Friday, 30 November 2012

दबंग दुनिया , 30/11/12 में प्रकाशित व्यंग्य की लिंक 

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व्यंग्य, दबंग दुनिया , 30/11/12
      मोर की दिखावटी पूँछ और मंत्रिमण्डल
                                        ओम वर्मा om.varma17@gmail.com
लिज़ाबेद काल के प्रसिद्ध अँगरेजी निबंधकार सर फ्राँसिस बेकन ने अपने एक निबंध ऑव फालोअर्स एण्ड फ्रेंड्स (Of followers and friends)  में लिखा है कि “शासक या बड़े व्यक्ति को अनुगामियों या मुसाहिबानों की अधिकता से हमेशा बचना चाहिए क्योंकि उनकी अधिकता उनके रखरखाव को बहुत खर्चीला बना देती है ‘’  अपने दरबारियों पर जरूरत से ज्यादा खर्च करने वाले शासक की तुलना मोर से करते हुए वे लिखते हैं- मोर की पूँछ के दिखावटी पंख जितने ज्यादा बड़े होते हैं, उसकी उड़ान में वे उतने ही ज्यादा बाधक भी होते हैं। उनकी साज-सजावट पर उसे अतिरिक्त ध्यान देना पड़ता है सो अलग ‘'
         बेकन के कथन से कम से कम यह तो जाहिर होता ही है कि मंत्रिमण्डल में ज्यादा मंत्री रखने यानी सफेद हाथी पालने की समस्या कल भी थी और आज भी है; पश्चिम में भी थी और पूर्व में भी  है।
       लेकिन बेकन ने जो कहा उसे हम भी मानें यह जरूरी तो नहीं! सूत्रात्मक (aphoristic)शैली में लिखे अपने निबंधों में बेकन ने ऐसी कई बातें कही हैं जिनका पालन खुद उन्होंने नहीं किया। बेकन एक अन्य विचारक एलेक्ज़ेंडर पोप के शब्दों में चतुरतम के साथ-साथ क्षुद्रतम(wisest and meanest of mankind) भी थे। उन्हें राज्य द्वारा दंडित भी किया गया था। तो फिर हम ही क्यों मानें उनकी बात? हम बात भले ही करें पूरे हिंदुस्तान की पर सुनते हैं सिर्फ आलाकमान की।
    अधिवेषणों में गांधी के नाम पर पहने जाने वाली खद्दर की टोपी को पहने गांधी जी का कोई चित्र मैंने तो आज तक कहीं नहीं देखा। तो फिर हमारे मनमोहन जी से ही क्यों अपेक्षा रखी जाए कि वे 79 मंत्रियों वाला जंबो मंत्रिमण्डल का बोझ देश की जनता पर न डालें। जो जनता टू जी से लेकर कोयला खदान के घोटाले तक और महँगे पेट्रोल से लेकर हिमालयीन जड़ी-बूटियों की तरह दुर्लभ होते जा रहे गैस सिलेंडरों की कीमतों के बोझ को सह कर भी जिंदा है वह क्या बाईस नए मंत्रियों का बोझ नहीं सहन कर सकती !
              मंत्रियों की तादाद और दर्ज़े का संबंध अब राज्य की आबादी से जुड़ा मुद्दा भी है। चाहें तो चीन का उदाहरण देख लें जहाँ हर सांसद उपमंत्री के दर्ज़े का होता है। मोरारजीभाई के प्रधानमंत्री काल में चरणसिंह उपप्रधानमंत्री थे। एक बार म.प्र. में दो उपमुख्यमंत्री थे। विद्रोहियों व असंतुष्टों का स्वागत करने की हमारी प्राचीन परंपरा रही है। विभीषण ने लंकेश से विद्रोह किया, पुरस्कार में पाया लंका का राज सिंहासन ! म.प्र. में अर्जुनसिंह के समय कुछ विधायक असंतुष्ट हुए और पाया निगमों व मण्डलों का अध्यक्ष पद ! अब राजनीति में आए हैंलाखों रुपए खर्च कर चुनाव लड़ा है, तो क्या खाली-पीली सांसद या   विधायक  बने  रहने  के  लिए ! फिर जिंदा क़ोमें तो वैसे भी पाँच साल इंतजार नहीं कर सकतीं !      
        मैं डॉ. मनमोहनसिंह के मनमोहक मंत्रिमण्डल के विराट स्वरूप के आगे नतमस्तक हूँ !                                        
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                                100, रामनगर एक्स्टेंशन, देवास 455001    

Tuesday, 27 November 2012




व्यंग्य पत्रिका 27/11/12 में प्रकाशित
    
  केजरीवाल और राखी– तुलनात्मक अध्ययन
                     ओम वर्मा
दिग्गी राजा गहन शोध के बाद अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि केजरीवाल राखी सावंत जैसी हरकतें कर रहे हैं। मैंने भी उनसे प्रेरणा ली और दोनों विभूतियों में पाई जाने वाली समानताओं पर एक लघु शोध तैयार किया जिसके अंश प्रस्तुत हैं।
     दोनों का वस्त्र विन्यास सादगीपूर्ण है। राखी बहिन ने अपने आयटम सांग्स में कम से कम वस्त्रों में काम चलाया वहीं केजरीवाल भी कभी भी पूरी सजधज में नज़र नहीं आए। सदा आधी बाँह की शर्ट पहनकर उन्होंने भी देश की वस्त्र समस्या को हल करने की दिशा में राखी बहिन के महायज्ञ में अपना अर्ध्य ही अर्पित किया है। दोनों ने ही छुपी हुई चीजों को अपने-अपने ढंग से एक्सपोज़ही तो किया है !
     राखी बहिन ने गायक मीका को उसकी सेंसरणीय हरकत के बावजूद भी क्षमा कर दिया। उधर केजरीवाल जी ने भी फर्रूखाबाद प्रकरण में रुकावट डालने या देख लेने की धौंस देने वालों को माफ किया। जिस तरह केजरीवाल को न कभी एनडीए वाले समझ पाए न कभी यूपीए वाले। यानी उन्होंने दोनों को ही ठेंगा दिखा दिया। उसी तरह राखी बहिन ने भी स्वयंवर जैसे भव्य आयोजन में भी सभी दस-बारह हसीं चीज के तलबगारों को धता बता दी। दरअसल केजरीवाल व राखी बहिन दोनों की स्थिति आकाश में उड़ती उस पतंग की तरह है जिसे बड़े-बड़े झाँकरे लेकर हर कोई लूटना चाहता है, मगर पतंग उसके हाथ आए उसके पहले ही या तो कोई तीसरा उसे ले उड़ता है या वह तार-तार हो चुकी होती है।
     दोनों ही खुद को आम आदमी बताते हैं। हालांकि दोनों को ही पता नहीं है कि वे कभी के आम से खास में तब्दील हो चुके हैं। राजनीति के कुछ पुराने खिलाड़ी केजरीवाल को और फिल्मी पंडित राखी सावंत को महज पानी का बुलबुला मानते हैं। केजरीवाल के कारण कुछ बड़े लोगों के घरों में स्लीपिंग पिल्स का स्टॉक भी बार बार खत्म हो जाता है, वहीं राखी बहिन ने कई युवाओं व घर में बच्चों से नज़रें बचाकर उनका डांस देखने वाले बुज़ुर्गों की नींद उड़ा रखी है। केजरीवाल के बिना आज का राजनीतिक व राखी बहिन के बिना आज की मनोरंजन की दुनिया का परिदृश्य अधूरा है। उनसे कुछ लोग भले ही ज्यादा अपेक्षा न रखते हों, या वे अपेक्षित परिणाम न दे पाए हों, पर दोनों की उपेक्षा भी संभव नहीं है।
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Wednesday, 14 November 2012




व्यंग्य (नईदुनिया,14/11/12)
      
        फटाके बीनने वाले छोटूऔरबारीक      
                    ओम वर्मा om.varma17@gmail.com
क्ष्मी जी कल रात अपना परंपरागत दीपावली भ्रमण पूर्ण कर पुनः कमल पर विराज गई हैं। इस बार की आतिशबाज़ी और बाज़ार की रौनक देखकर उन्हें भी लगा कि इस जंबूद्वीप में बहुत समृद्धि आ चुकी है। उन्हें आगे से शायद और दौरों की जरूरत नहीं पड़ेगी। अब यहाँ आगे से कोई लेखक अपनी कृति का जहाँ लक्ष्मी क़ैद है’’ जैसा शीर्षक नहीं दे पाएगा और बरोबर करने का धंधा करने वाले चोचलिस्ट (जिस देश में गंगा बहती है में राजकपूर का डाकुओं के लिए कथन ) कोई और कारोबार करने पर मजबूर हो जाएँगे।
     माते शयन प्रारंभ करने ही वाली थीं कि उनकी नज़र तीन-चार बच्चों पर पड़ गई। बच्चों के तन पर दीवाली मना चुके बच्चों की तरह ड्रेस नहीं, कपड़े थे; कंधों पर बेग नहीं, थैलियाँ थीं, और पैरों में शूज़ नहीं बल्कि लूज़ चप्पलें थीं जिनका प्रायोजक ज़ाहिर है कि कोई और था। उनके कपड़ों से मुझे बचपन में रामदुलारे सर की बेंत की मार याद आ गई जो श्रुत लेख में मैली-कुचेली के स्थान पर मेली-कुचेली लिख देने के कारण पड़ी थी। उनके सिर के बाल किसी रॉक स्टार या अलबर्ट आइंस्टीन के बालों की तरह थे। वे प्रसिद्ध आर्कियोलाजिस्ट स्व. श्री वाकणकर की तरह भूमि पर कुछ खोज रहे थे। अकस्मात एक लड़के को कुछ हाथ लगा जिसे लेकर पहले तो वह आर्किमिडिज़ के यूरेका-यूरेका की तर्ज़ पर पारदर्शिता के सिद्धांत का समर्थन कर रही रिक्त स्थान युक्त व यूपीए की तरह अनेक थिगड़ों से निर्मित चड्डी की परवाह किए बिना मिल गया-मिल गया चिल्लाता हुआ भागा, फिर उसे अपनी जेब में डाला। उसके हाथ एक बगैर फुस्स हुआ फटाका जो लग गया था।
         देश में ऐसे कई छोटू और बारीक हैं जो दीवार फिल्म की स्टाइल में भले ही आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाते हों मगर जिनके लिए दीवाली का मतलब आज भी फेंके हुए या न चल पाए फटाके उठाना ही है। कचरा इनके लिए सचमुच लक्ष्मी जी द्वारा भेजी गई कृपा ही है जिसके लिए उन्हें किसी भी बाबा के किसी भी बैंक खाते में कोई शुल्क जमा नहीं करना पड़ता ! कचरे में से भी “सार सार को गही लेय, थोथा देय उड़ाय...” सूक्ति को चरितार्थ करते ये आशावादी बच्चे बत्तीस रु. रोज की गरीबी की सीमा रेखा को भी ठेंगा दिखाते हुए अमावस्या को भले ही न मना पाए हों, पर आज इन्हें दीवाली मनाने से वर्तमान व पिछली सरकार को जेब में रखने का दावा करने वाला कोई अरबपति भी नहीं रोक पाएगा।
        बच्चों के चेहरों पर जिस परमानंद की प्राप्ति के भाव लक्ष्मी माता ने देखे वैसे रात्रि भ्रमण में उन्हें कहीं नहीं दिखाई दिए थे। कुछ पल उन्हें निहारने के बाद  उनके हौसले को असीसती हुई आखिर वे कमलासन की ओर प्रस्थान कर ही गईं।
       शुक्र है कि खुशी के कुछ पल चुरा लेने के लिए थोड़ी स्पेस कुदरत ने आखिर इनके लिए भी तो छोड़ी है।                                                            
                                   ***
            100,रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001(म प्र )                                






व्यंग्य(पत्रिका 14/11/12)



                     व्यंग्य
                                  हाथी और चींटी
                                                   ओम वर्मा    om.varma17@gmail.com
वे खुद को या कहें कि अपनी टोली को हाथी मानते हैं और उनकी नाक में दम करने वाले एक सड़क छापशख्स को चींटी ...! चींटी है कि जरा भी डरने को तैयार नहीं ! हाथी और उसके महावत को तो यही समझ में नहीं आ रहा है कि ये कम्बख्त  चींटी आखिर चाहती क्या है । हाथी चींटी को मसल के रख देने की बात या सीधे शब्दों में कहें तो मारने की धौंस देता ज़रूर है, पर जितना वह चींटी पर धौंस जमाने की कोशिश करता है,उतना ही अपना हाथीपना खोता जा रहा है । हो सकता है कि किसी रोज हाथी हाथी न रहे और सफेद हाथीबनकर रह जाए जिनकी देश में पहले ही कोई कमी नहीं है ।    
       वो हाथी हाथी ही क्या जो मद में न आए ! और वो चींटी चींटी ही क्या जिसके पर न निकल आएं ! फर्क़ सिर्फ इतना है कि हाथी जब मद में आता है तो इतना विध्वंसक हो जाता है कि मार दिया जाता है, जबकि चींटी में पर आने का मतलब जीवनकाल पूर्ण होना भर है । खुद को हाथी घोषित करने वाले सज्जन और उनके साथियों में जाहिर है कि मदमाने के लक्षण बढ़ते जा रहे हैं।
                 हाथियों के साथ दिक्कत यह है कि वे खाते भी जमकर हैं और उजाड़ते भी बहुत हैं । अपने वज़न से आधा वज़न भी बड़ी मुश्किल से ढो पाते हैं । और खुद तो भरपूर जगह घेरते ही हैं दूसरों के लिए कभी स्पेसरखना ही नहीं जानते । वहीं चींटी अपने वज़न से कई गुना अधिक वज़न ढो सकती है । चींटियाँ इकिडना’(Echidna)या स्पाइनी एंट ईटर जैसे ऑस्ट्रेलियन स्तनपाई प्राणी के आहार के काम भी आती हैं । हाथियों का उजाड़ करने में विश्वास है जबकि चींटी समाजिक सह जीवन की शिक्षा देती हैं ।
        यह सही है कि किसी युग में एक हाथी के बच्चे ने अपना शीश देकर भगवान श्री गणेश को नवजीवन दिया था । मगर आज के हाथी खुले आम दूसरों के शीश काट लेने की धौंस देने लग गए हैं । मेनका गांधी के जीव-दया आंदोलन से पूर्व हाथी सर्कसों के भी अनिवार्य अंग हुआ करते थे जिसकी पूर्ति इन स्वयंभू हाथियों ने पिछले दिनों सर्कसों सी  कलाबाज़ियाँ दिखा-दिखाकर कर दी है। वे हाथी सचमुच किसी के साथी भी हुआ करते थे जबकि ये हाथी फौज़ के उन पगलाए हाथियों की तरह हैं जिनसे खुद अपनी ही फौज़ के मारे-कुचले जाने का अंदेशा बना हुआ है ।
           हे प्रभु ! चींटियों से इन हाथियों की रक्षा करना ! मैंने सुना है कि अगर चींटी कान के रास्ते अगर हाथी की नाक में प्रवेश कर जाए तो झूम-झूमकर चलने वाले गजराज को 'सड़क छाप' बनते देर नहीं लगती ।

                   100, रामनगर एक्सटेंशन,देवास(म.प्र.)455001 

Friday, 9 November 2012

               दबंग दुनिया, 09/11/12 
               दो  ग़ज़लें       ओम वर्मा 

                               एक                           
   जिस  तरह  थामे कोई  गिरती हुई दीवार को |
   तसल्लियाँ वे दे  रहे गिरती  हुई  सरकार को |

   माना कि पैसे नहीं लगते किसी  भी पेड़  पर,
   फिर काटते क्यों नहीं खेतों की खरपतवार को |

   यह तो हुई कुछ इस तरह की बात मेरे दोस्तों,
   नाव  में  ही छेद  हैं  और   दोष दें पतवार को |

   बाहरी  रंग-रूप घर का फिर सजाने  के लिए ,
   आज निकले हैं  'भियाजी' बेचने घरबार को  |

    हर शहर हर गाँव से आवाज आती है यही,
    क्या हुआ है आज 'बूढ़े शेर' की ललकार को  
                       ***
                    दो  
     होते  हैं  घोटाले     कितने  |
     छापें या कि उछालें कितने |

     हमने  अपनी  आस्तीन में,
     किंग कोबरे  पाले  कितने |

     बेटों में खलबली, बाप अब 
     खाने लगा निवाले कितने |

     देते  हो हमको जो सिक्के,
     खर्चें  और  बचालें कितने |

     बात  बात में  लग  जाते हैं,
     हर पल मिर्च मसाले कितने|

     इश्को-मुश्क और घोटाले , 
     छुपे नहीं, हों ताले कितने |    
                         ओम वर्मा  <om.varma17@gmail.com>
                              100, रामनगर एक्सटेंशन , देवास 455001(म.प्र.)
          

Monday, 5 November 2012



व्यंग्य (पत्रिका, 05/11/12)
        
         मंत्रीमण्डल में फेरबदल
                                     
                                          ओम वर्मा                  
सारे घर में कोहराम मचा हुआ था। रोज़ रोज़ आलू-गोभी और भटे की सब्ज़ी। बहू बेचारी करे तो क्या करे! कभी ससुर नाराज़ तो कभी सास, कभी ननद नाराज़ तो कभी भौजाई...। पति ने तो आज थाली उठाकर ही फेंक दी। यानी पत्नी पर इतना ज्यादा दबाव पड़ चुका था कि उसे सब्ज़ी बदलने के बारे में गंभीरता से विचार करना पड़ गया। घबराई पत्नी ने अपनी माँ से राय ली। माँ की सलाह पर बहू ने ससुराल में सब्ज़ी के मेनू में प्रस्तावित भारी फेरबदल कर ही दिया। क्या था आखिर वो भारी फेरबदल? आलू-गोभी और भटे के बजाय आलू-भटे और गोभी, और एक बार गोभी-भटे-आलू, किसी दिन भटे-आलू-गोभी, किसी दिन सूखे आलू-भटे-गोभी, किसी दिन गीले आलू-भटे-गोभी
                       कुछ ऐसा ही फेरबदल दिल्ली में हुआ है। रामलाल को श्यामलाल की जगह, श्यामलाल को पन्नालाल की जगह, और पन्नालाल को रामलाल की जगह...एण्ड सो ऑन...! क्या ममता दी की धौंस का जादू है ये फेरबदल...या सलमान खुर्शीद की ऐतिहासिक प्रेस कॉन्फ्रेंस का प्रतिफल..। या शायद प्रधानमंत्री जी प्रकाश जायसवाल की पुरानी पत्नी के मज़ा नहीं दे पाने की शिक्षाप्रद सीख से प्रभावित हो गए हों और इस कारण उन्हें अब पुराने मंत्रीमण्डल में मज़ा नहीं आ रहा हो। वैसे भी कोयला महँगाई ;एफडीआई या ऐसे ही बार-बार उछाले जा रहे मुद्दों से जनता अब बोर हो चुकी है। नए लोग होंगे तो कुछ नई बातें सामने आ सकती हैं। सलमान जी जब देश की कानून व्यस्था के मंत्री थे तब उन्होंने खिलाफ बोलने पर आईएसी वालों को अपने इलाके में आए तो वापस न जाने देने की अपनी शैली में धमकी दी थी। अब वे विदेशमंत्री हैं। मान लो विदेश में किसी प्रेस कॉन्फ्रेंस में कोई नया केजरीवाल सामने आ जाए और कुछ वैसे ही खतरनाक सवाल पूछ बैठे, तब क्या उन्हें भारत से वापस न जा पाने की धमकी दी जाएगी?
                    किसी भी सरकार के फेरबदल पर विपक्ष वाले ये अवश्य कहते हैं कि नई बोतल में पुरानी शराब भर दी गई है। मगर आप यह न भूलें कि बाकी सारी पुरानी चीजों को कुछ लोग भले ही बेमज़ा समझ लें, मगर रिंदों के अनुसार शराब जितनी पुरानी होगी उतनी ही अच्छी या महँगी मानी जाती है।     
                   नए मंत्रीमण्डल के सभी महानुभावों से निवेदन है कि इतने भी ईमानदार मत बन जाना कि विपक्ष वाले, अखबारों में व्यंग्य लिखने और आईएसी  वाले हाथ पर हाथ धरे बैठे ही रह जाएँ।
                                                                                                                    ***
                           100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001