दबंग दुनिया, 09/11/12
दो ग़ज़लें ओम वर्मा
एक
जिस तरह थामे कोई गिरती हुई दीवार को |
तसल्लियाँ वे दे रहे गिरती हुई सरकार को |
माना कि पैसे नहीं लगते किसी भी पेड़ पर,
फिर काटते क्यों नहीं खेतों की खरपतवार को |
यह तो हुई कुछ इस तरह की बात मेरे दोस्तों,
नाव में ही छेद हैं और दोष दें पतवार को |
बाहरी रंग-रूप घर का फिर सजाने के लिए ,
आज निकले हैं 'भियाजी' बेचने घरबार को |
हर शहर हर गाँव से आवाज आती है यही,
क्या हुआ है आज 'बूढ़े शेर' की ललकार को
***
दो
होते हैं घोटाले कितने |
छापें या कि उछालें कितने |
हमने अपनी आस्तीन में,
किंग कोबरे पाले कितने |
बेटों में खलबली, बाप अब
खाने लगा निवाले कितने |
देते हो हमको जो सिक्के,
खर्चें और बचालें कितने |
बात बात में लग जाते हैं,
हर पल मिर्च मसाले कितने|
इश्को-मुश्क और घोटाले ,
छुपे नहीं, हों ताले कितने |
ओम वर्मा <om.varma17@gmail.com>
100, रामनगर एक्सटेंशन , देवास 455001(म.प्र.)
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