पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम – बुंदेली के ललित निबंध
लेखक – कैलाश मड़बैया
प्रकाशक – मनीष प्रकाशन भोपाल मूल्य
200/- रु.
समीक्षक – ओम वर्मा
एक
बड़े प्रशासनिक पद से से.नि. हुए करीब दो दर्जन ग्रन्थों के रचनाकार श्री कैलाश
मड़बैया ने बुंदेली साहित्य के प्रचार प्रसार में उल्लेखनीय कार्य किया है। उनकी एक
कृति ‘बुंदेलखंड के इतिहास पुरुष’ काफी चर्चित व उपयोगी साबित हुई है। उनकी किताब ‘बाँके बोल बुंदेली के’ को बुंदेली गद्य के प्रथम ग्रंथ की मान्यता मिली हुई है।
इसके अलावा दो अन्य ग्रंथ ‘मीठे
बोल बुंदेली के’ और ‘नीके बोल बुंदेली के’ सहित इन तीनों ग्रंथों के कारण कैलाश मड़बैया जी को बुंदेली गद्य के जनकरूप
में स्थापित किया है। उन्हें राष्ट्रमंडलीय खेलों के समय अंतरराष्ट्रीय कविता
सम्मेलन में काव्यपाठ का अवसर भी मिला था। कई बाहरी देशों में भी उनके साहित्य से
देश का गौरव बढ़ा है।
प्रस्तुत पुस्तक में उनके
बुंदेली भाषा में बुंदेली लोकजीवन के कुछ विषयों व पहलुओं पर व स्वयं बुंदेली भाषा
के विकास, मानकीकरण आदि को लेकर लिखे गए सत्रह
सारगर्भित ललित निबंध संकलित हैं। वैसे भी निबंध तो वह कलाकृति होती है जिसके सारे
नियम लेखक द्वारा ही तय होते हैं। पुस्तक की भूमिका में वे कहते हैं- “अपन जा
बताऔ कै अगर ई बड़ी दुनिया में अपनी चिनार नइँ रैय तो अपनौ अस्तित्व मानें जीवै
को मरम का रैय? जेउ तो कारन है कै अंग्रेज अपनी
संस्कृति/ चिनार बनाये के लानें जाँ जाँ उनको राज रऔ उतै उतै अंग्रेजी लाद गये। और
वे कत भी हैं कै अंग्रेजन के भगाये से का होत, अंग्रेजियत तो
नईं भगा पा रयै? और जा झूँटी भी नइंयाँ कै हम जित्ते
अँग्रेजीदाँ बनें उत्तई अपनी संस्कृति खतम हो रई और पच्छिम की अंग्रेजी संस्कृति
हावी होत जा रई...। ”
ऐसे ही बेटियों के बारे में वे
लिखते हैं, “बुंदेलखंड के
आँय जितै अपनी बिटियन के पाँव देवियन घाँई परे जात। भलई बे कौनउँ उमर की होंय। उने अमल में नईं मारो जात, उनसे बुरऔ बिवहार नइँ करो
जात। बुंदेलखंड में गाँव में कोउ की बिटिया कौ ब्याव पूरे गाँव की बिटिया को गाँव मानौ जात,
लगुन उर बिन्नारकी में सब सामिल हो कें मदद करत। बुंदेलखंडी अपनी आन बान सान पै
मरवौ मिटवौ ऐन जानत और एक हद्द नों सहन करवौ सोउ जानत। आला में कई गई कै-
पैली गारी पै नइँ
बोलें, औ दूजी पै
रैंय चिमाय,
जो तीजी गारी दई
तैनें, मौं में
ठूंस दैंव तरवार।
पहले निबंध ‘बुंदेली वार्ता कौ उग्रौ और उन्सार’ में भाषा के
उद्भव और विकास पर चर्चा की गई है। लेखक के अनुसार में 1894 से 1923 के बीच देश
में एकमात्र भाषाई सर्वे हुआ था जिसमें ग्रियर्सन ने बुंदेली को स्वतंत्र एवं
उत्तर में इटावा तक बोली जाने वाली भाषा बताया था। लेखक के अनुसार बुंदेलखंडी
लोकभाषा का विकास हिंदी गद्य के विकास का ही क्रम है। ‘आल्हाखंड’(1182-1193) हिंदी की वाचिक परंपरा का पहला महाकाव्य व चंदेल नरेश गंडदेव की 1023 की
एक बुंदेली कविता को इतिहासकार निज़ामुद्दीन ने प्रथम बुंदेली कविता माना है। समय
समय पर प्रकाशित हुए विभिन्न संकलनों / पुस्तकों से भाषा की उत्पत्ति व विकासक्रम
का पता चलता है। दूसरे निबंध ‘भुँसारे’ में
प्रातःकाल का बुन्देली वर्णन है। पूरे निबंध में उषाकाल की छटा का अद्भुत वर्णन व
शानदार समापन है- “पै कछु भी कव भुन्सराँ
तो पोपले मौंअन पे भी चमक ल्याई देत। सो भुंसारे तो भुंसारेई आँय। कछु न कछु दैई
कें जात। ...सूरज खों काम तौ चंदा खों विसराम... भगवान सबके दिनडूबे आराम देंय उर
भुंसारे नए नए काम देय।“
तीसरे निबंध ‘दिवारी’ में दीपावली के प्रसंग, बुंदेलखंडी रीति रिवाजों और
कहावतों पर प्रकाश डाला गया है। लेखक के अनुसार “जब तक आदमी धरती पे है नों
रोसनी ल्यावे की जा मन्सा बनी रैहै – दिवारी एई कोसिस को नाव है।“ आधुनिकता के दौर में संस्कृति के बदलाव पर लेखक
का चिंतन सामने आता है-“न वे इंदयारे रये और न वे उजयारे...सब कछु टीवी के डिब्बा
पै होत रत ...बिजली की जगमगाहट में माटी के दिया दब गये ... ।“
अगला निबंध ‘कच्ची ईंट बाबुल देरी न धरियौ’ बेहद करुण रचना है। बेटी के लालन पालन से लेकर उसके बचपन, खेल खिलौनों और वैवाहिक रस्मों तथा बिदाई का वर्णन है। अंत
में बुंदेलखंड में घर घर गाए जाने वाले एक लोकगीत “कच्ची ईंट
बाबुल देरी न धरियौ” का जिक्र है। बाल विवाह पर केंद्रित इस गीत में लड़की कहती है
कि दहलीज़ के इस तरफ मायका और उधर ससुराल है। इस दहलीज़ पर कच्ची ईंट न धरी जाए यानी
कन्या को बालिका वधू न बनाया जाए।
पाँचवे निबंध ‘समय के फेर’ में पुरुषार्थ का
महत्व समझाया गया है। छटे निबंध ‘भारतीय सनातन और श्रमण धर्म’ में हमारे समाज में धर्म की आवश्यकता व उसकी भूमिका तथा स्वामी महावीर के
सिद्धांतों पर विस्तार से चर्चा की गई है। लेखक के अनुसार महावीर स्वामी ने पहली
बार श्रमण धर्म को वैज्ञानिक दशा और दिशा दी जिसे दुनिया के वैज्ञानिकों ने बाद
में माना। अगले निबंध ‘वैश्वीकरण और लोक संस्कृति’ में वैश्वीकरण के दौर में बढ़ते बाजारवाद, मॉल
संस्कृति के कारण खत्म होते छोटे रोजगार आदि पर चिंतन है। लेखक की चिंता वाजिब है
कि “विकास तो चाउनें पर जीव जंतु प्रकृति के विनास करकें नईं...वैश्वीकरण हमें
अपनी सर्तन पै मंजूर करनें, न कै पच्छम की नकल
करके... ।“ आठवाँ निबंध ‘सब कछु
बादल रओ’ में समय के बदलाव के कारण छूटती जा रही चीजें और
प्रकृति से की जा रही छेड़खान के दुष्परिणामों पर चिंता जताई गई है। अगले निबंध ‘’पानी बनाम ज़िंदगानी’ में घटते भूजल स्तर के कारण
और निवारण पर चिंतन है। निबंध ‘लोकतंत्र कौ लोक परब’ में आम चुनाव में किए जाने वाले लोकलुभावन वायदों और बेतहाशा बढ़ते चुनावी
खर्चों की चिंतन है। ग्यारहवें निबंध ‘अखबार’ में समाचार पत्रों में पूँजीपतियों के बढ़ते जा रहे प्रभाव व दखल को उजागर
किया है।
पाँच से ग्यारह-उक्त सातों निबंध बुंदेलखंडी भाषा में जरूर हैं पर किसी
विशिष्ट भू भाग पर केंद्रित नहीं हैं। बारहवाँ निबंध ‘आजादी
की लड़ाई और बुंदेलखंड’ से वे फिर बुंदेलखंड पर लौट आते हैं।
देश में आजादी की लड़ाई सन् 1857 से मानी जाती है पर लेखक ने बताया है कि बुंदेलखंड
में 1842 ई. में ‘बुंदेला विद्रोह’ के नाम से शुरू हो चुकी थी जब उत्तरी सागर में बुंदेले ठाकुरों ने
ब्रिटिश सरकार द्वारा की गई लगानवृद्धि का न सिर्फ विरोध किया बल्कि लगान वसूली के
लिए आए प्रतिनिधियों को मौत के घाट उतार दिया था। उसके बाद से लेकर 1947 तक
बुंदेलखं रानी लक्ष्मीबाई सहित अन्य बुंदेलखंडियों का कहाँ कहाँ कितना योगदान रहा
है यह बताने का प्रयास किया है। ‘बुंदेलखंड: एक असलियत’ में बुंदेलखंड राज्य के गठन को लेकर पं. बनारसीदास चतुर्वेदी द्वारा 1943
से पहले उठाई गई माँग व बाद में उसके समर्थन में उठी छुटपुट आवाजों नेताओं द्वारा
किए गए वादों का उल्लेख किया गया है। अगला निबंध ‘बानपुर
की बावन पोलें’ एक अलग मिजाज का निबंध है। इसमें वहाँ के
लोक जीवन में प्रचलित कुछ कहावतों जैसे “बानपुर की बावन पोलें हैं’ व कुछ अन्य की उत्पत्ति से जुड़े प्रसंगों का रोचक उल्लेख है।
पंद्रहवें निबंध ‘बुंदेलखंड के तीरथ’ में इस अंचल के कई छोटे मोटे उन स्थानों का उल्लेख है जिनका ऐतिहासिक धार्मिक महत्व है जैसे- ओरछा, खजुराहो, पन्ना,
दतिया में पीतांबरा पीठ, छतरपुर में जटाशंकर, देवगढ़,
सोनागिर, बानपुर, द्रोणगिर, और कई अन्य। ओरछा के बारे में एक रोचक जानकारी वे देते हैं कि “दुनिया में अकेलौइ ओरछा धाम है जिते राम राजा के रूप में विद्यमान हैं, और आज भी उनें रोज तोपन/बंदूकन की की सलामी दई जात... ।“ अगले निबंध ‘ठैरे कम निगे ज्यादा: कइलास की कठन
मरजादा” में लेखक की कैलाश-मानसरोवर यात्रा में आई कठिन
परिस्थितियों का अच्छा चित्रण है। अंतिम निबंध ‘बुंदेली कौ
मानकीकरन’ में बुंदेली की भाषा के रूप में मान्यता कि राह
में आने वाली बाधाओं का वर्णन है। उनकी नजर में इसका मुख्य कारण बुंदेलखंड में
व्याप्त सामंतवाद रहा है जिसके कारण यह अपनी अपनी रियासतों में सिमटकर रह गई। ‘कोस कोस पे पानी बदले कोस कोस पे वाणी’ ये कहावत
बुंदेली पर भी लागू होती है। इस कारण मांकीकरण में व्यावहारिक कठिनाई आती है।
मेरी विनम्र राय में बुंदेलखंड वासियों को
चाहिए कि वे अपनी भाषा में अधिक से अधिक साहित्य रचें व प्रकाशित करें। शब्दों के
सर्वसम्मत एक रूप संग्रहीत कर मानक शब्दकोश तैयार करे, फिर बोली का भाषा में जाने पहचाने जाने का मार्ग अपने आप
प्रशस्त हो जाएगा। आठवीं अनुसूची में शामिल कुछ भाषाओं की तुलना में बुंदेली का
क्षेत्र निश्चित ही व्यापक है इसलिए एक दिन यह स्थान बनाकर रहेगी।
***
100, रामनगर एक्सटेंशन, देवास 455001 मेल आईडी om.varma17@gmail.com
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