाँ पोत दो।‘*
यह एक वाक्य ही लेखक की कलम की ताकत, दौरों की हकीकत,
ब्यूरोक्रेसी की हिपोक्रेसी व पूरे उपन्यास का मिजाज समझने के लिए पर्याप्त है।
फिर आता है लाश
को लेकर दो गाँवों के बीच होने वाले सीमा विवाद का प्रसंग। थानों के बीच घटनास्थल
को लेकर विवाद तो शहर के थानों में भी होते रहते हैं पर लेखक ने देहात के थानों के
प्रकरणों के बहाने गाँवों के सीमा विवाद का जो वर्णन किया है उसमें भी व्यंग्य के
छोटे-मोटे कई पंच देखने को मिलते हैं। पटवारी की ‘पटवारीगिरी’ व मृतक की आत्मा का
स्वगत कथन फिर कथानक में व्यंग्य को नई ऊँचाई तक ले जाते हैं।
उपन्यास में
अधिकांश पात्रों के नाम कॉमिक चरित्रों की तरह जरूर हैं और कहीं कहीं थोड़ी फेंटेसी
और थोड़ा एग्जाजिरेशन जरूर है मगर दोनों बातें संतुलित रूप से हैं और उतनी हैं
जितनी व्यंग्य में अनुमत्य है। जैसे आरटीआई एक्टिविस्ट और पत्रकार लपकासिंह, कैंटीन मालिक बाँकेलाल, कथास्थल गाँव का नाम गूगल गाँव, पटवारी गोटीराम, दरोगा लोटनप्रसाद, डकैत चट्टानसिंह और शेरसिंह, फ्री लांस नेता अनोखीबाबू, वैद्य मटुकनाथ, पुरुष वासना की शिकार या पुरुषों
को अपनी वासना का शिकार बनाने वाली गुलबियाबाई।
पूरे उपन्यास
में ऐसे कई प्रसंग हैं जिन्हें ज्ञान चतुर्वेदी जी के ‘बारामासी’के प्रसंगों की तरह अपने आप में
एक पूर्ण व्यंग्य या व्यंग्य कथा के रूप में पढ़ा जा सकता है या जिन पर विस्तृत
चर्चा की जा सकती है। स्कूलों की दशा, बच्चों की शरारतें,
युवा वर्ग का वैलेंटाइन दिवस को लेकर दीवानापन, मध्याह्न भोजन की विसंगतियाँ, हवेली राजा और उनकी खुजली,
अफ़सरों का उनकी ‘कार्यप्रणाली’ के आधार पर श्रेणीवार वर्गीकरण, अफ़सरों के दौरे और उसमें
अधीनस्थोंमें लगी चमचागीरी की होड़, मैडम के जेब से मोबाइल निकालने पर लोगों का ‘खरगोश’ निकाले जाने जैसा
कुतूहल, और नेटवर्क न मिलने
पर उनके व अधीनस्थोंके बीच शरद जोशी के ‘जीप पर सवार इल्लियाँ’ की याद दिलाते संवाद, गाँवों के एसपी यानी सरपंच पति, भूतनाथ के बहाने जीवित को मृत बताकर जमीन हड़पने वाले, ‘दनादन बाबा’ की बाबागिरी, पति से उपेक्षित गुलबियाबाई और
पत्नी पीड़ित वैद्य जी का ‘प्रेम
प्रसंग’, श्वान सभा की फेंटेसी, लपकासिंह के बहाने गाँवों में
मोबाइल और शौचालयों की संख्यात्मक तुलना, कागजों पर खुदे हैंडपंप कुओं के
बहाने भ्रष्टाचार पर प्रहार,
मीडिया के चरित्र पर चर्चा,
पुलिसकर्मियों की पीड़ा,
भोलाराम का गुलबियाबाई और वैद्य जी को रँगे हाथों पकड़े जाने और गुलबियाबाई का पाला
बदल देने का दृश्य, फिर बलात्कार की
रिपोर्ट लिखने का रोचक प्रसंग और ‘कानून के छेद’ दिखाने की बात...आदि
इतने रोचक, विचारोत्तेजक व
व्यंग्य के तीखे पंच लिए हैं कि लेखक की कलम का लोहा मान लेते को विवश कर देते
हैं। कई जगह ऐसा प्रतीत होता है जैसे वे ज्ञान चतुर्वेदी स्कूल के होनहार
विद्यार्थी हैं। भोलाराम व गुलबियाबाई का बलात्कार की रिपोर्ट लिखवाने में हवलदार
का रंग बदलना संवादों की भाषा तो पुलिस की कार्यप्रणाली का दस्तावेज़ भी है और
व्यंग्य में हास्य के खूबसूरत व आनुपातिक मिश्रण का सशक्त उदाहरण है।
उपन्यास का अंत
भी बड़ा कलात्मक है। प्रिंसिपल सा. के इस सवाल में हर आम हिंदुस्तानी का सवाल छुपा
है कि *“भारत के लोग...वी द ग्रेट पीपल ऑफ इंडिया...’ भारत को क्या बनाने की शपथ ली थी
और क्या बना रहे हैं, कहाँ ले जाने का स्वप्न देखा था और कहाँ ले जा रहे हैं...कुछ भी करो, फिर भी ढाक के तीन पात!”*
उपन्यास की
शैली अंत तक बाँधे रखने वाली है। कहीं किसी तरह का कोई झोल नहीं। अनेक दबावों को
झेलने और कानून की बारीक डोरी पर चलने को मजबूर विभाग में नौकरी करते हुए व्यंग्य के क्षेत्र में काम करना
निश्चित ही एक चुनौतीपूर्ण कर्म है जिसमें मलय जैन पूरी तरह सफल रहे हैं। उपन्यास
की स्मृति पाठक के मन में लंबे समय तक बनी रहेगी।
एक स्मरणीय कृति
के लिए मलय को बधाई!
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