Tuesday, 29 March 2016

व्यंग्य - सोना नहीं सब्जी लीजिए!

                                      
      सोना  नहीं सब्ज़ी लीजिए !
                                                                                                 ओम वर्मा
सोना कितना सोना होता है यह मुझ जैसों को अब समझ में आया!
     ‘सोने का खोना अशुभसोने का मिलना अशुभ’ यह तो सुना था मगर अब देख रहा हूँ कि सोने का सस्ता होना भी अशुभ और सोने का महँगा होना भी अशुभ! अभी कुछ समय पहले जब सोना लुढ़का था तो इस ‘कनक’ की कुछ ऐसी मादकता चढ़ी थी कि सब्ज़ी मार्केट के लिए निकला बंदा  भी सराफा बाजार चला जाता था। वहाँ जाकर जब हाथ उसकी जेब में जाता तो उसे एहसास होता कि वह जो पैसे जेब में लेकर निकला है उससे सराफा बाजार का कनक नहीं बल्कि सब्ज़ी के खेत खलिहानों के किनारे उगने वाला कनक ही खरीदा जा सकता है। आखिर को एक –दो सब्ज़ी लेकर विजय माल्या बनने के ख्वाब देखने चला यह होरीराम चुपचाप घर जाकर सब्ज़ी का थैलाबल्कि थैली धनिया के सामने ले जाकर रख देता।            
     मगर जब भाव फिर बढ़ने लगे तो भी बाजार की रंगत वही रही। सरकार चाहे एक्साइज ड्यूटी बढ़ाएँ या पेन कार्ड माँगेशादियाँ न तो कल रुकीं न आज रुकने वाली हैं। मगर अखिल भारतीय सराफा संघ के आह्वान पर हड़ताल जारी है। प्रोटेस्ट के लिए भी आजकल नए नए तरीके खोजे जा रहे हैं। कहीं  सिर मुँड़वानाकहीं सद्बुद्धि यज्ञकहीं भिक्षावृत्ति और कहीं अर्द्धनग्न प्रदर्शन! मगर सोना चाँदी और हीरे मोती बेचने वाले अगर सब्ज़ी बेचकर प्रोटेस्ट दर्ज कराएँ तो अंदाज कुछ नया लगता है।
     लोकतंत्र में हड़ताल द्वारा माँगें मनवानाएक आम बात व जनता का प्रजातांत्रिक अधिकार है। यहाँ इस उम्मीद के साथ मैं बात आगे बढ़ा रहा हूँ कि कोई न कोई सर्वसम्मत रास्ता निकल ही आएगा। मगर खुदा न ख्वास्तः दोनों पक्ष न झुके तो जैसा कि व्यापारियों ने कहा है कि उन्हें सब्ज़ी बेचकर गुजर बसर करना पड़ जाएगी। मेरी चिंता पर चिंतन यहाँ शुरू होता है।
      हड़ताल जारी है। सराफा व्यापारी सब्ज़ी बाजार में ठेले लगाना चाहते हैं जहाँ पुराने सब्ज़ी विक्रेता उन्हें टिकने नहीं देते। सभी को अपनी पुश्तैनी दुकान व शो रूमों को सब्ज़ी दूकान में बदलना पड़ता है। जिस दुकान का नाम पहले ‘अमुक ज्वेलर्स’ था अब ‘अमुकग्रीनग्रॉसर्स’ हो गया है। सब्ज़ी बाजार की खुली टोकनियों में रखी सब्जियाँ सराफा दुकानों के शो केसेज में बैठकर अपने भाग्य पर इठला रही अपनी बहिनों के भाग्य पर रश्क कर रही हैं। अनोखीलाल थैली लेकर दुकान पर चढ़े और पूछा“कद्दू कैसा है?”
     “बढ़िया है साबपूरे चौबीस कैरेट। आईएसआई मार्के का है”धीमे से उन्हें जवाब मिलता है।
     “क्या भाव है?” वे भाव पूछते हैं।
     “एक रु. का बीस ग्राम!”
     सुनकर वे चौंकते हैं फिर बदली हुई परिस्थिति में खुद को ढालते हुए सामने मसनद पर बैठे सेठ जी से सराफे के आदाब का पालन करते हुए धीरे से कहते हैं“ठीक है आधा किलो दे दो।“ सेठ जी एक टुकड़ा काटकर मेटेलिक बैलेंस पर तौलकर बढ़िया डिब्बे में पैक कर बिल थमा देते हैं। बिल देखकर अनोखीलाल जी चौंक जाते हैं। एक रु. के बीस ग्राम के हिसाब से चालीस रु. किलो और आधा किलो के बीस रु. होना चाहिए थे। मगर बिल इक्कीस रु. का। बिल को ध्यान से देखने पर मालूम होता है कि मात्रा  520 ग्राम है।
     अनोखीलाल जी दुआ करते हैं कि आभूषण विक्रेताओं की हड़ताल जल्द खत्म हो। वे मन ही मन यह भी कामना करते हैं कि अगर सब्ज़ी विक्रेताओं की हड़ताल हो तो उनका संगठन उन्हें प्रोटेस्ट स्वरूप आभूषण बेचने की सलाह दें  ताकि वे सब्ज़ी को सोने चाँदी की तरह तौलने वालों से उलट सोने चाँदी को सब्जियों की तरह तौलने लग जाएँ!   
      अगर हड़ताल टूटने का कोई रास्ता न निकले तो सूखी सब्जियों को आभूषण के रूप में प्रयुक्त किए जाने पर भी विचार किया जा सकता है!
                                                               ***
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