व्यंग्य
जब रेलों में प्रायोजित भिखारी होंगे!
ओम वर्मा
जब रेलों में प्रायोजित भिखारी होंगे!
ओम वर्मा
कहते हैं कि बारह बरस
में कूड़े के दिन भी बदल जाते हैं तो उनके क्यों नहीं बदलेंगे?
कोई साधू-संन्यासी
माँगे तो वह ‘भिक्षुक’
और साधारण व्यक्ति माँगे तो ‘भिखारी’
या ‘भिखमंगा’
कहलाता है। यह कहाँ का न्याय है! भिखारी भी तो आखिर मानव ही हैं! उनमें से कुछ को
यह काम विरासत में मिलता है और कुछ बाद में ‘बना’
दिए जाते हैं। जाहिर है कि ये समाज की सबसे निचली पायदान यानी हाशिए पर ही रहते आए
हैं जिनके लिए पहली बार सरकार के सामने कुछ ‘ठोस’
कदम उठाने के सुझाव आए हैं।
सरकार के ध्यान में आया या कहें कि लाया गया है
कि रेलों में यात्री भिखारियों से परेशान हैं। अब सरकारों का तो ऐसा है कि
परेशानैयों से उनका चोली दामन का साथ रहता आया है। कभी सरकार कुछ लोगों से परेशान
तो कभी कुछ लोग सरकार से परेशान! आम आदमी बेचारा दोनों से परेशान! पिछले दिनों यह खबर
आई थी कि रेलों में गा - गाकर
भीख माँगने वाले भिखारियों से सरकार सरकारी नीति व कार्यक्रमों का प्रचार प्रसार
करवाएगी। अभी वे सिर्फ याचक हैं और उनका
हर सवाल अपने पापी पेट से शुरू होकर उसी पर खत्म हो जाता है और अब तक वे सिर्फ ‘दे
दे माई... भगवान भला करे... तेरे बच्चे जिएँ... अल्लाह के नाम पर दे दे...’
जैसे मार्मिक व ‘अ
- सरकारी’ जुमले बोल कर हमारी
संवेदनाओं को छूने का प्रयास किया करते हैं।
अब अगर सरकार इस नए सुझाव पर विचार कर कोई नई योजना लाए तो भिखारी भिखारी न
रहकर शासकीय रेकॉर्ड में पंजीकृत ‘भिक्षाकर्मी’
हो
जाएँगे। याचना के लिए लगाई जा रही पुकार के उनके बोल उनके नहीं रहेंगे बल्कि
प्रायोजित हो जाएँगे। वे सरकारी बोलों पर ‘पार्श्वगायन’
करते नजर आएँगे। फिर उन्हें मात्र ‘मँगते’
या भिखमंगे’ समझकर दुत्कारा
नहीं जा सकेगा।
हमारे देश में भीख माँगना भले ही असंवैधानिक
व दंडनीय कृत्य हो मगर उसे रोक पाना किसी भी सरकार के वश में नहीं है। फिर भी
सरकार तो सरकार है, लोकलुभावन
घोषणाओं के दौर में अवैध को वैध करने की कला भी जानती है। लिहाजा जहाँ
झुगी-झोंपड़ियाँ न हटा सकें वहाँ उन्हें वैध करना,
बिजली चोरी नहीं रोक सकें वहाँ मुफ्त बिजली कनेक्शन देना,
कभी
समलैंगिकता को वैध करवाने पर बहस करवा देना,
काला धन भले ही न ला पाएँ पर लाने की बात करते रहना,
आदि कुछ ऐसे अचूक उपाय हैं जिनसे सरकार को लगने लगता है कि काँटा काँटे
से ही निकाला जा सकता है। वैसे भी आजकल जब कई सरकारी माध्यम सरकार की छवि नहीं बना
पाते हों या नहीं चमका पाते हों और किसी भी रीति/नीति का पोस्टमार्टम करने के लिए
विपक्ष वाले ‘टाक शो’
से लेकर सदन तक बाघ नख पहने तैयार बैठे रहते हों तो ऐसे में भिखारियों को ही आजमा
लेने में क्या हर्ज है? ऐसा
होते ही उनमें एक नया आत्मविश्वास जागृत होगा। अब वे ‘हक़
और हलाल’ की कमाई खाएँगे। लीजिए
प्रस्तुत है कुछ राज्यों की संभावित झलक -
म.प्र. सरकार के प्रायोजित भिखारी कुछ
यूँ गाते दिखेंगे-
“देखो ओ दीवानों
तुम ये काम न करोsss..
व्यापम का नाम बदनाम
ना करोsss,
बदनाम ना करोsss!
दिल्ली में केजरीवाल सरकार पर विज्ञापनों
पर बेहिसाब खर्च करने को लेकर पहले ही तोहमत लग रही हैं सो पहले वे ‘ट्रेन
में भिखारियों से प्रचार करवाना या नहीं’
इस बात पर एसएमएस द्वारा जनता की राय लेंगे। जाहिर है कि ऐसा ‘ओपिनियन
पोल’ हमेशा की तरह उनके पक्ष
में ही होगा। फिर मेट्रो स्टेशनों पर भिखारी ढपली बजा बजाकर यह गाते मिलेंगे-
“बिजली
मिलेगी S,
पानी मिलेगा S,
आप की सरकार है,
सब कुछ मिलेगा...बिल न भरो यार SSS बिल न भरो यार SS…”
केजरीवाल सरकार की एक नीति यह भी है कि खुद जो करें
वह तो बताना ही साथ में हर वह बात जो न कर पाए उसका ठीकरा मोदी सरकार पर भी फोड़ना।
उनके प्रायोजित भिखारी मेट्रो में यह आलाप गाते नजर आएँगे-
“यहाँ बैठी मोदी सरकार,
न देती पैसे हमको चार,
के सपने टूट गए SS, के सपने S
टूट गए...!”
किसी मेट्रो स्टेशन पर भिखारी यह गाते भी दिख
सकते हैं - “हो
मोदी या कांग्रेस,
सभी SSS करते
हैं बस ऐश ...ये सब हैं मिले हुए SSS...ये
सब हैं मिले हुए SSS!
यू.पी. की ट्रेनों का दृश्य- "बच्चे
गलती कर दें तो उनको माफ करो SSS
...नारी उत्पीड़न को दिल से साफ करो SSS…!”
बिहार में अभी इस बात पर घमासान मचा है कि
भिखारी किसके नाम के गीत गाएँ?
जेडी(यू) या आरजेडी के। आरजेडी के गाएँ तो किसके नाम के गाएँ- लालू जी,
तेजप्रताप या तेजस्वी के? उधर
पश्चिमी बंगाल में ममता दी यह तय नहीं कर पा रही हैं कि सरकार के काम के प्रचार के
स्लोगन गवाए जाएँ या वाम दलों व मोदी सरकार के विरोध के गीत तैयार करवाए जाएँ!
जाहिर है कि देश की ‘भिखारी
संस्कृति’ में आमूल चूल
परिवर्तन होने की संभावना है।
*** 100,
रामनगर एक्सटेंशन, देवास
455001 (म.प्र.)
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