Thursday, 31 March 2016

मूर्खता दिवस पर-उफ़् ये मतदान व क्रिकेट को मूरखों का खेल कहने वाले!


 मूर्खता दिवस पर विशेष  
    उफ़् ये मतदान व क्रिकेट को मूर्खों का खेल कहने वाले !
                                               ओम वर्मा
                                                        
 हली अप्रैल यानी अंतरराष्ट्रीय मूर्खता दिवस ! आज के दिन सारे अखबार मूर्खता पर चिंतन व व्यंग्यों से भरे मिलेंगे। पिछले कुछ वर्षों में पहली अप्रैल को प्रकाशित हुए कई व्यंग्यों को मैं पढ़ता रहा हूँ। सभी लेखों में दो बातें मुख्य रूप से उभरकर सामने आती हैं कि जनता वोट देकर मूर्ख बनती है’ या फिर जॉर्ज बर्नाड शॉ के हवाले से यह कुतर्क दिया जाता है कि “क्रिकेट 22 मूर्खों द्वारा खेला जाने वाला वह खेल है जिसे 22 हजार मूर्ख स्टेडियम में और 22 करोड़ मूर्ख टीवी पर देखते हैं...,!"
   
         हो सकता है कि हम वोट देकर मूर्ख बन जाते हों मगर मेरी नजर में मतदान के दिन मत न देकर घर बैठे रहना और बड़ी मूर्खता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में उपलब्द्ध उम्मीदवारों में से श्रेष्ठ का चयन करने का नाम ही आम-चुनाव है। क्रिकेट का जहाँ तक सवाल है किसी विशेष परिस्थितिविशेष अवसरऔर तत्कालीन संदर्भ में कही गई उक्त बात पता नहीं किस परिप्रेक्ष्य में काही गई थीमगर आज क्रिकेट को मूर्खों का खेल कहना ही अपने आप में यदि मूर्खता नहीं तो समझदारी भी नहीं है। आज जिस खेल में हमारा देश उसके जन्मदाता को भी मात देने का माद्दा रखता होजिसके सितारों को काउंटी और आईपीएल वाले मुँह माँगी फीस देने को तैयार हों,  जिस खेल के सामग्री निर्माण से लेकर खेल के प्रसारणटीवी विज्ञापन,खिलाड़ियों के कपड़े और उनके द्वारा किए जा रहे विज्ञापनों से करोड़ों लोगों का टर्नओवर जुड़ा हो...क्या वह मूर्खों का खेल है ? जिस खेल में दो पड़ोसी देशों के बीच छिन्न-भिन्न होते समरसता के ताने –बाने को जोड़ने व सुधारने की कूव्वत होजिसके जरिए पुराने जख्मों को भरने का राजनय चलाते हुए पडौसी देश के राष्ट्राध्यक्ष को भी ससम्मान आमंत्रित किया जा सकता हो,  जहाँ मुकेश अंबानी जैसा धनकुबेर जिसके एक मिनट की कीमत लाखों में हो सकती हैखुद खड़ा होकर हर शाट पर ताली बजाता नजर आता हो...और जिसमें देश की जीत व अपने पुत्रवत सचिन की शतकों के शतक के लिए भारतरत्न से सम्मानित स्वर कोकिला लताजी स्वयं व्रत रख सकती हों उसे  कम  से कम  मूर्खों  का खेल तो  मत  कहो  मेरे भाई!  
     
      क्रिकेट भी आज शारीरिक दक्षता के अलावा बहुत कुछ दिमागी चतुराई का खेल भी हो गया है। चतुर गेंदबाज अपनी उँगलियों के जादू से बल्लेबाज को और बल्लेबाज एन वक्त पर अपना स्टांस  बदलकर सारे क्षेत्ररक्षकों को चकमा दे सकते हैं। आज कई ऐसे गेंदबाज हैं जिनको पहले से पढ़ पाना सिर्फ अनुभव और मानसिक कौशल का काम है। अभी भारत- बांग्लादेश मुक़ाबले में कप्तान धोनी ने जो अंतिम ओवर का रोमांच उत्पन्न किया था वह सूझबूझ भरी चतुराई  क्या 'ऑफ़ दि मूर्खबाय दि मूर्खएंड फॉर दि मूर्खवाली घटना थीअभी ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ 82 रन वाली विराट पारी को आप मूर्खता के किस खाने में रख सकते है? अब्दुल कादिर जैसे अनुभवी स्पिनर को साढ़े सोलह साल का मुंबईकर जब लगातार तीन बाउंड्री लगाकर ताली बजाने को मजबूर कर दे,वह सिर्फ भद्रजनों का खेल हो सकता हैमूर्खों का कतई नहीं। क्रिकेट ने दिलों को जोड़ा है,तोडा नहीं! क्रिकेट से ज्यादा लड़ाई झगड़ा तो पश्चिमी देशों में फ़ुटबाल के दीवाने कर बैठते हैं।  तो क्या फ़ुटबाल बदमाशों या मूर्खों का खेल हो गया ? दरअसल अपने मास अपीलीगुण के कारण क्रिकेट की लोकप्रियताउसका ग्लैमर दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है।  कुछ लोगों को क्रिकेट से इसलिए नफ़रत हो गई है कि उसमें 'फिक्सिंगहोने लगी है ! लेकिन इसमें क्रिकेट का क्या दोष ? गंगाजल से आप सामिष भोजन पकाएं या निरामिष, गंगाजल तो गंगाजल ही रहेगा...!   यह वो खेल है जिसमें कभी कभी अंतिम पलों में रेडियो कमेंटेटर को यह चेतावानीपूर्ण घोषणा करना पड़ती है कि कृपया कमजोर दिल वाले कमेंट्री न सुनें...और ऐसे खेल को मूर्खता के विशेषण से नवाजने  वालों को मेरा दूर से सलाम !
        दरअसल जिन 'बुद्धिजीवियोंको क्रिकेट का तकनीकी ज्ञान नहीं होता उन्हें खेल समझ में नहीं आता...! वे इसे राष्ट्रीय समयधन व मानवशक्ति की बर्बादी बताकर आलोचना करना एक फैशन समझते हैं।  वे यह उदहारण देते हुए नहीं थकते कि अमेरिका जैसे उन्नत देश में यह 'मूर्खोंका खेल नहीं खेला जाता।  लेकिन क्या कभी उन्होंने अमेरिका में होने वाली WWF जैसी हिंसक कुश्तियों को 'मूर्खोंया हिंसकों का खेल बताने की हिम्मत की है ?आज क्रिकेट के कारण असल में कई लोगों को रोजगार मिला हैप्रसारणटीवी विज्ञापन आदि में कई करोड़ का व्यवसाय हो रहा हैऔर इसे राष्ट्रीय खेल घोषित करने की माँग तक उठने लगी हैऐसे में कोई इसे 'मूर्खोंका शगल बताए तो उसके लिए सिर्फ प्रार्थना भर की जा सकती है।
  
        1933-34 में इंग्लैंड की टीम का भारत दौरा। भारतीय टीम के विजय मर्चेंट को उनकी छोटी बहिन लक्ष्मी ने अपनी ऑटोग्राफ बुक दी इंग्लैंड के सभी खिलाड़ियों का ऑटोग्राफ लाने के लिए। उन्होंने एम.सी.सी. टूरिंग टीम 1933-34 शीर्षक लिखकर सभी सोलह खिलाड़ियों के ऑटोग्राफ लिए। दो महीने बाद उन्हें गांधी जी का ऑटोग्राफ लेने के लिए उनसे मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। गांधी जी ने मुस्कराते हुए उस हस्ताक्षर पुस्तिका के पन्ने पलटने शुरू किए और जहां पर एम.सी.सी. के खिलाड़ियों के हस्ताक्षर थे, वहीं पर उन्होंने क्रम संख्या 17 पर मो.क.गांधी लिख दिया। यानी सीधा संदेश था कि गांधी जी की लड़ाई अँगरेजी हुकूमत से है और अगर वे इसे मूर्खों का खेल मानते तो ऑटोग्राफ बुक में  इंग्लैंड की टीम के 17वें खिलाड़ीकी जगह हस्ताक्षर हरगिज न करते। 

    जॉर्ज बर्नाड शॉ ने पता नहीं किस सन्दर्भ में क्रिकेट को 22  मूर्खों का खेल बताया था,लेकिन उनके कथन में यह जोड़ना कि इसे 22 करोड़ मूर्ख टीवी पर देखते हैंबहुत ही सतही टिप्पणी हैक्योंकि बर्नाड शा के समय तो टीवी की शुरुआत ही नहीं हुई थी। और लास्ट बट नॉट द लीस्ट कि अगर क्रिकेट सचमुच मूर्खों का खेल होता तो कथा शिल्पी प्रेमचंद अपनी अंतिम कहानी ‘क्रिकेट मैच’ लिखकर अपना वक़्त जाया नहीं करते!
                                                                                                           ***
                           संपर्क - 100रामनगर एक्सटेंशन देवास 455001

व्यंग्य - चना ज़ोर गरम , स्टार समाचार, 01.04.16


Tuesday, 29 March 2016





व्यंग्य
                         
जब रेलों में प्रायोजित भिखारी होंगे!                                                                                                               
                                            
ओम वर्मा
हते हैं कि बारह बरस में कूड़े के दिन भी बदल जाते हैं तो उनके क्यों नहीं बदलेंगे?
     कोई साधू-संन्यासी माँगे तो वह भिक्षुक और साधारण व्यक्ति माँगे तो भिखारी या भिखमंगा कहलाता है। यह कहाँ का न्याय है! भिखारी भी तो आखिर मानव ही हैं! उनमें से कुछ को यह काम विरासत में मिलता है और कुछ बाद में बना दिए जाते हैं। जाहिर है कि ये समाज की सबसे निचली पायदान यानी हाशिए पर ही रहते आए हैं जिनके लिए पहली बार सरकार के सामने कुछ ठोस कदम उठाने के सुझाव आए हैं।
      सरकार के ध्यान में आया या कहें कि लाया गया है कि रेलों में यात्री भिखारियों से परेशान हैं। अब सरकारों का तो ऐसा है कि परेशानैयों से उनका चोली दामन का साथ रहता आया है। कभी सरकार कुछ लोगों से परेशान तो कभी कुछ लोग सरकार से परेशान! आम आदमी बेचारा दोनों से परेशान! पिछले दिनों यह खबर आई थी कि रेलों में गा - गाकर भीख माँगने वाले भिखारियों से सरकार सरकारी नीति व कार्यक्रमों का प्रचार प्रसार करवाएगी। अभी वे सिर्फ याचक हैं  और उनका हर सवाल अपने पापी पेट से शुरू होकर उसी पर खत्म हो जाता है और अब तक वे सिर्फ दे दे माई... भगवान भला करे... तेरे बच्चे जिएँ... अल्लाह के नाम पर दे दे... जैसे मार्मिक व अ - सरकारीजुमले बोल कर हमारी संवेदनाओं को छूने का प्रयास किया करते हैं।  अब अगर सरकार इस नए सुझाव पर विचार कर कोई नई योजना लाए तो भिखारी भिखारी न रहकर शासकीय रेकॉर्ड में पंजीकृत भिक्षाकर्मीहो जाएँगे। याचना के लिए लगाई जा रही पुकार के उनके बोल उनके नहीं रहेंगे बल्कि प्रायोजित हो जाएँगे।  वे सरकारी बोलों पर पार्श्वगायन करते नजर आएँगे। फिर उन्हें मात्र ‘मँगते या भिखमंगे समझकर दुत्कारा नहीं जा सकेगा।
     हमारे देश में भीख माँगना भले ही असंवैधानिक व दंडनीय कृत्य हो मगर उसे रोक पाना किसी भी सरकार के वश में नहीं है। फिर भी सरकार तो सरकार है, लोकलुभावन घोषणाओं के दौर में अवैध को वैध करने की कला भी जानती है। लिहाजा जहाँ झुगी-झोंपड़ियाँ न हटा सकें वहाँ उन्हें वैध करना, बिजली चोरी नहीं रोक सकें वहाँ मुफ्त बिजली कनेक्शन देना, कभी समलैंगिकता को वैध करवाने पर बहस करवा देना, काला धन भले ही न ला पाएँ पर लाने की बात करते रहना, आदि कुछ ऐसे अचूक उपाय हैं जिनसे सरकार को लगने लगता है कि काँटा काँटे से ही निकाला जा सकता है। वैसे भी आजकल जब कई सरकारी माध्यम सरकार की छवि नहीं बना पाते हों या नहीं चमका पाते हों और किसी भी रीति/नीति का पोस्टमार्टम करने के लिए विपक्ष वाले टाक शो से लेकर सदन तक बाघ नख पहने तैयार बैठे रहते हों तो ऐसे में भिखारियों को ही आजमा लेने में क्या हर्ज है? ऐसा होते ही उनमें एक नया आत्मविश्वास जागृत होगा। अब वे हक़ और हलाल की कमाई खाएँगे। लीजिए प्रस्तुत है कुछ राज्यों की संभावित झलक -
      म.प्र. सरकार के प्रायोजित भिखारी कुछ यूँ  गाते दिखेंगे- 
                           “देखो ओ दीवानों तुम ये काम न करोsss.. 
                          व्यापम का नाम बदनाम ना करोsss,
                           बदनाम ना करोsss!
        दिल्ली में केजरीवाल सरकार पर विज्ञापनों पर बेहिसाब खर्च करने को लेकर पहले ही तोहमत लग रही हैं सो पहले वे ट्रेन में भिखारियों से प्रचार करवाना या नहीं इस बात पर एसएमएस द्वारा जनता की राय लेंगे। जाहिर है कि ऐसा ओपिनियन पोलहमेशा की तरह उनके पक्ष में ही होगा। फिर मेट्रो स्टेशनों पर भिखारी ढपली बजा बजाकर यह गाते मिलेंगे-
    “बिजली मिलेगी S, पानी मिलेगा S, आप की सरकार है, सब कुछ मिलेगा...बिल न भरो यार SSS    बिल न भरो यार SS…”
     केजरीवाल सरकार की एक नीति यह भी है कि खुद जो करें वह तो बताना ही साथ में हर वह बात जो न कर पाए उसका ठीकरा मोदी सरकार पर भी फोड़ना। उनके प्रायोजित भिखारी मेट्रो में यह आलाप गाते नजर आएँगे-
     “यहाँ बैठी मोदी सरकार, न देती पैसे हमको चार, के सपने टूट गए SS,  के सपने S टूट गए...!”
   किसी मेट्रो स्टेशन पर भिखारी यह गाते भी दिख सकते हैं - हो मोदी या कांग्रेस, सभी SSS करते हैं बस ऐश ...ये सब हैं मिले हुए SSS...ये सब हैं मिले हुए SSS!
     यू.पी. की ट्रेनों का दृश्य- "बच्चे गलती कर दें तो उनको माफ करो SSS ...नारी उत्पीड़न को दिल से साफ करो SSS…!”
   बिहार में अभी इस बात पर घमासान मचा है कि भिखारी किसके नाम के गीत गाएँ? जेडी(यू) या आरजेडी के। आरजेडी के गाएँ तो किसके नाम के गाएँ- लालू जी, तेजप्रताप या तेजस्वी के? उधर पश्चिमी बंगाल में ममता दी यह तय नहीं कर पा रही हैं कि सरकार के काम के प्रचार के स्लोगन गवाए जाएँ या वाम दलों व मोदी सरकार के विरोध के गीत तैयार करवाए जाएँ!
     जाहिर है कि देश की  भिखारी संस्कृति में आमूल चूल परिवर्तन होने की संभावना है।
                                           ***                 100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 (म.प्र.)
मेल आईडी – om.varma17@gmail.com                                                 मो. 9302379199

                                                                  

व्यंग्य -नईदुनिया 29.03.16 ' सोना नहीं सब्जी लें!'


व्यंग्य - सोना नहीं सब्जी लीजिए!

                                      
      सोना  नहीं सब्ज़ी लीजिए !
                                                                                                 ओम वर्मा
सोना कितना सोना होता है यह मुझ जैसों को अब समझ में आया!
     ‘सोने का खोना अशुभसोने का मिलना अशुभ’ यह तो सुना था मगर अब देख रहा हूँ कि सोने का सस्ता होना भी अशुभ और सोने का महँगा होना भी अशुभ! अभी कुछ समय पहले जब सोना लुढ़का था तो इस ‘कनक’ की कुछ ऐसी मादकता चढ़ी थी कि सब्ज़ी मार्केट के लिए निकला बंदा  भी सराफा बाजार चला जाता था। वहाँ जाकर जब हाथ उसकी जेब में जाता तो उसे एहसास होता कि वह जो पैसे जेब में लेकर निकला है उससे सराफा बाजार का कनक नहीं बल्कि सब्ज़ी के खेत खलिहानों के किनारे उगने वाला कनक ही खरीदा जा सकता है। आखिर को एक –दो सब्ज़ी लेकर विजय माल्या बनने के ख्वाब देखने चला यह होरीराम चुपचाप घर जाकर सब्ज़ी का थैलाबल्कि थैली धनिया के सामने ले जाकर रख देता।            
     मगर जब भाव फिर बढ़ने लगे तो भी बाजार की रंगत वही रही। सरकार चाहे एक्साइज ड्यूटी बढ़ाएँ या पेन कार्ड माँगेशादियाँ न तो कल रुकीं न आज रुकने वाली हैं। मगर अखिल भारतीय सराफा संघ के आह्वान पर हड़ताल जारी है। प्रोटेस्ट के लिए भी आजकल नए नए तरीके खोजे जा रहे हैं। कहीं  सिर मुँड़वानाकहीं सद्बुद्धि यज्ञकहीं भिक्षावृत्ति और कहीं अर्द्धनग्न प्रदर्शन! मगर सोना चाँदी और हीरे मोती बेचने वाले अगर सब्ज़ी बेचकर प्रोटेस्ट दर्ज कराएँ तो अंदाज कुछ नया लगता है।
     लोकतंत्र में हड़ताल द्वारा माँगें मनवानाएक आम बात व जनता का प्रजातांत्रिक अधिकार है। यहाँ इस उम्मीद के साथ मैं बात आगे बढ़ा रहा हूँ कि कोई न कोई सर्वसम्मत रास्ता निकल ही आएगा। मगर खुदा न ख्वास्तः दोनों पक्ष न झुके तो जैसा कि व्यापारियों ने कहा है कि उन्हें सब्ज़ी बेचकर गुजर बसर करना पड़ जाएगी। मेरी चिंता पर चिंतन यहाँ शुरू होता है।
      हड़ताल जारी है। सराफा व्यापारी सब्ज़ी बाजार में ठेले लगाना चाहते हैं जहाँ पुराने सब्ज़ी विक्रेता उन्हें टिकने नहीं देते। सभी को अपनी पुश्तैनी दुकान व शो रूमों को सब्ज़ी दूकान में बदलना पड़ता है। जिस दुकान का नाम पहले ‘अमुक ज्वेलर्स’ था अब ‘अमुकग्रीनग्रॉसर्स’ हो गया है। सब्ज़ी बाजार की खुली टोकनियों में रखी सब्जियाँ सराफा दुकानों के शो केसेज में बैठकर अपने भाग्य पर इठला रही अपनी बहिनों के भाग्य पर रश्क कर रही हैं। अनोखीलाल थैली लेकर दुकान पर चढ़े और पूछा“कद्दू कैसा है?”
     “बढ़िया है साबपूरे चौबीस कैरेट। आईएसआई मार्के का है”धीमे से उन्हें जवाब मिलता है।
     “क्या भाव है?” वे भाव पूछते हैं।
     “एक रु. का बीस ग्राम!”
     सुनकर वे चौंकते हैं फिर बदली हुई परिस्थिति में खुद को ढालते हुए सामने मसनद पर बैठे सेठ जी से सराफे के आदाब का पालन करते हुए धीरे से कहते हैं“ठीक है आधा किलो दे दो।“ सेठ जी एक टुकड़ा काटकर मेटेलिक बैलेंस पर तौलकर बढ़िया डिब्बे में पैक कर बिल थमा देते हैं। बिल देखकर अनोखीलाल जी चौंक जाते हैं। एक रु. के बीस ग्राम के हिसाब से चालीस रु. किलो और आधा किलो के बीस रु. होना चाहिए थे। मगर बिल इक्कीस रु. का। बिल को ध्यान से देखने पर मालूम होता है कि मात्रा  520 ग्राम है।
     अनोखीलाल जी दुआ करते हैं कि आभूषण विक्रेताओं की हड़ताल जल्द खत्म हो। वे मन ही मन यह भी कामना करते हैं कि अगर सब्ज़ी विक्रेताओं की हड़ताल हो तो उनका संगठन उन्हें प्रोटेस्ट स्वरूप आभूषण बेचने की सलाह दें  ताकि वे सब्ज़ी को सोने चाँदी की तरह तौलने वालों से उलट सोने चाँदी को सब्जियों की तरह तौलने लग जाएँ!   
      अगर हड़ताल टूटने का कोई रास्ता न निकले तो सूखी सब्जियों को आभूषण के रूप में प्रयुक्त किए जाने पर भी विचार किया जा सकता है!
                                                               ***
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Sunday, 20 March 2016

जनसंदेश टाइम्स (UP), में


पुस्तक समीक्षा-बुंदेली के ललित निबंध





                                                                                                                            
                                                           पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम – बुंदेली के ललित निबंध                                            लेखक – कैलाश मड़बैया
प्रकाशक – मनीष प्रकाशन भोपाल                                                                      मूल्य 200/- रु.
समीक्षक – ओम वर्मा

क बड़े प्रशासनिक पद से से.नि. हुए करीब दो दर्जन ग्रन्थों के रचनाकार श्री कैलाश मड़बैया ने बुंदेली साहित्य के प्रचार प्रसार में उल्लेखनीय कार्य किया है। उनकी एक कृति बुंदेलखंड के इतिहास पुरुष काफी चर्चित व उपयोगी साबित हुई है। उनकी किताब बाँके बोल बुंदेली के को बुंदेली गद्य के प्रथम ग्रंथ की मान्यता मिली हुई है। इसके अलावा दो अन्य ग्रंथ मीठे बोल बुंदेली के और नीके बोल बुंदेली के सहित इन तीनों ग्रंथों के कारण कैलाश मड़बैया जी को बुंदेली गद्य के जनकरूप में स्थापित किया है। उन्हें राष्ट्रमंडलीय खेलों के समय अंतरराष्ट्रीय कविता सम्मेलन में काव्यपाठ का अवसर भी मिला था। कई बाहरी देशों में भी उनके साहित्य से देश का गौरव बढ़ा है।
      
      प्रस्तुत पुस्तक में उनके बुंदेली भाषा में बुंदेली लोकजीवन के कुछ विषयों व पहलुओं पर व स्वयं बुंदेली भाषा के विकास, मानकीकरण आदि को लेकर लिखे गए सत्रह सारगर्भित ललित निबंध संकलित हैं। वैसे भी निबंध तो वह कलाकृति होती है जिसके सारे नियम लेखक द्वारा ही तय होते हैं। पुस्तक की भूमिका में वे कहते हैं- “अपन जा बताऔ कै अगर ई बड़ी दुनिया में अपनी चिनार नइँ रैय तो अपनौ अस्तित्व मानें जीवै को मरम का रैय? जेउ तो कारन है कै अंग्रेज अपनी संस्कृति/ चिनार बनाये के लानें जाँ जाँ उनको राज रऔ उतै उतै अंग्रेजी लाद गये। और वे कत भी हैं कै अंग्रेजन के भगाये से का होत, अंग्रेजियत तो नईं भगा पा रयै? और जा झूँटी भी नइंयाँ कै हम जित्ते अँग्रेजीदाँ बनें उत्तई अपनी संस्कृति खतम हो रई और पच्छिम की अंग्रेजी संस्कृति हावी होत जा रई...।   

     ऐसे ही बेटियों के बारे में वे लिखते हैं, “बुंदेलखंड के आँय जितै अपनी बिटियन के पाँव देवियन घाँई परे जात। भलई बे कौनउँ उमर की होंय। उने अमल में नईं मारो जात, उनसे बुरऔ बिवहार नइँ करो जात। बुंदेलखंड में गाँव में कोउ की बिटिया कौ ब्याव पूरे गाँव की  बिटिया को गाँव मानौ जात, लगुन उर बिन्नारकी में सब सामिल हो कें मदद करत। बुंदेलखंडी अपनी आन बान सान पै मरवौ मिटवौ ऐन जानत और एक हद्द नों सहन करवौ सोउ जानत। आला में कई गई कै-
                              पैली गारी पै नइँ बोलें,  औ दूजी पै  रैंय  चिमाय,
                              जो तीजी गारी दई तैनें, मौं में ठूंस  दैंव  तरवार।
      पहले निबंध बुंदेली वार्ता कौ उग्रौ और उन्सार में भाषा के उद्भव और विकास पर चर्चा की गई है। लेखक के अनुसार में 1894 से 1923 के बीच देश में एकमात्र भाषाई सर्वे हुआ था जिसमें ग्रियर्सन ने बुंदेली को स्वतंत्र एवं उत्तर में इटावा तक बोली जाने वाली भाषा बताया था। लेखक के अनुसार बुंदेलखंडी लोकभाषा का विकास हिंदी गद्य के विकास का ही क्रम है। आल्हाखंड(1182-1193) हिंदी की वाचिक परंपरा का पहला महाकाव्य व चंदेल नरेश गंडदेव की 1023 की एक बुंदेली कविता को इतिहासकार निज़ामुद्दीन ने प्रथम बुंदेली कविता माना है। समय समय पर प्रकाशित हुए विभिन्न संकलनों / पुस्तकों से भाषा की उत्पत्ति व विकासक्रम का पता चलता है। दूसरे निबंध भुँसारे में प्रातःकाल का बुन्देली वर्णन है। पूरे निबंध में उषाकाल की छटा का अद्भुत वर्णन व शानदार समापन है-  “पै कछु भी कव भुन्सराँ तो पोपले मौंअन पे भी चमक ल्याई देत। सो भुंसारे तो भुंसारेई आँय। कछु न कछु दैई कें जात। ...सूरज खों काम तौ चंदा खों विसराम... भगवान सबके दिनडूबे आराम देंय उर भुंसारे नए नए काम देय।“
     तीसरे निबंध दिवारी में दीपावली के प्रसंग, बुंदेलखंडी रीति रिवाजों और कहावतों पर प्रकाश डाला गया है। लेखक के अनुसार “जब तक आदमी धरती पे है नों रोसनी ल्यावे की जा मन्सा बनी रैहै – दिवारी एई कोसिस को नाव है।“  आधुनिकता के दौर में संस्कृति के बदलाव पर लेखक का चिंतन सामने आता है-“न वे इंदयारे रये और न वे उजयारे...सब कछु टीवी के डिब्बा पै होत रत ...बिजली की जगमगाहट में माटी के दिया दब गये ... ।“
     अगला निबंध कच्ची ईंट बाबुल देरी न धरियौ बेहद करुण रचना है। बेटी के लालन पालन से लेकर उसके बचपन, खेल खिलौनों और वैवाहिक रस्मों तथा बिदाई का वर्णन है। अंत में बुंदेलखंड में घर घर गाए जाने वाले एक लोकगीत कच्ची ईंट बाबुल देरी न धरियौ” का जिक्र है। बाल विवाह पर केंद्रित इस गीत में लड़की कहती है कि दहलीज़ के इस तरफ मायका और उधर ससुराल है। इस दहलीज़ पर कच्ची ईंट न धरी जाए यानी कन्या को बालिका वधू न बनाया जाए।
     पाँचवे निबंध समय के फेर में पुरुषार्थ का महत्व समझाया गया है। छटे निबंध भारतीय सनातन और श्रमण धर्म में हमारे समाज में धर्म की आवश्यकता व उसकी भूमिका तथा स्वामी महावीर के सिद्धांतों पर विस्तार से चर्चा की गई है। लेखक के अनुसार महावीर स्वामी ने पहली बार श्रमण धर्म को वैज्ञानिक दशा और दिशा दी जिसे दुनिया के वैज्ञानिकों ने बाद में माना। अगले निबंध वैश्वीकरण और लोक संस्कृति में वैश्वीकरण के दौर में बढ़ते बाजारवाद, मॉल संस्कृति के कारण खत्म होते छोटे रोजगार आदि पर चिंतन है। लेखक की चिंता वाजिब है कि “विकास तो चाउनें पर जीव जंतु प्रकृति के विनास करकें नईं...वैश्वीकरण हमें अपनी सर्तन पै मंजूर करनें, न कै पच्छम की नकल करके... ।“ आठवाँ निबंध सब कछु बादल रओ में समय के बदलाव के कारण छूटती जा रही चीजें और प्रकृति से की जा रही छेड़खान के दुष्परिणामों पर चिंता जताई गई है। अगले निबंध ‘’पानी बनाम ज़िंदगानी में घटते भूजल स्तर के कारण और निवारण पर चिंतन है। निबंध लोकतंत्र कौ लोक परब में आम चुनाव में किए जाने वाले लोकलुभावन वायदों और बेतहाशा बढ़ते चुनावी खर्चों की चिंतन है। ग्यारहवें निबंध अखबार में समाचार पत्रों में पूँजीपतियों के बढ़ते जा रहे प्रभाव व दखल को उजागर किया है।
     पाँच से ग्यारह-उक्त सातों निबंध बुंदेलखंडी भाषा में जरूर हैं पर किसी विशिष्ट भू भाग पर केंद्रित नहीं हैं। बारहवाँ निबंध आजादी की लड़ाई और बुंदेलखंड से वे फिर बुंदेलखंड पर लौट आते हैं। देश में आजादी की लड़ाई सन् 1857 से मानी जाती है पर लेखक ने बताया है कि बुंदेलखंड में 1842 ई. में बुंदेला विद्रोह के नाम से शुरू हो चुकी थी जब उत्तरी सागर में बुंदेले ठाकुरों ने ब्रिटिश सरकार द्वारा की गई लगानवृद्धि का न सिर्फ विरोध किया बल्कि लगान वसूली के लिए आए प्रतिनिधियों को मौत के घाट उतार दिया था। उसके बाद से लेकर 1947 तक बुंदेलखं रानी लक्ष्मीबाई सहित अन्य बुंदेलखंडियों का कहाँ कहाँ कितना योगदान रहा है यह बताने का प्रयास किया है। बुंदेलखंड: एक असलियत में बुंदेलखंड राज्य के गठन को लेकर पं. बनारसीदास चतुर्वेदी द्वारा 1943 से पहले उठाई गई माँग व बाद में उसके समर्थन में उठी छुटपुट आवाजों नेताओं द्वारा किए गए वादों का उल्लेख किया गया है। अगला निबंध बानपुर की बावन पोलें एक अलग मिजाज का निबंध है। इसमें वहाँ के लोक जीवन में प्रचलित कुछ कहावतों जैसे “बानपुर की बावन पोलें हैं व कुछ अन्य की उत्पत्ति से जुड़े प्रसंगों का रोचक उल्लेख है। 
     पंद्रहवें निबंध बुंदेलखंड के तीरथ में इस अंचल के कई छोटे मोटे उन स्थानों का उल्लेख है जिनका ऐतिहासिक  धार्मिक महत्व है जैसे- ओरछा, खजुराहो, पन्ना, दतिया में पीतांबरा पीठ, छतरपुर में जटाशंकर,  देवगढ़, सोनागिर, बानपुर, द्रोणगिर, और कई अन्य। ओरछा के बारे में एक रोचक जानकारी वे देते हैं कि दुनिया में अकेलौइ ओरछा धाम है जिते राम राजा के रूप में विद्यमान हैं, और आज भी उनें रोज तोपन/बंदूकन की की सलामी दई जात... ।“ अगले निबंध ठैरे कम निगे ज्यादा: कइलास की कठन मरजादा” में लेखक की कैलाश-मानसरोवर यात्रा में आई कठिन परिस्थितियों का अच्छा चित्रण है। अंतिम निबंध बुंदेली कौ मानकीकरन में बुंदेली की भाषा के रूप में मान्यता कि राह में आने वाली बाधाओं का वर्णन है। उनकी नजर में इसका मुख्य कारण बुंदेलखंड में व्याप्त सामंतवाद रहा है जिसके कारण यह अपनी अपनी रियासतों में सिमटकर रह गई। कोस कोस पे पानी बदले कोस कोस पे वाणी ये कहावत बुंदेली पर भी लागू होती है। इस कारण मांकीकरण में व्यावहारिक कठिनाई आती है। 
     मेरी विनम्र राय में बुंदेलखंड वासियों को चाहिए कि वे अपनी भाषा में अधिक से अधिक साहित्य रचें व प्रकाशित करें। शब्दों के सर्वसम्मत एक रूप संग्रहीत कर मानक शब्दकोश तैयार करे, फिर बोली का भाषा में जाने पहचाने जाने का मार्ग अपने आप प्रशस्त हो जाएगा। आठवीं अनुसूची में शामिल कुछ भाषाओं की तुलना में बुंदेली का क्षेत्र निश्चित ही व्यापक है इसलिए एक दिन यह स्थान बनाकर रहेगी।
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Monday, 14 March 2016

व्यंग्य - इनामों की बौछार , 'सुबह सवेरे' 14.03.16





    व्यंग्य
                              इनामों की बौछार  
                                                                    ओम वर्मा

ज हमारे दिल में अजब ये उलझन है!
     आज सर्वत्र इनामों की बौछार हो रही है और उलझन यह है कि हम कौनसा लें और कौनसा छोड़ें? इनाम लेना इतना आसान जो कर दिया है भाई लोगों ने! बस आपको एक कंकर उछालने जैसा कोई मामूली काम करना है और इनाम आपकी जेब में!  
     कुछ ही दिन पहले अनोखीलाल जी को मेल पर सूचना मिली कि उन्हें दस मिलियन डॉलर की लोटो सेशन लॉटरी खुल गई है। उनसे उनके बैंक खाते की जानकारी माँगी गई ताकि वे इनाम की राशि उसमें जमा कर सकें। उन्होंने तुरंत वांछित जानकारी का रिटर्न मेल किया और तुरंत एटीएम जा-जाकर हर एक एक घंटे में बैलेंस चेक करना शुरू कर दिया। मगर दस मिलियन डॉलर की बात हर व्यक्ति के खाते में आने वाले पंद्रह लाख रु का जुमला बन कर रह गई। फिर एक मेल आया कि उनके लेखा विभाग की आपत्ति की वजह से वे यह इनामी राशि जारी करें उसके पहले इनामी राशि पर लगने वाले टेक्स के लिए दस लाख रु.की राशि उन्हें उनके बताए बैंक खाते में जमा करनी होगी। अनोखीलाल जी को मात्र दस लाख रु. देकर दस मिलियन डॉलर का सौदा वैसा ही लगा जैसे एक चूहे को मात्र एक चिंदी पेश करने पर टेक्सटाइल मिल का मालिक बना दिया जाए या मुट्ठी भर विधायकों  या सांसदों के दम पर कोई खुद सरकार बना ले। लेकिन असली उलझन तो अब शुरू हुई। ये दस लाख वे लाएँ कहाँ से? वे कोई किंगफिशर तो हैं नहीं जो जब चाहें किसी भी नेशनलाइज्ड तालाब से अपनी चोंच व पंजों में, बड़ी बड़ी मछलियाँ दबोचकर फुर्र हो जाएँ।
     बहरहाल उनके एक मौका उनसे हाथ आई मछली सा फिसल गया तो उनका सारा चिंतन ही इनाम ओरिएंटेड हो गया। कुछ अखबारों ने योजना चला रखी है कि उनके कूपन काट कर चिपकाकर भेजो, वहाँ ढेर सारे इनाम हैं। अब वे उन अखबारों में लेख व खबरें चाहे न पढ़ें, कूपन पहले काटते हैं। अभी उन्होंने कुछ दिन कूपन काटे ही थे कि फिर कुछ नई इनामी योजनाएँ सामने आ गईं। सड़क पर मूत्रत्याग करते या खुले में शौच करते व्यक्ति का फोटो भेजो तो इनाम। उन्होंने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में एक प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थान के पास एक छात्र नेता का मूत्रत्याग करते हुए फोटो ले लिया। सोचा इसे दिखाकर वे इनाम ले लेंगे। वे उस चित्र को सार्वजनिक करके कुछ इनाम पाने का सोचते उसके पहले ही उक्त नेता स्वयं को हर बंधन से आजाद घोषित कर चुके थे। अनोखी दादा एक बार फिर गच्चा खा गए थे।
     मगर अनोखीलाल जी भी कुछ कम अनोखे नहीं हैं। वे भी कहाँ हार मानने वाले थे! तुरंत ही दूसरे और भी आसान इनामों की तलाश शुरू कर दी। कुछ अखबारों की और कुछ इंटरनेट की कृपा से उन्हें तुरंत सफलता मिली। राजनीतिक परिदृश्यों में पिछले कुछ समय में हुई कुछ अद्भुत घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में कुछ विशिष्ट टास्क संपादित करने पर लाखों के इनाम घोषित हो चुके हैं।  
     आज देश तीन तरह के खेमों में बॅंट गया है। एक तरफ वो हैं जिन्हें लगता है कि सिर्फ गला फाड़ू नारे लगाकर और जो भी लोगों की निजी आस्थाएँ हैं उनका अहिंसक या हिंसक किसी भी तरीके से विरोध करके क्रांतिकारी बदलाव लाया जा सकता है, दूसरी तरफ वे हैं जिन्हें लगता है कि वे जहां हैं, जैसे हैं या उनकी जो भी मान्यताएँ हैं व आस्थाएँ हैं वे ही सही हैं और इनके खिलाफ आवाज उठाने वाले की टंटफोर कर दी जानी चाहिए। बचे हुए वे लोग हैं जो इन दोनों से त्रस्त हो चुके हैं।  सच देखा जाए तो आज देश के सारे अनोखीलालों की परीक्षा है। उन्हें तय करना है कि वे किसकी तरफ हैं?
     जहाँ तक इनामों का सवाल है, सिर सलामत है तो जूते हजार है!
                                               ***
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