व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी-बारामासी प्रसंग
ओम वर्मा
व्यंग्य को पूर्ण विधा माना जाए या
नहीं, यह भले ही
बहस-मुबाहिसे का विषय हो पर यह निर्विवाद है कि आज ज्ञान चतुर्वेदी जी जहाँ खड़े हो
जाते हैं, हिंदी में व्यंग्य वहीं से शुरू होता है। आज हिंदी
साहित्य में व्यंग्य को यदि सम्मानजनक स्थान पर प्रतिष्ठित करने का श्रेय हरिशंकर
परसाई, शरद जोशी और श्रीलाल
शुक्ल के बाद किसी को जाता है तो वह ‘वन एंड ओनली’ डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी
हैं। वे अपने कृतित्व व व्यक्तित्व से आज सभी व्यंग्यकारों के आदर्श व
प्रेरणास्रोत बने हुए हैं।
‘बारमासी’ उनका ‘नरक यात्रा’ के बाद दूसरा उपन्यास है जो 1999
में प्रकाशित हुआ था। अपने प्रकाशन वर्ष से लेकर आज तक यह निरंतर लोकप्रियता की
सीढ़ियाँ चढ़ता जा रहा है और जैसा कि श्री श्रीकांत आप्टे जी ने बताया है कि अब तक
इसके दस संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। संपूर्ण उपन्यास में अंत तक व्यंग्य का
निर्वाह करना बहुत श्रमसाध्य और कौशल का कार्य है जिसमें ज्ञान पूर्ण सफल रहे हैं।
अपने पिछले
उपन्यास ‘नरक –यात्रा’ में उन्होंने चिकित्सा जगत में
व्याप्त भ्रष्टाचार और लूटमार को जिस अधिकार के साथ उद्घाटित किया था उससे व अन्य
फुटकर व्यंग्य रचनाओं से उनकी सशक्त व्यंग्यदृष्टि सामने आती है। उस उपन्यास में
कुछ प्रसंग जैसे ऑपरेशन के समय डॉक्टर का अखबार पढ़ना या वार्ड में भोजन की ट्रॉली
लाने का वर्णन अतिरंजित होते हुए भी लेखक की पकड़ से बाहर होते प्रतीत नहीं होते। दरअसल
फेंटेसी की तरह बुने गए दोनों प्रसंगों में लेखक की शैलीगत विशेषता के कारण अंततः
पाठक उसके मर्म तक पहुँच ही जाता है। व्यंग्यकार की सफलता भी यही है कि ‘नरक यात्रा’ जैसे व्यंग्य उपन्यास की सफलता के
बाद उन्होंने फिर ‘बारामासी’ जैसी एक लाजवाब कृति दी है। यह
सोचने की बात है कि श्रीलाल शुक्ल ‘राग दरबारी’ के बाद छुटपुट
व्यंग्यों पर ही लौट आए थे और उनके अगले उपन्यास ‘बिश्रामपुर का संत’ में
व्यंग्य कहीं नहीं था। बारामासी व्यंग्य उपन्यास भले ही हो पर यह यथार्थ के धरातल
पर भी वह बुंदेलखंड के मध्यमवर्गीय जीवन का एक संपूर्ण दस्तावेज़ है। बुंदेलखंड के
कुछ गाँव/ कस्बे जैसे गुलाबगंज,
विदिशा, बीना, राहतगढ़ और सागर से मेरा मेरा बहुत
नजदीक का संबंध रहा है और ज्ञान जी के शब्दों में “मैं भी वहाँ का भुक्तभोगी
हूँ।“(दूरभाष चर्चा) इन जगहों की स्थिति भी कमोबेश उपन्यास के कथास्थल से बहुत
भिन्न नहीं है।
‘नरक यात्रा’ और ‘बारामासी’ दोनों ही उपन्यासों में कुछ जगह
पर कुछ असंसदीय शब्द भी आए हैं लेकिन ये कहीं भी सायास डाले गए नहीं लगते, किसी तरह की उत्तेजना नहीं फैलाते
और न ही इनसे व्यंग्यकार का कोई जुगुप्सु रूप सामने आता है। दरअसल कुछ गालियाँ
बुंदेलखंडी लोकजीवन का हिस्सा हैं और विवाह जैसे मांगलिक अवसर पर अतिथियों का नाम
ले-लेकर ‘गारियाँ’ गाई जाती हैं। सच तो यह है कि अमिधा, लक्षणा और व्यंजना इन तीनों शब्द
शक्तियों के उपयोग का इससे बेहतर उदाहरण नहीं मिलता। ‘बारामासी’ में बुंदेलखंड के लोकजीवन व
मध्यमवर्ग के द्वंद्व को वैसा ही उकेरा गया है जैसा रेणु के पन्नों पर बिहार और
प्रभु जोशी के पन्नों पर मालवा मिलता है। कथा धर्मेंद्र के जमाने से शुरू होकर
अमिताभ बच्चन के जमाने पर आकार खत्म होती है। कई उपन्यास व कहानियों में लेखक जब
अंत करते हैं तो ऐसा लगता है मानो वे किसी हड़बड़ाहट में हैं और बड़ा आधा अधूरा सा या
विसंगतिपूर्ण अंत कर देते हैं जिससे पाठक की सहमति नहीं बन पाती। किन्तु ‘बारामासी’ के अंत में जिज्जी का पोता घर से धर्मेंद्र
का पोस्टर उतारकर अमिताभ बच्चन का पोस्टर लगाकर मानो एक युग का पटाक्षेप कर दूसरे
युग की शुरुआत कर रहा होता है। इतना क्लासिक समापन सिर्फ फिल्म ‘प्रहार’ में ही देखा था जिसमें अंत में
कुछ अनावृत बच्चों को दौड़ते हुए दिखाया गया था।
उपन्यास के
कथानक में रेल्वे स्टेशन पर सवारियों की घबराहट, बरात में बिन्नू के भाई का बार बार कट्टे पर हाथ जाना, रिक्शावाले से बहस का किस्सा या
अच्छा गाँजा न मिलने पर ‘साधू’ का बुरी तरह से नाराज होना आदि व
और भी कई प्रसंग पाठक को बुंदेलखंडी पात्रों के अक्खड़पन, भोलेपन व देहातीपन से अवगत करवाते
हैं। सभी प्रसंगों में लेखक का किस्सागोई का ऐसा स्वरूप सामने आता है कि व्यंग्य
की स्याही में डूबे होने की बावजूद भी उसे सारे पात्र अपने आसपास के ही लगने लगते
हैं। अलीपुरा की गर्मियों का वर्णन जो कई बार आया है, लेखक की व्यंग्य पर पकड़ का सबसे
सशक्त उदाहरण है। पूरी शैली पिक्चरस्क है और हर घटना पाठक को अपने सामने घटित होती
दिखाई देती है। उपाख्यानों की तरह कुछ किस्से जैसे रेवन ककवारे की कुतिया की कहानी, हनुमान टोरिया वाले बाबा द्वारा
अपने सामने शीतलाप्रसाद के गाँजे की तारीफ कर देने पर छुट्टन की कोड़े से पिटाई, देसी कट्टे की डील, छुट्टन और छदामी का रेल के टीसी
पर हावी होना, विवाह में टीके की
रकम को लेकर विवाद, बरातियों की सुरक्षा
के लिए लठैतों की मांग को लेकर मामाजी और गंगेलेजी में विवाद, मानपत्र में रसाल का रमाल हो जाने
के बहाने कवि व कविकर्म की वर्तमान स्थिति पर तीक्ष्ण कटाक्ष, जिसे पीते ही दिमाग में झन्नाटी आ
जाए ऐसे रायते में और मिर्ची डलवाना आदि कई ऐसे प्रसंग हैं जिनमें व्यंग्य का पंच
तो है ही, परिस्थितिजन्य हास्य
भी एक सहउत्पाद के रूप में सामने आ जाता है और बुंदेलखंड के कस्बों का चरित्र
उजागर होता है।
‘बारामासी’ पढ़कर पाठक ज्ञान जी की किस्सागोई
का मुरीद बनकर रह जाता है। पात्रों के संवादों की ध्वनियाँ निरंतर उसके कानों में
गूँजती रहती हैं। निश्चित ही साहित्य में ‘राग दरबारी’ के बाद यह दूसरा मील
का पत्थर साबित होगा।
लेखक की
जीवनसंगिनी को यदि ऐसे में यह विश्वास है कि उन्हें कभी न कभी ‘ज्ञानपीठ’ अवश्य मिलेगा तो भला क्या गलत है? उनके इस विश्वास में हम सब शामिल
हैं।
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बहुत ही अच्छी समीक्षा की हैं सर आपने
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