उफ़् ये मतदान व क्रिकेट को मूर्खों का खेल कहने वाले !
प हली अप्रैल यानी अंतरराष्ट्रीय मूर्खता दिवस ! आज के दिन सारे अखबार मूर्खता पर चिंतन व व्यंग्यों से भरे मिलेंगे। पिछले कुछ वर्षों में पहली अप्रैल को प्रकाशित हुए कई व्यंग्यों को मैं पढ़ता रहा हूँ। सभी लेखों में दो बातें मुख्य रूप से उभरकर सामने आती हैं कि ‘जनता वोट देकर मूर्ख बनती है’ या फिर जॉर्ज बर्नाड शॉ के हवाले से यह कुतर्क दिया जाता है कि “क्रिकेट 22 मूर्खों द्वारा खेला जाने वाला वह खेल है जिसे 22 हजार मूर्ख स्टेडियम में और 22 करोड़ मूर्ख टीवी पर देखते हैं...,!"
हो सकता है कि हम वोट देकर मूर्ख बन जाते हों मगर मेरी नजर में मतदान के दिन मत न देकर घर बैठे रहना और बड़ी मूर्खता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में उपलब्द्ध उम्मीदवारों में से श्रेष्ठ का चयन करने का नाम ही आम-चुनाव है। क्रिकेट का जहाँ तक सवाल है किसी विशेष परिस्थिति, विशेष अवसर, और तत्कालीन संदर्भ में कही गई उक्त बात पता नहीं किस परिप्रेक्ष्य में काही गई थी, मगर आज क्रिकेट को मूर्खों का खेल कहना ही अपने आप में यदि मूर्खता नहीं तो समझदारी भी नहीं है। आज जिस खेल में हमारा देश उसके जन्मदाता को भी मात देने का माद्दा रखता हो, जिसके सितारों को काउंटी और आईपीएल वाले मुँह माँगी फीस देने को तैयार हों, जिस खेल के सामग्री निर्माण से लेकर खेल के प्रसारण, टीवी विज्ञापन,खिलाड़ियों के कपड़े और उनके द्वारा किए जा रहे विज्ञापनों से करोड़ों लोगों का टर्नओवर जुड़ा हो...क्या वह मूर्खों का खेल है ? जिस खेल में दो पड़ोसी देशों के बीच छिन्न-भिन्न होते समरसता के ताने –बाने को जोड़ने व सुधारने की कूव्वत हो, जिसके जरिए पुराने जख्मों को भरने का राजनय चलाते हुए पडौसी देश के राष्ट्राध्यक्ष को भी ससम्मान आमंत्रित किया जा सकता हो, जहाँ मुकेश अंबानी जैसा धनकुबेर जिसके एक मिनट की कीमत लाखों में हो सकती है, खुद खड़ा होकर हर शाट पर ताली बजाता नजर आता हो...और जिसमें देश की जीत व अपने पुत्रवत सचिन की शतकों के शतक के लिए भारतरत्न से सम्मानित स्वर कोकिला लताजी स्वयं व्रत रख सकती हों उसे कम से कम मूर्खों का खेल तो मत कहो मेरे भाई!
क्रिकेट भी आज शारीरिक दक्षता के अलावा बहुत कुछ दिमागी चतुराई का खेल भी हो गया है। चतुर गेंदबाज अपनी उँगलियों के जादू से बल्लेबाज को और बल्लेबाज एन वक्त पर अपना स्टांस बदलकर सारे क्षेत्ररक्षकों को चकमा दे सकते हैं। आज कई ऐसे गेंदबाज हैं जिनको पहले से पढ़ पाना सिर्फ अनुभव और मानसिक कौशल का काम है। अभी भारत- बांग्लादेश मुक़ाबले में कप्तान धोनी ने जो अंतिम ओवर का रोमांच उत्पन्न किया था वह सूझबूझ भरी चतुराई क्या 'ऑफ़ दि मूर्ख, बाय दि मूर्ख, एंड फॉर दि मूर्ख' वाली घटना थी? अभी ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ 82 रन वाली ‘विराट पारी’ को आप मूर्खता के किस खाने में रख सकते है? अब्दुल कादिर जैसे अनुभवी स्पिनर को साढ़े सोलह साल का मुंबईकर जब लगातार तीन बाउंड्री लगाकर ताली बजाने को मजबूर कर दे,वह सिर्फ भद्रजनों का खेल हो सकता है, मूर्खों का कतई नहीं। क्रिकेट ने दिलों को जोड़ा है,तोडा नहीं! क्रिकेट से ज्यादा लड़ाई झगड़ा तो पश्चिमी देशों में फ़ुटबाल के दीवाने कर बैठते हैं। तो क्या फ़ुटबाल बदमाशों या मूर्खों का खेल हो गया ? दरअसल अपने ‘मास अपीली’गुण के कारण क्रिकेट की लोकप्रियता, उसका ग्लैमर दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। कुछ लोगों को क्रिकेट से इसलिए नफ़रत हो गई है कि उसमें 'फिक्सिंग' होने लगी है ! लेकिन इसमें क्रिकेट का क्या दोष ? गंगाजल से आप सामिष भोजन पकाएं या निरामिष, गंगाजल तो गंगाजल ही रहेगा...! यह वो खेल है जिसमें कभी कभी अंतिम पलों में रेडियो कमेंटेटर को यह चेतावानीपूर्ण घोषणा करना पड़ती है कि कृपया कमजोर दिल वाले कमेंट्री न सुनें...और ऐसे खेल को मूर्खता के विशेषण से नवाजने वालों को मेरा दूर से सलाम !
दरअसल जिन 'बुद्धिजीवियों' को क्रिकेट का तकनीकी ज्ञान नहीं होता उन्हें खेल समझ में नहीं आता...! वे इसे राष्ट्रीय समय, धन व मानवशक्ति की बर्बादी बताकर आलोचना करना एक फैशन समझते हैं। वे यह उदहारण देते हुए नहीं थकते कि अमेरिका जैसे उन्नत देश में यह 'मूर्खों' का खेल नहीं खेला जाता। लेकिन क्या कभी उन्होंने अमेरिका में होने वाली WWF जैसी हिंसक कुश्तियों को 'मूर्खों' या हिंसकों का खेल बताने की हिम्मत की है ?आज क्रिकेट के कारण असल में कई लोगों को रोजगार मिला है, प्रसारण, टीवी विज्ञापन आदि में कई करोड़ का व्यवसाय हो रहा है, और इसे राष्ट्रीय खेल घोषित करने की माँग तक उठने लगी है, ऐसे में कोई इसे 'मूर्खों' का शगल बताए तो उसके लिए सिर्फ प्रार्थना भर की जा सकती है।
1933-34 में इंग्लैंड की टीम का भारत दौरा। भारतीय टीम के विजय मर्चेंट को उनकी छोटी बहिन लक्ष्मी ने अपनी ऑटोग्राफ बुक दी इंग्लैंड के सभी खिलाड़ियों का ऑटोग्राफ लाने के लिए। उन्होंने ‘एम.सी.सी. टूरिंग टीम 1933-34’ शीर्षक लिखकर सभी सोलह खिलाड़ियों के ऑटोग्राफ लिए। दो महीने बाद उन्हें गांधी जी का ऑटोग्राफ लेने के लिए उनसे मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। गांधी जी ने मुस्कराते हुए उस हस्ताक्षर पुस्तिका के पन्ने पलटने शुरू किए और जहां पर एम.सी.सी. के खिलाड़ियों के हस्ताक्षर थे, वहीं पर उन्होंने क्रम संख्या 17 पर ‘मो.क.गांधी’ लिख दिया। यानी सीधा संदेश था कि गांधी जी की लड़ाई अँगरेजी हुकूमत से है और अगर वे इसे मूर्खों का खेल मानते तो ऑटोग्राफ बुक में इंग्लैंड की टीम के ‘17वें खिलाड़ी’की जगह हस्ताक्षर हरगिज न करते।
जॉर्ज बर्नाड शॉ ने पता नहीं किस सन्दर्भ में क्रिकेट को 22 मूर्खों का खेल बताया था,लेकिन उनके कथन में यह जोड़ना कि इसे 22 करोड़ मूर्ख टीवी पर देखते हैं, बहुत ही सतही टिप्पणी है, क्योंकि बर्नाड शा के समय तो टीवी की शुरुआत ही नहीं हुई थी। और लास्ट बट नॉट द लीस्ट कि अगर क्रिकेट सचमुच मूर्खों का खेल होता तो कथा शिल्पी प्रेमचंद अपनी अंतिम कहानी ‘क्रिकेट मैच’ लिखकर अपना वक़्त जाया नहीं करते!
संपर्क - 100, रा मनगर एक्सटेंशन देवास 455001
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