Thursday, 3 March 2016

सुबह सवेरे 23.02.16


     व्यंग्य 
           गांधी चरखा और सोलर चरखा
                                            ओम वर्मा 
                                      om.varma17@gmail.com     
त्य, अहिंसा, धोती, सत्याग्रह और चरखे को मिलाओ तो गांधी बनता है ! आपात्काल में कांग्रेस अध्यक्ष रहे स्व. देवकांत बरुआ जी से क्षमा याचना कर करना चाहूँगा कि गांधी इज़ चरखा; चरखा इज़ गांधी!’ सागौन की लकड़ी से बना यह पोर्टेबल चरखा यरवड़ा जेल में भी गांधी के व्यक्तित्व और दिनचर्या का अविभाज्य अंग था। 1933 में रिहा होने के बाद उन्होंने इसे वर्धा की एक मिशनरी के रेवरेण्ड डॉ. फ्लायड ए. पफ़र  (1888-1965) तथा उनकी पत्नी को भेंट कर दिया था। और इसी करामाती चरखे को गत 5 नवं.13 को लंदन के मलस्क्स आक्शन हाउस में एक लाख दस हजार पौंड में नीलाम कर दिया गया। नीलामी की खबर से तब सभी दलदलों, आयमीन राजनीतिक दलों में खलबली मच गई थी।
     “क्या आपको पता है कि बापू चरखा चलाया करते थे?” मैंने गांधी के नाम पर सालों से राजनीति कर रहे राजनीतिक दल के कार्यालय में एक कार्यकर्ता से पूछा।
     ये बापू आखिर चरखा क्यों चलाते थे? क्या इसका सूत चीन के सूत या कपड़े से भी सस्ता था?”उस कार्यकर्ता ने मुँह में भरी पान मसाले की पीक थूकते हुए प्रतिप्रश्न कर डाला।
    “क्या आपको पता है कि वह चरखा इंग्लैंड में था और वहाँ दस लाख पौंड की बोली लगाकर उसे किसी विदेशी ने ही खरीद लिया है।“ मैंने उन्हें बहुमूल्य जानकारी देनी चाही।
    “चरखे से सूत कातना सिखाने से तो अच्छा होता यदि वे यह सिखा कर जाते कि चुनाव कैसे जीता जाए या कट्टे तमंचे बनाने के गुर सिखाते... अब चरखे को चाटें क्या?” तभी मंत्रीजी के एक लट्ठ-भारती पट्ठे ने अपनी जिज्ञासा सामने रखी।
     “मेरे ख्याल से वो चरखा हमें खरीद लेना था।” एक और चुनावी झाँकी विशेषज्ञ ने सुझाव दिया।
     “क्या चरखे टाइप बात कर रहे हो यार! ब्रिटिश पौंड आज सौ रु. का है। एक करोड़ के चरखे पर एक करोड़ तो कस्टम वाले ही ले लेते। दो करोड़ से भी ज्यादा का चरखा लेकर अचार डालेंगे क्या?” पार्टी के एक चंदा संग्राहक तथा ‘अर्थशास्त्री’ टाइप कार्यकर्ता ने कुछ इस तरह श्रद्धांजलि दी।
     “सोचो अगर बापू का चरखा हमारे पास आ जाता तो हम पटेल के स्टेचू ऑफ यूनिटी से भी बड़ा मुद्दा जनता के सामने रख सकते थे। इस जोरदार विचार पर कई लोग नंगे सिर होते हुए भी हेट्स ऑफ! हेट्स ऑफ !! चिल्लाने लगे।
     “मैं कहता हूँ अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। क्यों न हम किसी साधू से यह बयान दिलवा दें कि उसे सपना आया है कि फलाने फलाने किसी दलित व्यक्ति के यहाँ रखा चरखा ही बापू का असली चरखा है। फिर वहाँ हमारे बड़े सर एक बार जाकर भोजन भी कर लें, कुछ मच्छरों को रक्तदान भी कर दें और चरखा लेकर राष्ट्र को समर्पित भी कर दें। इससे ये दलित लोग भी खुश हो जाएंगे और मच्छरों का भी टेस्ट चेंज हो जाएगा। फिर  उसी  चरखे से काते गए सूत में से एकाध धागा लेकर बाकी सिंथेटिक सूत मिलाकर उससे बनी साड़ियाँ देश की तमाम मातृशक्ति मेँ बँटवाने की घोषणा कर दी जाए। चरखे की हिफाजत भी हो जाएगी, खादी का प्रचार भी हो जाएगा और गांधीगिरी वाला मुद्दा भी अगले चुनाव से पहले हमारे पलड़े में आ जाएगा।“ स्वयं को पार्टी का थिंक टैंक समझने व लंबा कुर्ता, खिचड़ी दाढ़ी की वज़ह से बुद्धिजीवी टाइप दिखाने की कोशिश कर रहे एक वरिष्ठ नेताजी ने कहा।
       इस बीच देश में नई घोषणा हो गई कि देश में वर्तमान समय में चल रहे साढ़े बारह लाख चरखों को सोलर चरखों से बदल दिया जाएगा जिससे अगले दस सालों में पाँच करोड़ महिलाओं रोजगार मिलेगा। जाहिर है कि इससे दूसरे खेमे में चिंता की लहर व्याप्त हो गई। इस आगामी ख़तरे से निपटने के लिए एक कार्यकर्ता टाइप बंदे ने सुझाव दिया कि फिलहाल हर मोहल्ले में एक एक चरखा केंद्र खुलवा कर सूत कताई का साप्ताहिक आयोजन प्रारंभ कर दिया जाए।
        चरखे पर गांधीगिरी जारी है।
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