Tuesday, 22 November 2016

व्यंग्यकथा - 'इश्क़ -ऑनलाइन से 'इन'-लाइन तक


व्यंग्यकथा

                     इश्क़ – ऑनलाइन से इन – लाइन तक
                                                       ओम वर्मा  
जैसे ही उसकी नजर उस पर पड़ी, उसे लगा कि उसे कुछ कुछ होने लगा है।
     सुबह सात बजे वह घर से नाश्ते व पानी की बॉटल लेकर यहाँ पहुँच गया था। कल जब वह आया था तो उसके आने से पहले ही लाइन इतनी लंबी हो गई थी कि उसका कोई ओर छोर ही नजर नहीं आ रहा था। लिहाजा अगले दिन वह थोड़ा जल्दी आया। मगर आज भी लोग सुबह पाँच बजे से लाइन में लग चुके थे। लेकिन वह भी आज घर से कफ़न बाँधकर ही निकला था!
     उसकी लाइन के समानांतर ही महिलाओं की लाइन भी लगी थी। अपनी आदत के अनुसार उस लाइन पर वह बार बार अपनी दूरबीनी नजरें दौड़ाने लगा। किसी किसी स्थान पर आँखें रुक जातीं और दूरबीनी आँखें एक्स-रे मशीन में बदलकर लक्ष्य का स्केनिंग शुरू कर देतीं। ऐसे समय उसका दिमाग  किसी खानदानी दर्जी की तरह एक नजर में ही सही सही मेजरमेंट कर लिया करता था। मगर उस पर नजर पड़ते ही उसके दिमाग का कंप्यूटर भी जैसे हैंग हो गया था। उसे लगा कि दुनिया में लाख उलझनें हों, मगर अभी इतना निराश होने या हमेशा झुँझलाते रहने की जरूरत नहीं है। जीवन जीने के लिए अभी कई और वजहें भी हैं।  
     उसकी नजरें जहां जाकर ठहर गई थीं, अमूमन अधिकांश लोगों की नजरें भी वहीं जाकर ठहर रही थीं। उसने दिमाग पर थोड़ा जोर डाला तो याद आया कि अभी कुछ महीनों पहले ऐसी ही एक लाइन कई दिनों तक लगी थी जिसमें ऐसे ही एक दिन वह कई घंटे मुफ्त की सिम लेने के लिए खड़ा रहा था। सिम तो उसे नहीं मिल सकी थी मगर उसने जब इस सुंदरी को देखा और उसकी आँखों में रांग नंबर के बजाय आपकी कॉल प्रतीक्षा में है वाला भाव नजर आया तो लगा कि सिम भले ही न मिली हो मगर   किस्मत खुल जा सिम सिम कहे बिना खुल गई है। मगर तभी कुछ बाहुबली टाइप के लोग उससे आगे घुस गए थे और उधर महिलाओं की लाइन आगे बढ़ गई थी और उसे हरितभूमि यकायक बंजर होती दिखाई देने लगी थी। 
     अपने पास रखे कुछ बड़े नोट बदलवाने के लिए एक दिन पहले असफल होने पर आज जब वह  दूसरी बार लाइन में लगा तो उसे मुरझाए ठूँठ में कोपलें फूटती नजर आईं। लाइन में लगे लोग सरकार के इस कदम पर अपनी अपनी विशेषज्ञ टिप्पणियाँ कर रहे थे मगर उसका पूरा ध्यान उस मृगनयनी की तरफ था जिसकी आँखों के सम्मोहन से वह स्वयं चाहकर भी मुक्त नहीं हो पा रहा था। जितनी बार वह उसे देखता उतनी बार उन आँखों में उसे समकालीन कविताओं की तरह नए नए अर्थ व किसी बड़े कलाकार की किसी बड़ी अमूर्त पेंटिग के समान नए नए भाव नजर आ रहे थे। धीरे धीरे उसे अपने आगोश में ले रहा कामदेव अब उससे दूर जाने लगा था। सुंदरी की मोनालिसा सी मिलियन डॉलर मुस्कराहट उसे संदेश देती प्रतीत हुई। माँ व बापू अक्सर बताया करते हैं कि उनकी पहली मुलाक़ात भी ऐसे ही केरोसिन खरीदने के लिए लगने वाली लाइनों में ही हुई थी। उसे विश्वास था कि आज वह इस परंपरा को दोहराकर ही रहेगा।
     अभी जब तक दोनों की लाइनें समानांतर चल रही हैं, उसकी उम्मीदों का चिराग प्रज्ज्वलित है।
                                                                 ***
    
    



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