व्यंग्य
अच्छे काम का बुरा तरीका?
उसके यकायक चीखने की आवाज से घर का शांतिपर्व सदन के ज़ीरो अवर में बदल गया। नीरवता भंग होते ही मैं दौड़कर किचन में गया और देखा कि एक बहुत बड़ा कॉकरोच किचन के सिंक में बेख़ौफ़ बैठा अपने विशाल स्पर्शक ऊपर-नीचे लहरा रहा है। अपनी ‘मर्दानगी’ दिखाने का अवसर गँवाए बिना मैंने पास पड़ा सिलबट्टे का मूसल उठाया और एक प्रहार में कॉकरोच के बच्चों को अनुकंपा नियुक्ति का आवेदन टाइप करवाने भेज दिया। आवश्यक सफ़ाई करते हुए मैंने पत्नी की ओर कुछ इस भाव से देखा जैसे किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता में हॉल में उपस्थित श्रोताओं द्वारा किसी प्रतियोगी के किसी चुटीले संवाद पर ताली बजाने पर वक्ता पीछे मुड़कर निर्णायकों की ओर देखने लगता है।
पत्नी ने पहले तो खुशी व्यक्त करते हुए कहा कि “तुमने कॉकरोच को मारा, यह तो बहुत अच्छा किया, लेकिन”...इतना कहकर तुरंत नाराजी के भाव लाते हुए बोली कि, “उसे मारने का तुम्हारा तरीका अच्छा नहीं था।”
“किस तरीके से मारता तो अच्छा होता?” मैंने घास में से सूई तलाशने का प्रयास किया, “क्या मुझे उसे गैस चेंबर में मारना था? क्या मुझे उसे झटके से न मारते हुए हलाल वाले तरीके से मारना था, या क्या पहले बार बार कड़ी चेतावनी देते रहना थी?”
“वह मैं नहीं जानती। मैं सिर्फ़ इतना जानती हूँ कि काम अच्छा किया मगर तरीका ग़लत था।” पत्नी ने थोड़ी देर चिंतन किया फिर यह प्रतिक्रिया दी। फिर शांति वार्ता का प्रस्ताव रखने की शैली में मुझे नया निर्देश मिला - “चलो अब ऐसा करो, मैं सब्ज़ी तैयार करूँ तब तक सलाद काट दो।”
मैंने तुरंत सलाद काट कर मोबाइल पर गूगल गुरु की शरण में जाकर सलाद सजाने का नया तरीका देखकर डेकोरेट भी कर दिया और प्लेट दस्तरख़्वान यानी डाइनिंग टेबल पर ‘कलात्मक’ तरीके से रख दी। लेकिन पत्नी ने तो जैसे मुझसे हर बात में असहमत होने की कसम ही खा रखी थी, तभी तो तुरंत बोल उठी,“सलाद तो बहुत अच्छा डेकोरेट किया है, खीरे के पीस भी बराबर बराबर काटे हैं, मगर..”
“मगर क्याSSS?” मैं फ़िल्म ‘पति, पत्नी और वो’ में बार बार संजीवकुमार से ‘वर्ना वर्ना’ की धौंस सुनकर ‘वर्ना क्याSSS?’ बोलकर किस्सा तमाम कर देने वाली विद्या सिन्हा की तरह प्रतिकार कर बैठा। मगर उसने संजीवकुमार की तरह ‘वर्ना ठंडे पानी से नहा लेने’ जैसा कोई समर्पणवादी जवाब न देते हुए पहले जैसे शांत भाव से मुस्कराते हुए इतना ही कहा कि “तुम्हारा खीरे काटने का तरीका सही नहीं था।” इस बार मुस्कराहट भी अभेद्य लगी। ऐसी मुस्कराहटों के कई अर्थ हुआ करते हैं।
लगता है कि सारे कुएँ में ही भाँग घुली हुई है। हम भरपूर फसल पाकर खुश तो हैं, मगर किसान के हल चलाने के तरीके पर हमें आपत्ति है।उधर ‘उनके’ तरीके से जो काम सत्तर साल में नहीं हुआ, ‘इनके’ तरीके से एक झटके में हो गया, मगर कुछ लोगों की स्थिति साँप- छछूंदर वाली हो गई है। न तो काम को सही कहते न नकारते बन रहा हैं। मिठाई तो पेट भर के खाना हौ और बच्चों के लिए साथ लेकर भी जाना है, मगर हलवाई की इस बात के लिए बुराई करना है कि उसे खड़े खड़े नहीं, बल्कि बैठकर मिठाई बनाना थी। सीबीआई किसी आर्थिक अपराधी को पकड़कर अदालत में पेश कर रही है तो उस पर शाबाशी दें या उसे पकड़ने के लिए सीबीआई के दीवार फाँदकर जाने पर आपत्ति उठाएँ? अपने कटे शरीर को बार बार जोड़ लेने की अलौकिक क्षमता रखने वाले जरासंध का वध करने के लिए उसके शरीर के टुकड़ों को विपरीत दिशा में फेंकना अनिवार्य था, ताकि फिर से न जुड़ सकें। जयद्रथ का वध अगर करना है तो सूर्य को बादलों की ओट में छिपाने की युक्ति भिड़ाना ही होगी। और गुरु द्रोण के वध के लिए 'नरो वा कुंजरों वा' वाली युक्ति ही काम आई थी। यानी सभी प्रसंगों में लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रचलित व मान्य 'तरीकों' से हटकर कार्य हुआ था। और ज़ाहिर है कि किसी ने भी तरीके पर उँगली नहीं उठाई। मगर हम न तो सही को देखुकर सही कहना चाहते हैं और न ही उसे खुलकर ग़लत बताना चाहते हैं। हम ब्रेड के दोनों तरफ मक्खन लगाना चाहते हैं। मेरे भाई! आम खाना है तो उसके भी कुछ आदाब होते हैं। उसके स्वाद पर बात करें तो वह शालीनता है, मगर कोई टोकरी में रखे आम या बगीचे के पेड़ ही गिनने लग जाए तो अगली फसल पर फिर उन्हें गुठलियाँ भी शायद ही नसीब हों।
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