पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम : हिंदी सिनेमा का कारवाँ लेखक : शशांक दुबे
प्रकाशक : संवाद प्रकाशन, आई -499, शास्त्रीनगर, मेरठ 250004 मूल्य : 250/-
सिनेमा हमारे जीवन का अविभाज्य अंग है। राजा से लेकर रंक तक, शायद ही कोई शख़्स हो जिसने जीवन में
फ़िल्में न देखी हों, या नहीं देखता हो। महात्मा गांधी के
बारे में भी पढ़ा था कि उन्होंने जीवन में एक ही फ़िल्म देखी थी – रामराज्य।
चाहे दुनिया में मनोरंजन के कितने ही साधन आ जाएँ, बड़े पर्दे
पर छोटा पर्दा हावी हो जाए, फिर भी हर वर्ष सैकड़ों की तादाद
में फ़िल्मों का बनना यह साबित करता है कि सिनेमा उस विधा का नाम है जिसके बिना
हमारी जीवनशैली अपूर्ण है। भारत जैसे देश में तो यह वह उद्यम है जिससे
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से लाखों लोगों की आजीविका भी जुड़ी है।
अधिकांश लोग दो-ढाई घंटें किसी फ़िल्म को देखने
के बाद धीरे धीरे समय के साथ उससे संबंधित कई बातें भूल जाते हैं। इसका मुख्य कारण
शायद यही हो सकता है कि फ़िल्म को हम सिर्फ़ एक ‘टाइम पास’ मनोरंजन का एक साधन भर समझते हैं या हमें
लगता है कि निर्माता का एकमात्र उद्देश्य मनोरंजन करना ही है। लेकिन अपने सुनहरे
दौर में व आज भी कई फ़िल्में ऐसी बनी हैं जिनमें सामाजिक जीवन का सही चित्रण, कुरीतियों पर प्रहार, देशभक्ति की भावना का संचार, उत्कृष्ट साहित्यिक गीत, ढाई-तीन मिनट की ऐसी संगीत
रचना जिसमें तान, आलाप और बेहतरीन वाद्य-वृंद संयोजन आदि का ऐसा
अद्भुत समुच्चय देखने को मिलता है कि मुँह से ‘वाह’ निकल पड़ती है। सच देखा जाए तो सिनेमा ऐसा माध्यम है जिसमें इतने सारे
आयाम हैं कि किसी कलाकार को अपना कौशल दिखाने के लिए एक विस्तृत फ़लक उपलब्ध होता
है। जब शशांक दुबे जैसे कोई अध्येता
इन्हीं तमाम पहलुओं पर लिखते हैं तो ‘हिंदी सिनेमा का
कारवाँ” जैसी पठनीय, संग्रहणीय व
नायाब कृति सामने आती है।
पुस्तक से गुज़रते हुए हमें यह एहसास होने
लगता है कि लेखक के पास निरीक्षण की विलक्षण दृष्टि तो है ही, विश्लेषण का पैनापन भी है। जब वे किसी गीत
की समीक्षा करते हैं तो दृश्य की एक-एक फ़्रेम पर तो उनकी नज़र जाती ही है, प्रिल्यूड व इंटरल्यूड संगीत तथा अभिनीत करने वाले कलाकार का भी वे ऐसा
सूक्ष्म चित्रण करते हैं कि पाठक के मुँह से बरबस निकल पड़ता है कि अरे इस पर तो
हमारा ध्यान ही नहीं गया...और वह तत्काल ‘यू ट्यूब’ पर जाकर उस गीत को देखे-सुने बिना नहीं रह पाता। पुस्तक से ही ज्ञात होता
है कि कुछ फ़िल्में व कुछ संगीतकार पार्श्व-संगीत के क्षेत्र में अपने श्रेष्ठ
निष्पादन के कारण ही जाने पहचाने गए हैं।
भारतीय सिनेमा के इतिहास का सुनहरा दिन था
07 जुलाई, 1896 का जब तत्कालीन बंबई के वाटसन होटल
में फ़्रांस के लुमए बंधु ने एक एक कर छह लघु मूक फ़िल्मों का प्रदर्शन कर लोगों को
चलती फिरती छबियाँ यानी चलचित्र दिखाकर दाँतों तले उँगली दबाने को मज़बूर कर दिया
था। पुस्तक की शुरुआत भी इसी प्रसंग से होती है। पुस्तक से नई जानकारी मिलती है कि
इस प्रदर्शन के बाद नॉवेल्टी थिएटर में नियमित रूप से ऐसी फ़िल्मों का प्रदर्शन तो
प्रारंभ हो गया मगर तब पीछे बैठने के आठ आने और आगे बैठने के दो रुपए लगते थे
क्योंकि आगे बैठना (लेखक के शब्दों में) ‘बड़े ठसक की’ बात होती थी। दर्शकों को थिएटर तक आने के लिए प्रेरित करने के लिए तब क्या
क्या खटकरम करना पड़ते थे, इसकी रोचक जानकारी भी दी गई है।
अगला अध्याय है बोलती फ़िल्मों की शुरुआत पर।
फ़िल्मों का पहला गीत, सर्वाधिक
गीतों वाली पहली फ़िल्म, पहली गीतविहीन फ़िल्म आदि के बारे में
जानना दिलचस्प है। फ़िल्मों में गीतों से कैसे क्रान्ति आई,
पहले स्टार संगीतकार कौन बने, सहगल, रफ़ी
व लता जैसे स्टार सिंगर्स का आगमन कब व कैसे हुआ, तथा गीत
सुनकर रूपहले पर्दे पर सिक्कों की बरसात कब शुरू हुई...आदि कई जानकारियाँ पाठक का फ़िल्मी
ज्ञान समृद्ध करती हैं।
अगली पायदान पर दिलीपकुमार के दौर की चर्चा
होती है। यहाँ पाठक को एक नई जानकारी मिलती है कि दिलीपकुमार की फ़िल्म ‘जुगनू’ (1947) पर उसके
क्रांतिकारी कथानक की वजह से बंबई राज्य के गृहमंत्री श्री मोरारजीभाई देसाई ने
प्रतिबंध लगा दिया था। कुछ महीने बाद प्रतिबंध हटने पर जब फ़िल्म दुबारा प्रदर्शित
हुई तो दर्शक टूट पड़े। दिलीपकुमार ने ‘दीदार’(1951) में नेत्रहीन का रोल करने के लिए अशोककुमार के कहने पर महालक्ष्मी पुल पर
भीख माँगने वाले अंधे भिखारी को देखा और ‘लीडर’ में भाषण देने के लिए जॉर्ज फर्नांडिस के भाषणों को फ़ॉलो किया था।
हमने यही पढ़ा है कि राज कपूर ने फ़िल्म ‘नीलकमल’ (1947) से
अपना फ़िल्मी सफ़र शुरू किया था। मगर लेखक यहाँ हमें यह जानकारी देकर कि इससे पहले
1943 में राज ‘हमारी बात’ (1943) में
मात्र 19 वर्ष की उम्र में ही प्रमुख भूमिका कर चुके थे, आपको
चौंका देता है। इसी अध्याय में वे राज कपूर की फ़िल्मी यात्रा के स्वर्णिम दौर, फिर एक के बाद एक शैलेंद्र, जयकिशन व शंकर के निधन
से आर.के. बैनर में उदासी, फिर एल-पी के साथ विट्ठलभाई पटेल
व आनंद बक्षी तथा बाद में पंचम व रवींद्र जैन के प्रवेश की रोचक दास्तान की पड़ताल
करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उन्हें (राज कपूर को) इस बात के लिए भी
याद किया जाएगा कि उम्र के एक पड़ाव पर आकर जब हर सर्जक वी. शांताराम या देव आनंद
बन जाता है, ऐसे में वे लगातार छत्तीस वर्ष तक सफल और सार्थक
सिनेमा रचते रहे। राज-नर्गिस की जोड़ी पर
अपना विश्लेषण सामने रखने के बाद ‘देव के प्रति दीवानगी’ शीर्षक अध्याय में वे देव आनंद की शोकसभा का ऐसा वर्णन करते हैं कि मुद्रित
कागज़ सेल्युलाइड में बदलता प्रतीत होने लगता है।
अगले अध्याय में उन्होंने फ़िल्म ‘अलबेला’ के माध्यम से
भगवान दादा के जीवन व अभिनय क्षमता के नए पहलुओं को उजागर किया है तो अपने पंजाबी
उच्चारण की वजह से ‘पवित्र’ को ‘पवित्तर’ कहने वाले राजेंद्रकुमार की जुबलीकुमार बन
जाने तक की यात्रा पर अपना मौलिक चिंतन प्रस्तुत किया है। ‘दिल
एक मंदिर है’ जैसी बेमिसाल फ़िल्म के कलात्मक पहलुओं का वे
इतना प्रभावी वर्णन करते हैं कि जिन्होंने नहीं देखी हो उनकी एक बार देखने की व
जिन्होंने देखी है उनकी दूसरी बार देखने की पुनः इच्छा हो जाती है। ऐसी ही विस्तृत
समीक्षा ‘मेरे महबूब’, ‘आनंद’, ‘परिचय’, ‘आँधी’, ‘चितचोर’, ‘अमर अकबर एंथनी’, ‘कुर्बानी’, ‘एक दूजे के लिए’, ‘कथा’ की भी है। हालाँकि लेखक ‘आँधी’ फ़िल्म की कथा में व इंदिरा गांधी के जीवन में किसी भी साम्य का जिक्र
नहीं किया है फिर भी फ़िल्म के रिलीज़ होते ही इसी बात को लेकर चर्चा आम थी कि
कमलेश्वर ने उपन्यास ‘काली आंधी’ में
अंततः गुलजार ने फ़िल्म में इंदिरा गांधी के जीवन की कुछ घटनाओं से प्रेरणा ज़रूर ली
है। फ़िल्म में नायिका के पिता रेहमान उन्हें शादी न कर राजनीति में करियर बनाने की
सलाह देते हैं। ऐसी ही चर्चा नेहरू जी के बारे में सुनी जाती थी कि वे बिटिया से
विवाह के बजाय राजनीतिक करियर को तरजीह देने की अपेक्षा रखते थे। चुनावी सभा में
आरतीदेवी को जब पत्थर लगता है तो डॉक्टर के बजाय पहले पत्रकारों को बुलवाया जाता
है। लोगों को शायद पता होगा कि इंदिरा गांधी को भी उड़ीसा की एक चुनावी सभा में इसी
तरह नाक पर पत्थर लगा था। और तो और
आरतीदेवी (सुचित्रा सेन) के बालों का लुक भी इन्दिरा जी के केश-विन्यास के अनुसार
ही किया गया है। हालाँकि लेखक ने फ़िल्म के सिर्फ़ कलात्मक पहलुओं को ही उजागर किया
है इसलिए इस साम्य पर कोई टिप्पणी नहीं की है। फिर भी यह सत्य है कि फ़िल्म में ऐसी
समानताएँ उसे व्यावसायिक रूप से भी सफल बनाने के लिए ही रखी गई थीं। आँधी पूरी तरह
से एक डायरेक्टर की फ़िल्म है। गीतों की एक एक पंक्ति जिस तरह कहानी के साथ चलती है
वह गुलजार की ही कल्पनाशीलता का परिणाम है।
इसी तरह ‘एक दूजे के लिए’ की भी फ़्रेम दर फ़्रेम समीक्षा है।
फ़िल्म का अंत दुखद है और नायक-नायिका दोनों मर जाते हैं। मेरी जानकारी में इस
फ़िल्म के इस ट्रेजिक अंत को लेकर निर्माता स्वयं आशंकित थे। इसलिए उन्होंने इसका
एक सुखद अंत वाला दृश्य भी तैयार रखा था ताकि बाज़ार की माँग के अनुसार बदला जा
सके। ज़ाहिर है कि उसकी ज़रूरत नहीं पड़ी।
फिर चर्चा है शम्मी कपूर के ‘याहू’ युग की जिसमें वे
बताते हैं कि शम्मी कपूर ने बड़े बड़े नामी-गिरामी सितारों के बीच में कैसे अपना
अस्तित्व बनाया व बचाए रखा। फ़िल्म संगीत में संगीतकारों का क्या महत्व है यह बताने
के लिए लेखक ने सभी बड़े व नामी-गिरामी संगीतकारों पर तो अपनी पैनी नज़र डाली ही है
मगर शंकर-जयकिशन की जोड़ी पर उनका लेखन किसी लघु शोध-प्रबंध की तरह है। वे एस-जे
द्वारा तैयार किए गए टाइटल गीतों पर लिखते हैं कि “उनके संगीत की तीसरी विशेषता
फ़िल्म के सबसे बड़े संभावित हिट गीत को केंद्र में रखते हुए जबर्दस्त टाइटल संगीत
तैयार करना…’राजकुमार’ में उनके द्वारा
तैयार किया गया टाइटल संगीत इतना लोकप्रिय हुआ कि बरसों बाद रेडियो सिलोन के
लोकप्रिय कार्यक्रम ‘एस कुमार्स का फ़िल्मी मुक़दमा’ के थीम-संगीत के रूप में यही टाइटल संगीत बजाया जाता रहा।” यहाँ मैं
पाठकों की जानकारी में वृद्धि करते हुए बताना चाहूँगा कि आकाशवाणी इंदौर से प्रति
रविवार दोपहर 1.10 पर मनभावन नामक फ़िल्मी गीतों का फ़रमाइशी प्रोग्राम प्रसारित
होता था (शायद अभी भी जारी होगा) और इसके आरंभ और अंत में जो धुन बजती थी वह थी
फ़िल्म ‘जहाँआरा’ के गीत ‘ऐ सनम आज ये कसम खाएँ...”की प्रारंभिक संगीत का हिस्सा। इस धुन से महान
संगीतकार मदनमोहन घर घर में गूँजने लगे थे। इसी तरह ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू
सर्विस से प्रतिदिन सुबह 08.00 से 10.00 बजे प्रसारित होने वाले फ़िल्मी गीतों के
बेहद लोकप्रिय फ़रमाइशी प्रोग्राम ‘सूरज के साथ साथ’ की शुरुआत भी फ़िल्म ‘काजल’ के
बेहद मधुर गीत ‘छू लेने दो नाजुक होंठों को...’ के शुरुआती मादक संगीत से ही होती है। इस वजह से संगीतकार रवि प्रतिदिन
सुबह आठ बजे लाखों कानों में देश में व सरहद पार भी जैसे शहद घोल देते हैं।
संगीतकारों के अध्याय में वे कई ऐसे
संगीतकारों को भी याद करते हैं जो इन बड़े संगीतकारों के दौर में एक-दो ही सही मगर
ऐसी धुनें दे गए हैं कि जब भी फ़िल्मों के मधुर संगीत के इस सुनहरे दौर की बात
चलेगी, उनके जिक्र के बिना अधूरी रहेगी। यहाँ वे
फ़िल्म ‘संग्राम’ (1965) के एक गीत “मैं
तो तेरे हसीन ख़यालों में खो गया...” का भी जिक्र करते हैं जिसमें संगीतकार का नाम ‘लाल असर सत्तार’ छपा है। सही नाम लाला असर सत्तार
है। लाला का लाल शायद प्रूफ़ की अशुद्धि हो मगर लेखक यहाँ यह भी उल्लेख कर देते तो
अच्छा होता कि ये तीनों अलग अलग नाम हैं और इस कारण फ़िल्मी संगीतकारों की यह पहली
तिकड़ी थी, शंकर–एहसान–लॉय नहीं, जैसा
कि कई लोग समझते हैं। प्रसंगवश यह भी बता दूँ
कि फ़िल्म में यह मधुर गीत पहलवान रंधावा पर फ़िल्माया गया है।
गीत-संगीत, भावपूर्ण अभिनय, सामाजिक संदेश और मनोरंजन से भरपूर
फ़िल्मों के उस दौर में बीच में मशहूर पहलवान दारासिंह ने कैसे अपनी पहचान बनाई, लेखक ने इसका अच्छा विवेचन किया है। वे यह भी बताते हैं कि ही-मैन धर्मेंद्र और जंपिंग
जैक जितेंद्र ने कैसे स्थापित महारथियों के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज कारवाई।
मनोजकुमार की फालके सम्मान तक की यात्रा पर नाक-भौं सिकोड़ने वालों के लिए लेखक का
जवाब उल्लेखनीय है कि “मनोजकुमार हिंदी सिनेमा के पहले ऐसे फ़िल्मकार हैं जिन्होंने
मुख्यधारा के सिनेमा में देश की समस्याओं को रखने की शुरुआत की थी।” यहाँ मैं यह
जोड़ना ज़रूरी समझता हूँ कि मनोजकुमार की कैमरा संयोजन की समझ इतनी अद्भुत थी कि ‘क्रांति’ के एक दृश्य में दिलीपकुमार पर एक दृश्य
फ़िल्माया जा रहा था तब कैमरे के संयोजन पर दिलीपकुमार सहमत नहीं हुए मगर टेक के
बाद जब स्वयं देखा तो बहुत देर तक स्वयं मनोजकुमार की पीठ थपथपाते रहे थे।
बाद में तब ‘आराधना’ से राजेश खन्ना की आँधी का आना, सूर्य की तरह फ़िल्मी आकाश पर छा जाना, फिर ‘महबूब की मेहंदी’ से उनके पतन की शुरुआत...इन सबका
क्या कारण था और किससे कहाँ चूक हुई, इस पर भी शशांक ही लिख
सकते थे। इन सबके बीच एंग्री यंगमैन का आगमन और इन सबके साथ-साथ ‘पैरेलल सिनेमा’ का दौर जिसमें नसीरुद्दीन शाह व ओम
पुरी का सार्थक हस्तक्षेप, स्टार-पुत्रों का आगमन, फिर खान त्रयी का प्रवेश आदि सब विषयों पर भी उनका मौलिक चिंतन हर
सिनेप्रेमी के गले उतरता है। ‘जंजीर’
फ़िल्म के लिए पहले प्रकाश मेहरा ने पहले देव आनंद, राजकुमार
और शशि कपूर तक की दाड़ी में हाथ डाला था मगर सभी ने किन कारणों से उन्हें चलता कर
दिया था या क्या माँग रखी थी, यह सभी को पता है। लेकिन अमिताभ
का प्रवेश किसके कारण हुआ, इसे लेकर कई मत हैं। लेखक के
अनुसार प्रकाश मेहरा ने फ़िल्म आनंद में अमिताभ बच्चन के आक्रोश भरे अभिनय को देख
कर उन्हें साइन किया। मगर मेरी जानकारी में प्राण ने प्रकाश मेहरा को सलाह दी कि
बेंगलोर में उनका बेटा काम करता है और उसके साथ अजिताभ बच्चन रहता है। अजिताभ के
भाई ने अभी ‘बॉम्बे टु गोआ’ नाम की
फ़िल्म में काम किया है। वह फ़िल्म देख लो और पसंद आए तो अमिताभ बच्चन को ले लो।
लिहाज़ा प्रकाश मेहरा ने ‘बॉम्बे टु गोवा’ देखी और पहला फ़ाइटिंग सीन देखकर ही उठ खड़े हुए, यह
कहते हुए कि मुझे मेरा हीरो मिल गया है। और इसके बाद तो इतिहास बनना ही था। जंजीर
की कहानी में सलीम-जावेद का नाम जरूर जाता है मगर सच्चाई यह है कि सलीम खान यह
कहानी अपनी जोड़ी बनने के पहले लिख चुके थे। सलीम खान का यह भी दावा है कि जंजीर के
लिए प्रकाश मेहरा को उन्होंने ही रिकमेंड किया था।
स्वर्णिम दौर को पसंद करने वाले कई फ़िल्म प्रेमियों
को आज की फ़िल्मों में सब कुछ बुरा ही बुरा नज़र आता है। मगर ऐसा नहीं है। अब जबकि
तकनीक के मामले में हम कहाँ से कहाँ पहुँच गए हैं, फ़िल्म निर्माण की तकनीक पर भी उसका असर पड़ा है। समय के अनुसार दर्शकों की
रुचियाँ भी बदली है। फ़िल्में उससे अछूती कैसे रह सकती हैं। नए दौर में भी कब कब और
कहाँ कहाँ उत्कृष्ट दर्जे का काम हुआ है उस पर भी लेखक ने क़लम चलाई है। फ़िल्मों के
नाम पहले कैसे रखे जाते थे और अब कैसे
कैसे रखे जाते हैं, तथा पब्लिसिटी के लिए प्रारंभ से अब तक
क्या क्या तरीके अपनाए जाते रहे हैं आदि पढ़कर पाठक लेखक की निरीक्षण क्षमता का
क़ाइल हो जाता है।
पुस्तक की एक एक पंक्ति में लेखक की फ़िल्मी
समझ और श्रम झलकता है। आज सिनेमा हमारे जीवन व समाज में अंदर तक रचा बसा है। यह
कविता, कहानी, गायन, वादन, अभिनय, नृत्य, फ़ोटोग्राफ़ी आदि समस्त गुलों से सजा ऐसा गुलदस्ता होता है जिसमें कला के
नित नए प्रतिमान स्थापित होते हैं। हमारे जीवन से फ़िल्में और फ़िल्मों से हमारा
जीवन अंदर तक प्रभावित होता है। इस विचार से जो सहमत हों,
उनके लिए शशांक दुबे का ढाई सौ रुपए का यह ‘हिंदी सिनेमा
का कारवाँ’ एक उपयोगी व लाभ का सौदा साबित हो सकता है।
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