व्यंग्य , पत्रिका (28/12/12)
लकीर पर चिंतन
साँप निकल चुका था। चिंतन जारी था। सबके हाथों में बड़ी बड़ी लाठियाँ थीं। इतने धुरंधरों के होते साँप
आखिर बच कर कैसे निकल गया। जवाब देना मुश्किल हो रहा था। माहौल कुछ ऐसा था कि
सामूहिक बलात्कार पर बहस में भाग लेते समय भी जिनकी मुस्कराहट गायब नहीं होती थी
आज उन्होंने भी गंभीरता औढ़ रखी थी। एक राज्य में तीसरी बार उनकी हार हुई थी और
परंपरानुसार बिखरे दूध पर रोया जा रहा था। साँप की छोड़ी गई लकीर पर लाठियाँ
भांजी जा रही थीं। हार का ठीकरा फोड़ने के लिए सही सिर तलाशा जा रहा था।
“मैंने
उसको बंदर कहा था पर शायद लोगों ने उसे हनुमान समझ लिया।” एक
चिंतक ने कहा।
“मैंने
तो उसे राक्षस कहा था पर ये लोग उसे राक्षस मानने को तैयार ही नहीं हो रहे हैं।”
दूसरे चिंतक ने दूर की कौड़ी पेश की।
“मैडम
ने पहले ही उसको आदमखोर बता दिया था, पर
शायद लोगों ने माखनचोर सुन लिया होगा।” सिर्फ अपने अद्भुत
बयानों के कारण चर्चा में बने रहने वाले एक अन्य आधार स्तंभ ने यहाँ भी वफादारी
प्रदर्शन का मौका नहीं छोड़ा।
“हम भी
उसके मुकाबले के लिए अपने युवराज को लाए थे...कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने युवराज
की एक्सेप्टिबिलिटी उनके मुकाबले पब्लिक में कम हो ?” एक कम चर्चित पार्टीमेन ने दबी जुबान से
थोड़ी हिम्मत करके अंधों की बस्ती में ‘आईने ले लो’ जैसी
आवाज निकालने की कोशिश की।
“ये
कौन बद्तमीज़ घुस आया है..!” एक भियाजी किस्म के कार्यकर्ता
ने हाँक लगाई। इतने में बाकी लोगों ने युवराज की स्वीकार्यता पर शंका उठाने वाले ‘विद्रोही’ को अस्वीकार करते हुए टांगा-टोली
कर सीधा वानप्रस्थ आश्रम दिखा दिया।
“नहीं, हमारी हार का असली कारण ‘थ्री डी’ टेक्नॉलाजी है जिसके न होने से जहाँ हमारे युवराज एक बार में एक ही जगह
दिखते थे वहीं वो किशन कन्हैया की तरह रास लीला में एक दो नहीं पूरे छब्बीस
स्थानों पर गोपियों को अपने अपने साथ
नज़र आते थे।“
हार
का ठीकरा फोड़ने के लिए सर की तलाश पूरी हुई। छ्ह करोड़ लोग आखिर क्या चाहते थे, इस बारे में कभी बाद में
सोचेंगे।
***
100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001(म.प्र.)
मो.
09302379199
|
Saturday, 29 December 2012
शीत लहर-एक शब्द चित्र - मौसम का बिगड़ा मिज़ाज
व्यंग्य
शीत लहर-एक शब्द चित्र
मौसम का बिगड़ा मिज़ाज
कथाशिल्पी
प्रेमचंद की कहानी- ‘पूस की रात’...!
ठण्ड से ठिठुरता
हल्कू...और ताने मारती मुन्नी...! बार बार कोसती रहती है कि वह इफरात में खर्च न
करे ताकि कुछ बचत हो सके और ‘कम्मल’ खरीदा जा सके ताकि ‘पूस-माघ’ ढंग से कट सकें।
अब परिस्थितियाँ बदल चुकी
हैं। कंबल हर घर में है। मगर फिर भी ये सर्दियाँ जानलेवा साबित हो रही हैं।
मुन्नियाँ हल्कुओं को कोस रही हैं- “ठण्ड भगाने के लिए कुछ करो...कहा था कि रजाई
भारी बनवाना...बनवा लाए चादरे जैसी...! रूम हीटर ही ले आते तो कमरा ही थोड़ा गर्म
हो जाता !”
अब इन मुन्नियों को कौन
समझाए कि ठण्ड भगाने के लिए यदि रूम हीटर चलाए गए तो बाद में बिजली का बिल
देखकर दिमाग पर जो गर्मी चढ़ेगी, उसे उतारने के लिए
किस्तों पर एयर कंडीशनर बेचने वाली दुकान ढूढ़ना पड़ेगी।
आखिर मौसम का मिज़ाज इतना
बिगड़ा हुआ क्यों है? क्यों न इन वैज्ञानिक महोदय से ही पूछ लिया जाए।
अरे ये क्या !
इन्होंने तो अपना
हुलिया ही बदल डाला है। फ्रैंच कट दाड़ी गायब है...अंधत्व निवारण शिविर से थोक में
ऑपरेशन करवा कर लौटे रोगी की तरह काला चश्मा लगा रखा है और सूट टाई पर शाल
लपेटे घूम रहे हैं। लेकिन जनाब भले ही लाख पर्दों में छुप
जाइएगा...नज़र आइएगा ...नज़र आइएगा...! तो आखिर अलाव तापते रँगे हाथों पकड़े ही गए !
“कहिए जनाब ! ये शीत लहर
आखिर कब तक चलती रहेगी ?”
“ दरअसल ये ग्लोबल कूलिंग
हो रहा है !”
“लेकिन कल तक तो आप
ग्लोबल वार्मिंग के नाम से डरा रहे थे और मुंबई जैसे तटवर्ती शहरों का डूबने का
खतरा बता रहे थे...!”
“मेरा मतलब यह नहीं था...वास्तव
में मीडिया ने हमारे बयानों को गलत ढंग से प्रस्तुत किया था !” मेरे देखते ही
देखते एक अच्छे खासे मनुष्य का गिरगिटीकरण होने लगा।
अपने राम को न तो
वैज्ञानिकों की बात समझ में आती है, और न ही
ज्योतिषियों की। ज्वलंत विषयों पर दोनों वर्गों के लोग जो भविष्यवाणी करते हैं, वह प्रायः फेल हो जाती है। बाद में ये अपनी
गणनाओं की त्रुटि का कारण बताने लगते हैं या फिर “हमारा मतलब यह नहीं था...” जैसी
बेमतलब की लीपापोती करने लग जाते हैं।
लाख टके की बात तो यह है
कि आखिर इस जमा देने वाले जाड़े से निजात मिले तो कैसे ? अपने बयानों से आग लगाती रहने वाली फायर ब्राण्ड
नेत्रियों और ऐसे ही कुछ अन्य बयानवीरों से मैंने पूछा तो उन्होंने मंजूर किया कि
वे वैचारिक आग तो लगा सकते हैं मगर भौतिक रूप से गर्माहट नहीं उत्पन्न कर सकते !
आज समाज में बहस, चिंता, या सफर में अपरिचितों के बीच बातचीत के मुद्दे बदल चुके हैं। कल तक जो
लोग राह चलते को रोक कर पूछ लेते थे “भाई नया घोटाला कब सामने आ रहा है”, आज पूछते हैं कि “नए टोपे दुकानों पर आए या नहीं,
या “ये स्वेटर कहाँ से लिया, या “आखिर ये ठण्ड कब खत्म होगी
यार…?” हिंदी की प्रसिद्ध कहानी ‘उसने
कहा था’ मुझे याद आने लगती है—लहनासिंह के साथी ठण्ड से इतने
परेशान हो गए हैं कि चाहते हैं कि ‘जंग’ हो ताकि कुछ गर्मी ही आए !
सुबह जिसे देखो वही कुछ कम हाइट वाला नज़र
आता है। क्या लोगों की औसत ऊँचाई एक-दो इंच कम हो गई है ? जी नहीं। ध्यान से देखने पर समझ में आता है कि हर शख्स सिकुड़कर गुड़ी-मुड़ी
होकर चल रहा है। मिलते ही तपाक से हाथ मिलाने वाला शख्स देखकर मुँह फेर रहा है कि
कहीं गलती से जेब की गर्मी छोड़कर हाथ बाहर न निकालना पड़ जाए। गलती से अगर उन्हें
हाथ मिलाना भी पड़ जाए तो बहुत देर तक हाथ छोड़ते ही नहीं,
मानो ‘उष्मा के परिवहन’ के सिद्धांत को
आज ही सिद्ध करना चाहते हों।
चौराहे पर देखता हूँ कि पुतलेनुमा किसी
वस्तु पर आग लगाई जा रही है। शायद कोई विरोध प्रदर्शन है। मगर तुरंत ही मेरी सारी
गलतफहमी दूर हो जाती है। देखता हूँ कि न तो कोई नारेबाज़ी हो रही है और न कहीं कोई
झण्डा या बैनर दिखाई देता है। यह तो ठण्ड भगाने का इंतजाम है। जिन्हें मैं
प्रदर्शनकारी समझे बैठा था वे और खाकी वर्दी पर चादर लपेटे दो पुलिस के जवान मिलकर
हाथ सेंकने का उपक्रम करने
लगते हैं।
धर्म, जाति, और छोटे मोटे स्वार्थों के पीछे उलझ पड़ने वाले लोग या समूह फिलहाल कम से
कम इस बात पर तो एकमत हैं कि अमेरिका जैसा देश चाहे मंदी की गिरफ्त में हो, हम इस समय ठण्डी की गिरफ्त में हैं। मुझे लगता है कि जैसे भोपाल के
यूनियन कार्बाइड में किसी की गलती से ‘मिक’ गैस के टैंक का वॉल्व खुल गया था, वैसा ही शायद ऊपर
वाले के दरबार में कोई मौसम का स्विच चेंजओवर करना भूलकर गर्ल फ्रैण्ड से मोबाइल
पर गप्पें लगाने चला गया है। नीचे वाले मरें तो मरें उसकी बला से !
घर के कबाड़खाने से झाड़-पोंछकर
अँगीठी ढूढ़ निकाली गई है। आखिरी समय में खोटा सिक्का ही तो काम आता है। लकड़ी के
कोयले की टाल ढूढ़ ली गई है। शाम को टीवी के सामने इकट्ठे होने के बजाय अलाव के
आसपास पंचायत जुड़ने लगी है।
सुबह हो गई है। दरवाजे पर पेपर फेंकने की
आवाज आ चुकी है। कोई भी भागकर पेपर झपटने को तैयार नहीं है। रजाई कौन छोड़े ! आज
संडे है। किसकी हिम्मत जो आठ से पहले मुझे उठा सके। घर के वरिष्ठ नागरिक यानी
पिताश्री अखबार के बगैर छटपटाने लगते हैं और शाल, टोपे और
मौजों के जिरह बख्तर से लेस होकर अखबार उठाने चल देते हैं। बच्चे खुश हैं कि स्कूल
का समय बढ़ा दिया गया है। श्रीमती जी कुढ़मुढ़ा रही हैं कि ‘बाई’ आज भी आती दिखाई नहीं देती।
सुबह सुबह स्कूलों में बच्चे मुँह से वाष्प
छोड़कर धूम्रपान की नकल करने लगते हैं। क...क...किरण बोलने वाले इस शख्स को आप
शाहरुख खान समझने की भूल न करें। दरअसल ठण्ड के मारे इसके दाँत किटकिटा रहे हैं।
भियाजी बड़े खुश और गणित के पक्के हैं। पारा प्रतिदिन जितना नीचे जाने लगता है, उससे निपटने के लिए वे अंगूर की बेटी से उतनी ही निकटता बढ़ाने लगते हैं।
ठण्ड से सबकी अपने अपने ढंग से जंग जारी है।
***
Wednesday, 19 December 2012
व्यंग्य , (पत्रिका, 19/12/12)
मन में लड्डू फूटा
ओम वर्मा om.varma17@gmail.com
पत्नी ने चाय का कप हाथ में देते
हुए कहा,
“तुम
देश के प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन जाते...।”
“तुम्हारा दिमाग तो
नहीं खराब हो गया?” मेरे हाथ से कप गिरते गिरते बचा। चाय तो
खैर छलक ही गई थी।
“अजीब बात है ! किसी को पीएम बनने के योग्य
समझना या बताना क्या पागलपन या दिमाग खाराब होने वाली बात है ?” पत्नी के सुषमा स्वराजी स्वरूप का उमा भारतीकरण होने लगा।
“नहीं, मेरा मतलब है कि
मुझमें कहाँ हैं पीएम बनने के गुण...! मेरी तो घर में ही कोई नहीं सुनता…”
“कोई बात नहीं...बिना कहे सुने
भी काम चल सकता है...!”
“अरे,
मेरा मतलब है कि मैं अपने अड़ोस-पड़ोस वालों तक से अपने विवाद या मनमुटाव नहीं सुलझा
पाया...।” मैंने चाय का लंबा सिप लिया। चाय बहुत अच्छी लगी।
“अरे तुम तो पूरी तरह से क्वालीफाय करते जा रहे
हो।“ यह सुनकर मेरे मन में लड्डू फूटा !
“देखो
मैंने तुम्हे लॉन्च करने की पूरी तैयारी कर ली है। एक अंग्रेजी अखबार ‘पैड न्यूज़’ के बदले तुम्हें अपने अग्रलेख में पीएम के ‘योग्य’ बताने के लिए तैयार है। इन दिनों लीक़ से हटकर बयान देने वाले या बयानों
से धमाका करते रहने वाले ‘राजा सा.’ को
भी टच करके देख लेंगे। हो सकता है कि वो भी तुमको प्रमोट करके कम से कम नरेंद्रभाई
से तो बढ़त दिला ही दें !” पत्नी, पत्नी न रही, ‘किंग मेकर’ या कहें कि ‘चेयरपर्सन’ बनने चली थीं।
मेरे मन
में दूसरा लड्डू फूटने लगा था। मैं उस युग की पैदाइश हूँ जिसमें पीएम यानी सिर्फ नेहरू
ही होता था...। फिर कॉलेज में आया तो पीएम यानी इंदिरा गांधी जिन्हें बाद में
इंडिया के पर्याय के रूप में भी परिचालित किया जाने लगा था...। मगर उसके बाद तो
इतने पीएम बन चुके हैं या बनने के सपने देख चुके हैं या ‘पीएम इन वेटिंग’ के रूप में वेटिंग हॉल में विराजित
हैं कि हॉल छोटा पड़ने लगा है। मेरी पत्नी भी मुझे वहाँ देखना चाहती है तो क्या गलत
है?
मैं
खुद को पीएम रेस का दावेदार घोषित करता हूँ।
*** 100, रामनगर एक्सटेंशन , देवास 455001
Friday, 30 November 2012
दबंग दुनिया , 30/11/12 में प्रकाशित व्यंग्य की लिंक
http://74.127.61.178/ dainikdabang/Details.aspx?id= 3781&boxid=175735296#. ULiuBvofqOo.email
http://74.127.61.178/
व्यंग्य, दबंग दुनिया , 30/11/12
मोर की दिखावटी पूँछ और मंत्रिमण्डल
ओम वर्मा
om.varma17@gmail.com
एलिज़ाबेद काल के
प्रसिद्ध अँगरेजी निबंधकार सर फ्राँसिस बेकन ने अपने एक निबंध ‘ऑव फालोअर्स एण्ड फ्रेंड्स’ (Of followers and friends) में लिखा
है कि “शासक या बड़े व्यक्ति को अनुगामियों या मुसाहिबानों की अधिकता से हमेशा
बचना चाहिए क्योंकि उनकी अधिकता उनके रखरखाव को बहुत खर्चीला बना देती है ।‘’ अपने
दरबारियों पर जरूरत से ज्यादा खर्च करने वाले शासक की तुलना मोर से करते हुए वे
लिखते हैं- “मोर की पूँछ के दिखावटी पंख जितने ज्यादा बड़े होते हैं, उसकी उड़ान में वे उतने ही ज्यादा बाधक भी होते
हैं। उनकी साज-सजावट पर उसे अतिरिक्त ध्यान देना पड़ता है सो अलग ।‘'
बेकन के कथन से कम से कम यह तो जाहिर
होता ही है कि मंत्रिमण्डल में ज्यादा मंत्री रखने यानी सफेद हाथी पालने की समस्या
कल भी थी और आज भी है; पश्चिम में भी थी और पूर्व में भी है।
लेकिन बेकन ने जो कहा उसे हम भी मानें यह
जरूरी तो नहीं! सूत्रात्मक (aphoristic)शैली में लिखे अपने
निबंधों में बेकन ने ऐसी कई बातें कही हैं जिनका पालन खुद उन्होंने नहीं किया।
बेकन एक अन्य विचारक एलेक्ज़ेंडर पोप के शब्दों में चतुरतम के साथ-साथ क्षुद्रतम(wisest
and meanest of mankind) भी थे। उन्हें राज्य द्वारा दंडित भी किया
गया था। तो फिर हम ही क्यों मानें उनकी बात? हम बात भले ही
करें पूरे हिंदुस्तान की पर सुनते हैं सिर्फ आलाकमान की।
अधिवेषणों में गांधी के नाम पर पहने
जाने वाली खद्दर की टोपी को पहने गांधी जी का कोई चित्र मैंने तो आज तक
कहीं नहीं देखा। तो फिर हमारे मनमोहन जी से ही क्यों अपेक्षा रखी जाए कि वे 79
मंत्रियों वाला जंबो मंत्रिमण्डल का बोझ देश की जनता पर न डालें। जो जनता ‘टू जी’ से लेकर ‘कोयला खदान’ के घोटाले तक और महँगे पेट्रोल से लेकर हिमालयीन जड़ी-बूटियों की तरह
दुर्लभ होते जा रहे गैस सिलेंडरों की कीमतों के बोझ को सह कर भी जिंदा है वह क्या
बाईस नए मंत्रियों का बोझ नहीं सहन कर सकती !
मंत्रियों की तादाद और दर्ज़े का
संबंध अब राज्य की आबादी से जुड़ा मुद्दा भी है। चाहें तो चीन का उदाहरण देख लें
जहाँ हर सांसद उपमंत्री के दर्ज़े का होता है। मोरारजीभाई के प्रधानमंत्री काल में
चरणसिंह उपप्रधानमंत्री थे। एक बार म.प्र. में दो उपमुख्यमंत्री थे। विद्रोहियों व असंतुष्टों का स्वागत करने की हमारी
प्राचीन परंपरा रही है। विभीषण ने लंकेश से विद्रोह किया, पुरस्कार में पाया लंका का राज सिंहासन ! म.प्र. में अर्जुनसिंह के समय कुछ विधायक असंतुष्ट
हुए और पाया निगमों व मण्डलों का अध्यक्ष पद ! अब राजनीति में आए हैं, लाखों रुपए खर्च कर चुनाव लड़ा है, तो क्या खाली-पीली सांसद या विधायक बने रहने के लिए ! फिर जिंदा क़ोमें तो वैसे भी पाँच साल इंतजार नहीं कर सकतीं !
मैं डॉ.
मनमोहनसिंह के मनमोहक मंत्रिमण्डल के विराट स्वरूप के आगे नतमस्तक हूँ !
***
100, रामनगर एक्स्टेंशन, देवास 455001
Tuesday, 27 November 2012
व्यंग्य ‘पत्रिका’ 27/11/12 में प्रकाशित
‘केजरीवाल और राखी’– तुलनात्मक अध्ययन
ओम वर्मा
दिग्गी राजा गहन शोध के बाद अंततः इस निष्कर्ष पर
पहुँचे कि ‘केजरीवाल राखी सावंत जैसी हरकतें कर रहे हैं।‘ मैंने भी उनसे
प्रेरणा ली और दोनों विभूतियों में पाई जाने वाली समानताओं पर एक लघु शोध तैयार
किया जिसके अंश प्रस्तुत हैं।
दोनों का वस्त्र विन्यास सादगीपूर्ण है। राखी बहिन ने अपने आयटम सांग्स में
कम से कम वस्त्रों में काम चलाया वहीं केजरीवाल भी कभी भी पूरी सजधज में नज़र नहीं
आए। सदा आधी बाँह की शर्ट पहनकर उन्होंने भी देश की वस्त्र समस्या को हल करने की
दिशा में राखी बहिन के महायज्ञ में अपना अर्ध्य ही अर्पित किया है। दोनों ने ही
छुपी हुई चीजों को अपने-अपने ढंग से ‘एक्सपोज़’ ही तो किया है !
राखी
बहिन ने गायक मीका को उसकी ‘सेंसरणीय’ हरकत के बावजूद भी
क्षमा कर दिया। उधर केजरीवाल जी ने भी फर्रूखाबाद प्रकरण में रुकावट डालने या ‘देख लेने’ की धौंस देने वालों
को माफ किया। जिस तरह केजरीवाल को न कभी एनडीए वाले समझ पाए न कभी यूपीए वाले।
यानी उन्होंने दोनों को ही ठेंगा दिखा दिया। उसी तरह राखी बहिन ने भी स्वयंवर जैसे
भव्य आयोजन में भी सभी दस-बारह ‘हसीं चीज के तलबगारों’ को धता बता दी।
दरअसल केजरीवाल व राखी बहिन दोनों की स्थिति आकाश में उड़ती उस पतंग की तरह है जिसे
बड़े-बड़े झाँकरे लेकर हर कोई लूटना चाहता है, मगर पतंग उसके हाथ आए उसके पहले ही या तो
कोई तीसरा उसे ले उड़ता है या वह तार-तार हो चुकी होती है।
दोनों
ही खुद को ‘आम आदमी’ बताते हैं। हालांकि दोनों को ही पता नहीं है कि वे कभी के आम से खास में
तब्दील हो चुके हैं। राजनीति के कुछ पुराने खिलाड़ी केजरीवाल को और फिल्मी पंडित
राखी सावंत को महज पानी का बुलबुला मानते हैं। केजरीवाल के कारण कुछ ‘बड़े लोगों’ के घरों में
स्लीपिंग पिल्स का स्टॉक भी बार बार खत्म हो जाता है, वहीं राखी बहिन ने
कई युवाओं व घर में बच्चों से नज़रें बचाकर उनका डांस देखने वाले बुज़ुर्गों की नींद
उड़ा रखी है। केजरीवाल के बिना आज का राजनीतिक व राखी बहिन के बिना आज की मनोरंजन
की दुनिया का परिदृश्य अधूरा है। उनसे कुछ लोग भले ही ज्यादा अपेक्षा न रखते हों, या वे अपेक्षित
परिणाम न दे पाए हों, पर दोनों की उपेक्षा भी संभव नहीं है।
***
Sunday, 25 November 2012
Wednesday, 14 November 2012
व्यंग्य (नईदुनिया,14/11/12)
फटाके बीनने वाले ‘छोटू’और‘बारीक’
लक्ष्मी जी कल रात
अपना परंपरागत दीपावली भ्रमण पूर्ण कर पुनः कमल पर विराज गई हैं। इस बार की
आतिशबाज़ी और बाज़ार की रौनक देखकर उन्हें भी लगा कि इस जंबूद्वीप में बहुत समृद्धि
आ चुकी है। उन्हें आगे से शायद और दौरों की जरूरत नहीं
पड़ेगी। अब यहाँ आगे से कोई लेखक अपनी कृति का ‘जहाँ लक्ष्मी
क़ैद है’’ जैसा शीर्षक नहीं दे पाएगा और ‘बरोबर करने का धंधा करने वाले चोचलिस्ट’ (‘जिस देश में गंगा बहती है’ में राजकपूर का डाकुओं के
लिए कथन ) कोई और कारोबार करने पर मजबूर हो जाएँगे।
माते शयन प्रारंभ करने ही वाली थीं कि उनकी
नज़र तीन-चार बच्चों पर पड़ गई। बच्चों के तन पर दीवाली मना चुके बच्चों की तरह ‘ड्रेस’ नहीं, कपड़े थे; कंधों पर ‘बेग’ नहीं, थैलियाँ थीं, और पैरों में शूज़ नहीं बल्कि लूज़
चप्पलें थीं जिनका प्रायोजक ज़ाहिर है कि कोई और था। उनके कपड़ों से मुझे बचपन में
रामदुलारे सर की बेंत की मार याद आ गई जो श्रुत लेख में ‘मैली-कुचेली’ के स्थान पर ‘मेली-कुचेली’ लिख देने के कारण पड़ी थी। उनके सिर के बाल किसी रॉक स्टार या अलबर्ट
आइंस्टीन के बालों की तरह थे। वे प्रसिद्ध आर्कियोलाजिस्ट स्व. श्री वाकणकर की तरह
भूमि पर कुछ खोज रहे थे। अकस्मात एक लड़के को कुछ हाथ लगा जिसे लेकर पहले तो वह आर्किमिडिज़
के ‘यूरेका-यूरेका’ की तर्ज़ पर पारदर्शिता
के सिद्धांत का समर्थन कर रही रिक्त स्थान युक्त व ‘यूपीए’ की तरह अनेक थिगड़ों से निर्मित चड्डी की परवाह किए बिना ‘मिल गया-मिल गया’ चिल्लाता हुआ भागा, फिर उसे अपनी जेब में डाला। उसके हाथ एक बगैर फुस्स हुआ फटाका जो लग गया
था।
देश में ऐसे कई ‘छोटू’ और ‘बारीक’ हैं जो ‘दीवार’ फिल्म
की स्टाइल में भले ही आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाते हों मगर जिनके लिए दीवाली
का मतलब आज भी फेंके हुए या न चल पाए फटाके उठाना ही है। कचरा इनके लिए सचमुच
लक्ष्मी जी द्वारा भेजी गई कृपा ही है जिसके लिए उन्हें किसी भी बाबा के किसी भी
बैंक खाते में कोई शुल्क जमा नहीं करना पड़ता ! कचरे में से भी “सार सार को गही
लेय, थोथा देय उड़ाय...”
सूक्ति को चरितार्थ करते ये आशावादी बच्चे बत्तीस रु. रोज की गरीबी की सीमा रेखा
को भी ठेंगा दिखाते हुए अमावस्या को भले ही न मना पाए हों,
पर आज इन्हें दीवाली मनाने से वर्तमान व पिछली सरकार को जेब में रखने का दावा करने
वाला कोई अरबपति भी नहीं रोक पाएगा।
बच्चों के चेहरों पर जिस परमानंद की प्राप्ति
के भाव लक्ष्मी माता ने देखे वैसे रात्रि भ्रमण में उन्हें कहीं नहीं दिखाई दिए
थे। कुछ पल उन्हें निहारने के बाद उनके
हौसले को असीसती हुई आखिर वे कमलासन की ओर प्रस्थान कर ही गईं।
शुक्र है कि खुशी के कुछ पल चुरा लेने के
लिए थोड़ी स्पेस कुदरत ने आखिर इनके लिए भी तो छोड़ी है।
***
100,रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001(म प्र )
व्यंग्य(पत्रिका 14/11/12)
व्यंग्य
हाथी और चींटी
वे खुद को या कहें कि अपनी टोली को ‘हाथी’ मानते हैं और उनकी नाक में दम करने
वाले एक ‘सड़क छाप’ शख्स को ‘चींटी’ ...! चींटी है कि जरा भी डरने को
तैयार नहीं ! हाथी और उसके महावत को तो यही समझ में नहीं आ रहा है कि ये कम्बख्त
चींटी आखिर चाहती क्या है । हाथी चींटी को मसल के रख देने की बात या सीधे
शब्दों में कहें तो मारने की धौंस देता ज़रूर है, पर जितना वह चींटी पर धौंस जमाने की
कोशिश करता है,उतना ही अपना हाथीपना खोता जा रहा है
। हो सकता है कि किसी रोज हाथी हाथी न रहे और ‘सफेद हाथी’ बनकर रह जाए जिनकी देश में पहले ही
कोई कमी नहीं है ।
वो हाथी हाथी ही क्या जो मद में न आए ! और वो
चींटी चींटी ही क्या जिसके पर न निकल आएं ! फर्क़ सिर्फ इतना है कि हाथी जब मद में
आता है तो इतना विध्वंसक हो जाता है कि मार दिया जाता है, जबकि चींटी में पर आने का मतलब जीवनकाल पूर्ण होना भर है । खुद
को हाथी घोषित करने वाले सज्जन और उनके साथियों में जाहिर है कि मदमाने के लक्षण
बढ़ते जा रहे हैं।
हाथियों के साथ
दिक्कत यह है कि वे खाते भी जमकर हैं और उजाड़ते भी बहुत हैं । अपने वज़न से आधा वज़न
भी बड़ी मुश्किल से ढो पाते हैं । और खुद तो भरपूर जगह घेरते ही हैं दूसरों के लिए
कभी ‘स्पेस’रखना ही
नहीं जानते । वहीं चींटी अपने वज़न से कई गुना अधिक वज़न ढो सकती है । चींटियाँ ‘इकिडना’(Echidna)या ‘स्पाइनी एंट ईटर’ जैसे ऑस्ट्रेलियन स्तनपाई प्राणी के आहार के काम भी आती हैं । हाथियों का उजाड़ करने
में विश्वास है जबकि चींटी समाजिक सह जीवन की शिक्षा देती हैं ।
यह सही है कि किसी युग में एक हाथी के बच्चे ने
अपना शीश देकर भगवान श्री गणेश को नवजीवन दिया था । मगर आज के हाथी खुले आम दूसरों
के शीश काट लेने की धौंस देने लग गए हैं । मेनका गांधी के ‘जीव-दया’ आंदोलन से पूर्व हाथी सर्कसों के भी अनिवार्य अंग हुआ करते थे
जिसकी पूर्ति इन स्वयंभू हाथियों ने पिछले दिनों सर्कसों सी कलाबाज़ियाँ
दिखा-दिखाकर कर दी है। वे हाथी सचमुच किसी के साथी भी हुआ करते थे जबकि ये हाथी
फौज़ के उन पगलाए हाथियों की तरह हैं जिनसे खुद अपनी ही फौज़ के मारे-कुचले जाने का
अंदेशा बना हुआ है ।
हे प्रभु ! चींटियों से इन हाथियों की रक्षा करना
! मैंने सुना है कि अगर चींटी कान के रास्ते अगर हाथी की नाक में प्रवेश कर जाए तो
झूम-झूमकर चलने वाले गजराज को 'सड़क छाप' बनते देर नहीं लगती ।
Subscribe to:
Posts (Atom)